Wednesday, October 30, 2019

 संपूर्ण समर्पण और त्याग का छठ  पर्व

पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा।



राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है। इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम-सीता 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया । मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।



एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है। छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।


किंवदंती के अनुसार, ऐतिहासिक नगरी मुंगेर के सीता चरण में कभी मां सीता ने छह दिनों तक रह कर छठ पूजा की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार 14 वर्ष वनवास के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूय यज्ञ करने का फैसला लिया। इसके लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया था, लेकिन मुग्दल ऋषि ने भगवान राम एवं सीता को अपने ही आश्रम में आने का आदेश दिया। ऋषि की आज्ञा पर भगवान राम एवं सीता स्वयं यहां आए और उन्हें इसकी पूजा के बारे में बताया गया। मुग्दल ऋषि ने मां सीता को गंगा छिड़क कर पवित्र किया एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। यहीं रह कर माता सीता ने छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।


एक मान्यता के अनुसार, लंका पर विजय पाने के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की पूजा की। सप्तमी को सूर्योदय के वक्त फिर से अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। यही परंपरा अब तक चली आ रही है।


छठ पूजा का महत्व एवं विधि


 


छठ पूजा : अस्ताचलगामी और उदीयमान सूर्य को देते हैं अर्घ्य


नवरात्रि और दूर्गा पूजा की तरह छठ भी हिंदूओं के प्रमुख त्यौहारों में से एक है। छठ पूजा को लेकर हिन्दुओं में काफी आस्था होती है। हालांकि अब यह पर्व हर जगह मनाया जाने लगा है, लेकिन मुख्य रुप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में इस पर्व को लेकर एक अलग ही उत्साह देखने को मिलता है। छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्यदेव की उपासना का पर्व है। इस दौरान डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठ सूर्य देव की बहन हैं और सूर्योपासना करने से छठ माता प्रसन्न होकर घर परिवार में सुख-शांति व धन-धान्य प्रदान करती हैं।


कार्तिक छठ पूजा का है विशेष महत्व


भगवान भाष्कर की आराधना का यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है, चैत्र शुक्ल की षष्ठी व कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को। चैत्र शुक्ल की षष्ठी को काफी कम लोग यह पर्व मनाते हैं, लेकिन कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला छठ पर्व मुख्य माना जाता है। चार दिनों तक चलने वाले कार्तिक छठ पूजा का विशेष महत्व है।


क्यों की जाती है छठ पूजा


छठ पूजा मुख्य रूप से सूर्य देव की उपासना कर उनकी कृपा पाने के लिये की जाती है। भगवान भास्कर की कृपा से सेहत अच्छी रहती है और घर में धन धान्य की प्राप्ति होती है। संतान प्राप्ति के लिए भी छठ पूजन का विशेष महत्व है।


कौन हैं छठ माता और कैसे हुई उत्पत्ति?


छठ माता को सूर्य देव की बहन बताया जाता है, लेकिन छठ व्रत कथा के अनुसार छठ माता भगवान की पुत्री देवसेना बताई गई हैं। अपने परिचय में वे कहती हैं कि वह प्रकृति की मूल प्रवृत्ति के छठवें अंश से उत्पन्न हुई हैं यही कारण है कि उन्हें षष्ठी कहा जाता है। संतान प्राप्ति की कामना करने वाले विधिवत पूजा करें, तो उनकी मनोकामना पूरी होती है। यह पूजा कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को करने का विधान बताया गया है।


पौराणिक ग्रंथों में इसे रामायण काल में भगवान श्री राम के अयोध्या वापसी के बाद माता सीता के साथ मिलकर कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना करने से भी जोड़ा जाता है।


चार दिनों तक चलती है छठ पूजा


छठ पूजा चार दिनों तक चलती है और इसे काफी कठिन और विधि-विधान वाला पर्व माना जाता है। इसके लिए पूजा से पहले काफी साफ-सफाई की जाती है। घर के आस-पास भी कहीं गंदगी नहीं रहने दी जाती।


नहाय-खाय


पूजा के पहले दिन नहाय खाय होता है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को होती है। मान्यता है कि इस दिन व्रती स्नान कर नए वस्त्र धारण करते हैं और शाकाहारी भोजन करते हैं। इस दिन लौकी-भात (लौकी की सब्जी और चावल, दाल आदि) की परंपरा है। पूजा के दौरान बाजार में लौकी की कीमत भी काफी बढ़ जाती है। नहाय खाय के दिन व्रती के भोजन करने के पश्चात ही घर के अन्य सदस्य भोजन करते हैं।


खरना


छठ पूजा के तहत नहाय-खाय के दूसरे दिन खरना होता है। कार्तिक शुक्ल पंचमी को पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को व्रती भोजन ग्रहण करते हैं। इसे खरना कहा जाता है। इस दिन अन्न व जल ग्रहण किए बिना उपवास किया जाता है। शाम को चावल और गुड़ से खीर बनाकर खायी जाती है और लोगों के बीच इसका प्रसाद भी वितरित किया जाता है। इसमें  नमक व चीनी का इस्तेमाल नहीं किया जाता। खीर बनाने में भी गुड़ का इस्तेमाल होता है।


खरना के दूसरे दिन घी में बनता है प्रसाद


खरना के दूसरे दिन षष्ठी को छठ पूजा का प्रसाद बनाया जाता है। इसमें ठेकुआ का विशेष महत्व होता है। अर्घ्य के लिए ठेकुआ बनता है वह पूरी तरह से घी में ही बनाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए <span style="font-f


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Tuesday, October 29, 2019

वर्तमान भारत और गाँधी जी

 आज देश के राजनैतिक दलों की जो हालत है उनमें जो भ्रष्टाचार और दुराचार व्याप्त हैए सत्ता पर कब्जा करने के लिए जो अनीतिपूर्ण हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं और उससे देश की जो बरबादी हो रही हैए ऐसे संकटपूर्ण अवसर पर गाँधी जी की याद आना स्वाभाविक है। गाँधी जी का उपदेश था कि किसी ऊँचे उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लेना ही काफी नहीं हैंए उस सफलता प्राप्त करने के साधन भी शुद्ध और नैतिक होना चाहिएए धर्म बिना राजनीति वेश्या समान हैएष्ष् उन्होंने कहा किजहाँ हिन्दू ष्ष्धर्म को स्थान नहीं है वहाँ मैं रहना नहीं चाहूँगा।ष्ष् उनके आश्रम में कोई दुराचारी भ्रष्टाचारी व्यक्ति घुस नहीं सकता था। वे आश्रम के एक.एक पैसे का हिसाब रखवाते थे। उन्होंने अपने परिवार वालों का कभी पक्ष नहीं लिया। गाँधी जी के जीवन पर विश्व में सैकड़ों पुस्तकें लिखी गई हैं और दुनियाँ में जितना आदर उनको प्राप्त है उतना किसी को भी नहीं है। भारत के अधिकतर उद्योगपति व बुद्धजीवी यह मानते हैं कि गाँधी जी से नफरत के आधार पर जो हिन्दुत्व बनेगा वह हमें नहीं चाहिए।
 आज राजनैतिक दल किसी अशुद्ध अनैतिक साधन से रत्ता पर कब्जा करना उचित समझते हैंै। इससे देश में भ्रष्टाचार और दुराचार फैल रहा है। गाँधी जी का कहना था गलत साधनों से आजादी प्राप्त कर लेना मुझे स्वीकार नहीं हैं। उन्होंने जीवन भर संयम ब्रह्मचर्यए सत्य अहिंसाए रामधुन गोरक्षाए हरिजनोद्धारए धर्मपरिवर्तन विरोधए नारी उद्धार गाँवों का उद्धार इत्यादि में बिताये और अहिंसा के भगीरथ प्रयत्न द्धारा सारे देश को एक करके 700 वर्ष की गुलामी को दूर करके भारतवासियों को आजादी दिलाने में अपना योगदान दिया तत्पश्चात विश्व के 112 देशों को बिना हिंसा के आजादी प्राप्त हुई। यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि दुनियाँ के देशों में इनकी महानता को नहीं समझा अन्यथा दुनियाँ में आज इतनी हिंसा नहीं होती और भारत को इसका श्रेय प्राप्त होता।
 देश के राजनैतिक दलों ने गाँधी जी के त्यागपूर्णए तपस्वी जीवन रद्दी की टोकरी ने डाल दियाए इससे देश में आदर्शपूर्ण संयमी जीवन मूर्खतापूर्ण माना जाने लगा और सर्वत्र भोग विलास और गरीबों का शोषण ही जीवन का उद्देश्य हो गया।
 गाँधी जी का कहना था कि अन्याय सहन करना सबसे बड़ा पाप है इससे अन्याय के विरूद्ध मीडिया में जोरदार प्रचार होना चाहिए। इसीसे जनता जागृत होकर देश की रक्षा करेगीए पर गाँधी जी की सबसे बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने पाकिस्तान से अदला बदली नहीं की अन्यथा आज भारत का नक्शा दूसरा होता। पक्के गाँधी वादी मोरारजी देसाई के अनुसार आज गाँधी जी की अहिंसा से आतंकवाद का सामना नहीं हो सकता। गीता के वाक्य के अनुसार ष्ष्विनाशाय च दुष्कृतामष्ष् सज्जनों की रक्षा के लिए दुुर्जनों का विनाश होना चाहिएए यही सत्य है।


उपेक्षा से आहत हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी

 पाण्डवों का यक्ष रूप में अवतरित-धर्म के ब्यूह में फँसना और धर्मराज युधिष्ठिर का अपने चारों भाइयों को काल के ग्रास से निकालने की कथा लगभग हम सबको पता है। प्रश्नों की श्रृंखला में यक्ष ने युधिष्ठर से स्वतंत्र राष्ट्र की परिभाषा भी पूछी थी तो युधिष्ठिर का उत्तर था-
 ''वह राष्ट्र जिसकी अपनी पताका, अपनी भूमि और अपनी राष्ट्र भाषा होती है वह स्वतन्त्र होता है।''
 हिन्दू हिन्दी भाषी बहुल राष्ट्र की विडम्बना है कि हिन्दी आज विदेशी भाषा अँग्रेजी की चाकरी कर रही है। यह भारत एवं भारतीय जन मानस का दुर्भाग्य है कि आज राष्ट्र स्तरीय नेता जब हिन्दी दिवस पर भाषण देते हैं तो वह हिन्दी दिवस का उच्चारण हिन्दी डे करते हैं। यह भारतीयता के साफ दामन पर लगा एक बदनुमा दाग है कि आम भारतीय हर उस व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ समझता है जो अँग्रेजी बोलना जानता हो। किए गये सर्वेक्षण के अनुसार देश में कुल हिन्दी भाषी 95ः एवं अँग्रेजी भाषी 5ः हैं यह 5ः व्यक्ति 95ः लोगों पर अपना आधिपत्य जमाये हुए हैं।
 एक जातक कथा प्रसिद्ध है-एक व्यक्ति के पास बरगद का एक बहुत छोटा पल्लवित वृक्ष था। आसपास के क्षेत्रों में यह एक महान आश्चर्य का विषय था क्योंकि सामान्यतया बरगद के वृक्ष विशालकाय होते हैं। जब उसके किसी साथी ने इसका कारण जानना चाहा तो उस व्यक्ति ने बताया कि वह माह में दो बार पेड़ की जड़े काट देता था।
 वह व्यक्ति पेड़ की जड़े काटता था और भारत सरकार आज पूर्ण तत्परता के साथ वटवृक्ष हिन्दी की जड़े काटने में रत है।
 दुर्भाग्य है कि अपनी भाषा नीति होते हुए भी अधिनियम, संसाधन, धन आदि सब कुछ होते हुए भी हम हिन्दी भाषा को उन्नति की बुलंदियों पर पहुँचाना तो दूर उसकी हीन दशा के विषय में बोलना और सोचना भी पसंद नहीं करते हैं। हमें स्वतंत्र हुए 60 वर्ष हो चुके हैं और अभी तक सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का तिरस्कार एवं अंग्रेजी का महत्व नहीं घटा है बल्कि उसमें वृद्धि हुई हैं।
 सरकारी कार्यालयों एवं संस्थानों में हिन्दी का प्रयोग बहुत धीमी गति से हो रहा है। प्रत्येक राष्ट्र में भाषा भाव एवं विचारों में एक रूपता होनी चाहिए। परन्तु वर्तमान में हमारा लोकतंत्र वर्गों में विभाजित हो चुका है। आज देश का 5ः अंग्रेजी भाषी 95ः हिन्दी भाषी जनसमूह पर शासन कर रहा है। आज गाँव एवं नगर की भाषा अलग है जिसके कारण कि देश के शासन में 95ः लोगों की भागीदारी नहीं हो पा रही है। अग्रेजियत हमारे अन्दर पैठकर चुकी है और उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है महानगर मुम्बई जहाँ पर हिन्दी में लिखें नाम पट्टों का प्रतिशत 10ः से कम है। बापू ने राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपयोगिता पर कहा था-
 ''राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा होता है।''
 उनकी आत्मा हिन्दी की इस अधोन्नति को देखकर निश्चित रूप से कचोट रही होगी, उसमें एक टीस उठ रही होगी कि राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने से पूर्व मुझे भारतीयों को राष्ट्रभाषा की शिक्षा देनी चाहिए थी।
 भारतेन्दु कृत-''निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल'' की पंक्तियाँ हममें से अधिकांश ने पढ़ी होंगी और वास्तव में यह हमारा कर्तव्य बन जाता है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी को सम्बद्धता एवं सशक्ता की पराकाष्ठा तक पहुँचाया जाए, हमें कार्य केवल इतना करना है कि हम अपने आचार विचार व्यवहार में हिन्दी को लाएँ। हिन्दी में बोलें, हिन्दी में लिखें और हिन्दी में पढ़ें-
 जैसा कि आयरिश कवि टाॅमस ने लिखा है-
 ''कोई भी देश अपनी राष्ट्रभाषा की अवहेलना करके राष्ट्र नहीं कहला सकता है। राष्ट्रभाषा की रक्षा सीमाओं की रक्षा से भी अधिक आवश्यक है क्योंकि वह विदेशी आक्रमण को रोकने में पर्वतों नदियों और सेनाओं से अधिक समर्थ है।''
 हम बहुत सो चुके हैं और अब हमंे जागना ही होगा क्योंकि बहुत अधिक सोना मृत्यु की निशानी है।


अधिक तृष्णा नहीं करनी चाहिए

 किसी वन प्रदेश में एक भील रहा करता था। वह बड़ा साहसी, वीर और श्रेष्ठ धनुर्धर था। वह नित्य-प्रति वन्य जन्तुओं का शिकार करता और उससे अपनी आजीविका चलाता तथा परिवार का भरण-पोषण करता था। एक दिन जब वह वन में शिकार के लिए गया हुआ था तो उसे काले रंग का एक विशालकाय जंगली सूअर दिखाई दिया। उसे देखकर भील ने धनुष को खींचकर एक तीक्ष्ण बाण से उस पर प्रहार किया। बाण की चोट से घायल सूअर ने क्रुद्ध हो साक्षात् यमराज के समान उस भील पर बड़े वेग से आक्रमण किया और उसे सँभलने का अवसर दिये बिना ही अपने दाँतो से उसका पेट फाड़ दिया। झील वही मरकर भूमि पर गिर पड़ा। सूअर भी बाण की चोट से घायल हो गया था, बाण ने उसके मर्मस्थल को वेध दिया था अतः उसकी भी वहीं मृत्यु हो गयी।
 उसी समय भूख-प्यास से व्याकुल कोई सियार वहाँ आया। सूअर तथा भील दोनों को मृत पड़ा हुआ देखकर वह प्रसन्न मन से सोचने लगा-मेरा भाग्य अनुकूल है, परमात्मा की कृपा से मुझे यह भोजन मिला है। अतः मुझे इसका धीरे-धीरे उपयोग करना चाहिये, जिससे यह बहुत समय तक मेरे काम आ सके।
 ऐसा सोचकर वह पहले धनुष में लगी ताँत की बनी डोरी को ही खाने लगा। उस मूर्ख सियार ने भील और सूअर के मांस के स्थान पर ताँत की डोरी को खाना शुरू किया। थोड़ी ही देर में ताँत की रस्सी कटकर टूट गयी, जिसमें धनुष का अग्रभाग वेग पूर्वक उसके मुख के आन्तरिक भाग में टकराया और उसके मस्तक को फोड़कर बाहर निकल गया। इस प्रकार तृष्णा के वशीभूत हुए सियार की भयानक एवं पीड़ादायक मृत्यु हुई। इसीलिए नीति बताती है-''अधिक तृष्णा नहीं करनी चाहिए।''


टी.वी. मित्र अथवा शत्रु

 वर्तमान समय बड़ी जटिलताओं और विसंगतियों से गुजर रहा है। कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर हमारा ध्यान जल्दी जाता ही नहीं हैं। टेलीविजन क्या हमारा सच्चा मित्र है अथवा पठनीय अमूल्य पुस्तकें।
 टी0 वी0 को हम सभी जान गये हैं कि यह आज घर-घर की शान और शोभा बन चुका है और यह भी कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि निर्धन से लेकर धनवान की यह जरूरत बनता जा रहा हे। इसका आविष्कार वैज्ञानिक जे0 एल0 बेयर्ड द्वारा किया गया था, लेकिन उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी कि लोग इसके इतने दीवाने हो जायेंगे कि दीवानगी में आविष्कारकर्ता का नाम ही भूल जायेंगे।
 टी0 वी0 घर में एक अलग मुक्त संस्कृति को जन्म दे रहा है जिसे टी0 वी0 संस्कृति ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। मनुष्य की पूरी दिनचर्या ही बदल रही है। बच्चे और युवा इसे अपनाकर एक नया हिन्दुस्तान बना रहे हैं। अपने से बड़ों और गुरूजनों का सम्मान मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है। पढ़ने-लिखने के प्रति रूचि घटती जा रही है और आवश्यकतायें दिन-दूनी रात-चैगुूनी बढ़ती जा रही हैं, आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संरक्षक गलत-सलत काम करने से भी परहेज नहीं कर रहे हैं। अधिक से अधिक धनवान बनने की होड़ लगी हुई है। देश का भविष्य ये बच्चे अपने संरक्षकों से क्या और कैसे संस्कार ग्रहण करेंगे?आज इसका उत्तर हमारे पास बहुत खोजने से भी नहीं मिल पा रहा है।
 बच्चे और बड़े सहजता का जीवन न अपनाकर बात-बात में झूठ बोलने का सहारा ले रहे हैं। एक अलग ही समाज बन रहा है। युवा वर्ग तो टी0 वी0 संस्कृति को पूरी तरह समर्पित हो रहा है। सत्य, श्रम, कर्मठता, देशभक्ति जैसे शब्द उनके जीवन में बेमानी से लगने लगे हैं। उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति पिछड़ी और बौनी होती जा रही है। टी0 वी0 संस्कृति की भेंट चढ़ता जीवन आज और कल को खोखला कर रहा है तथा दिनचर्या को अनियमित कर रहा है, अच्छा और बुरा सब कुछ गडमड होता नजर आ रहा है।
 पुस्तकों की पृष्ठभूमि और इतिहास बहुत ही प्राचीन है या ये कहे कि जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है तभी से ही इनकी ज्ञान गंगा बहती चली जा रही है, चार वेदों के रूप में, पुस्तकें मानव की बहुत पुरानी मित्र हैं यही मन-मस्तिष्क की खुराक हैं या कहें कि प्रत्येक मनुष्य का अच्छा जीवन बनाने की एक अमूल्य धरोहर है।
 राष्ट्रपिता महात्मागाँधी कहते हैं, ''पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं, ये कभी हमें धोखा नहीं दे सकती।'' अनेक महापुरूषों ने अतिरिक्त समय में पुस्तकों को ही अपना मित्र बनाया था जिससे वह कठिन परिस्थितियों से लोहा लेकर जीवन मूल्यों को स्थापित करने में समर्थ रहे।
 हम अच्छी ज्ञानवर्धक पुस्तकें तथा अपनी कक्षा के विषयों से सम्बन्धित पुस्तकों का लगन व परिश्रम से अध्ययन कर ऊँचाइयों पर चढ़ सकते हैं। कक्षा में, विद्यालय में और देश में अपना नाम कर सकते हैं। आगे बढ़ते हुए कड़ी मेहनत से ही प्रशासनिक अधिकारी, वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर आदि बन सकते हैं।
 साधारण मनुष्यों के जीवन को इन पुस्तकों ने ही महापुरूष बनाया है। इनसे इतिहास के अनेक पृष्ठ स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो चुके हैं जिसमें हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेेन्द्र प्रसाद जी, प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी आदि दिवंगत हो गये हैं तथा वर्तमान में पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी, प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी व महामहिम राष्ट्रपति डाॅ0 ए0 पी0 जे0 अब्दुल कलाम आदि हमारे लिए उदाहरण स्वरूप प्रेरणा के श्रोत हैं।
 वर्तमान में अच्छी पुस्तकों का पढ़ने का शौक ज्यादातर कम होता जा रहा है। विचारहीन पत्र-पत्रिकायें, उपन्यास काॅमिक्स आदि पढ़ने में कुछ बच्चे और बड़े अपना अमूल्य समय नष्ट कर रहे हैं। ऐसी घटिया पुस्तकों को पढ़कर वे टी0 वी0 संस्कृति के मित्र बन रहे हैं। और न ही उन्हें उससे कुछ मिल पा रहा है, और न ही वे इससे समाज का कोई उपकार कर पा रहे हैं, हाँ, अपकार करने में अपना सहयोग कर रहे हैं। क्या यही जीवन की सार्थकता है, तनिक एकान्त में सोचिए?
 हम अच्छी पुस्तकें पढ़कर ही उन महापुरूषों, विद्वानों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों से प्रेरणा ले सकते हैं जिन्होंने समाज और देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। आज ये समाज और देश उन्हीं, की बदौलत जीवित है। हमें ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ने में रूचि लेनी चाहिये, यदि अच्छी पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों पर हर माह खर्च भी करना पड़े तो अकारथ नहीं जायेगा। उससे हमको इतना प्राप्त हो जायेगा कि उसकी अनुभूतियाँ और उसके अपरोक्ष लाभ हम शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकते।
 कौन सी कविता, कहानी, लेख, विचार हमारे तनाव युक्त जीवन को ससमय-सुखमय बना दें। जब हमें पढ़ने-पढ़ाने का शौक ही नहीं होगा तो कैसे बदलेगा जीवन, और हम संसार से बिना कुछ लिए और दिये यूँ ही अन्धकार और अहंकार में प्रस्थान कर लेंगे।
 आज अधिकांश बच्चे और बड़ों ने टी0 वी0 को अपना सच्चा और अच्छा मित्र बना लिया है तथा ज्ञानवर्धक पुस्तकें उन्हें निरर्थक शत्रुवत् लग रही हैं। इसी कारण घर-घर में तनाव, अशान्ति और भय, सुरसा से मुँह फैला रहे हैं। इसी कारण बच्चे और बड़ों के चेहरों से स्वाभाविकता, सहजता दूर कहीं सुदूर में प्रस्थान करती जा रही है। टी0 वी0 संस्कृति या कहें कि पश्चिमी संस्कृति हमें लक्ष्यहीन जीवन बिताने को प्रेरित कर रही है। खूब धन कमाओं, खूब खाओ, मौज मनाओ और असन्तोष को बढ़ाते हुए लक्ष्य विहीन बन जाओ।
 लक्ष्यविहीन प्रवृत्तियाँ हमें कभी ऊँचा नहीं उठा सकती, इनसे बचकर ही हम सार्थक जीवन की ओर बढ़ सकते हैं तथा समाज में एक-दूसरें को सुखों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
 काश! यह सम्पूर्ण समाज ही पूर्ण शिक्षित होकर मानवीय धर्म अपना लेता और महापुरूषों के प्रेरणाश्रोत बनाता तथा पुस्तकों को सच्चा मित्र, तो आज चहूँ ओर हिंसा'मारकाट, झूठ-फरेब और भय के आवरण में न जीना पड़ता। पूरी धरती के लोग ही सहज जीवन जी रहे होते।
 अति सर्वदा वर्जते। अति किसी भी चीज की नहीं होनी चाहिए। टी0 वी0 को भी वर्तमान में पूर्णतः नकारा नहीं जा सकता, लेकिन बच्चे और बड़े टी0 वी0 देखने में ज्यादा ही अति कर रहे हैं या कहें कि समय का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसी कारण तीस प्रतिशत से भी अधिक बच्चे और बड़ों की आँखों में चश्मा चढ़ता जा रहा है, साथ ही अनेक मानसिक, शारीरिक विकृतियाँ बच्चों व बड़ों में बढ़ती जा रही हैं। अधिकतर लोग टी0 वी0 के पास बैठकर ही उसका चछुपान कर रहे हैं।
 जलपान या भोजन करते-करते टी0 वी0 आम प्रचलन में आ गया है, इसी कारण जीभ से निकलने वाले रस पाचन प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से नहीं मिल पा रहे हैं, जिसके कारण कब्ज, सिरदर्द, गैस जैसी बीमारी आम हो गयी है इससे बड़े तो बड़े बच्चे भी इसके आगोश में आते जा रहे हैं।
 टी0 वी0 ने बच्चे और युवाओं को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।
 वास्तव में यदि हमें अपना और समाज का सर्वांगीण विकास करना है तो बच्चे और बड़ो को ज्ञान वर्धक पुस्तकों को ही सच्चा मित्र बनाना होगा तथा टी0 वी0 को मात्र एकाध घण्टे का कच्चा मित्र, वह भी अच्छा सीरियल या समाचार सुनने के लिए।


किसान और सारस

 एक किसान पक्षियों से बहुत तंग आ गया था। उसका खेत जंगल के पास था। उस जंगल में पक्षी बहुत थे। किसान जैसे ही खेत में बीज बोकर, पाटा चलाकर घर जाता, वैसे ही झुंड के झुंड पक्षी उसके खेत में आकर बैठ जाते और मिट्टी कुरेद-कुरेदकर बोये बीज खाने लगते। किसान पक्षियों को उड़ाते-उड़ाते थक गया। उसके बहुत से बीज चिड़ियों ने खा लिये। बेचारे को दुबारा खेत जोतकर दूसरे बीज डालने पड़े। इस बार किसान बहुत बड़ा जाल ले आया। उसने पूरे खेत पर जाल बिछा दिया। बहुत से पक्षी खेत में बीज चुगने आये और जाल में फंस गये। एक सारस पक्षी भी उसी जाल में फंस गया।
 जब किसान जाल में फँसी चिड़ियों को पकड़ने लगा तो सारस ने कहा-आप मुझ पर कृपा कीजिये। मैंने आपकी कोई हानि नहीं की है। मैं न मुर्गी हूँ, न बगुला और न बीज खाने वाला पक्षी। मैं तो सारस हूँ। खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को खा जाता हूँ। मुझे छोड़ दीजिये।
 किसान क्रोध में भरा था। वह बोला- 'तुम कहते तो ठीक हो, किन्तु आज तुम उन्हीं चिड़ियों के साथ पकड़े गये हो, जो मेरे बीज खा जाया करती हैं। तुम भी उन्हीं के साथी हो। तुम इनके साथ आये हो तो इनके साथ दण्ड भोगो।
 जो जैसे लोगों के साथ रहता है, वैसा ही समझा जाता है। बुरे लोगों के साथ रहने से बुराई न करने वालों को भी दण्ड और अपयश मिलता है। उपद्रवी चिड़ियों के साथ आने से सारस को भी बन्धन में पड़ना पड़ा।


बालकों के लिए संस्कार-माला

 बालक यदि निम्न बातों पर ध्यान देंगे तो उनका जीवन सदैव सुखी रहेगा।
1. विद्यालय में ठीक समय पर पहुँच जाना और भगवत्स्मरणपूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिये। किसी प्रकार का ऊधम न करते हुए मौन रहकर भगवान के नाम का जप-और स्वरूप की स्मृति रखते हुए प्रतिदिन जाना-आना चाहिये।
2. विद्यालय की स्तुति-प्रार्थना आदि में अवश्य शामिल होना और उनको मन लगाकर प्रेमभाव पूर्वक करना चाहिये।
3. पिछले पाठ को याद रखना और आगे पढ़ाये जाने वाले पाठ को उसी दिन याद कर लेना उचित है, जिससे पढ़ाई के लिए सदा उत्साह बना रहे।
4. पढ़ाई को कमी कठिन नहीं मानना चाहिये।
5. अपनी कक्षा में सबसे अच्छा बनने की कोशिश करनी चाहिये।
6. किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में अग्रसर होते देखकर खूब प्रसन्न होना चाहिये और यह भाव रखना चाहिये कि यह अवश्य उन्नति करेगा तथा इसकी उन्नति से मुझे और भी बढ़कर उन्नति करने का प्रोत्साहन एवं अवसर प्राप्त होगा।
7. अपने किसी सहपाठी से ईष्र्या नहीं करनी चाहिये और न यही भाव रखना चाहिये कि वह पढ़ाई में कमजोर रह जाय, जिससे उसकी अपेक्षा मुझे लोग अच्छा कहें।
8. किसी भी विद्या अथवा कला को देखकर उसमें दिलचस्पी के साथ प्रविष्ट होकर समझने की चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि जानने और सीखने की उत्कण्ठा विद्यार्थियों का गुण है।
9. अपने को उच्च विज्ञान मानकर कभी अभिमान न करना चाहिये, क्योंकि इससे आगे बढ़ने में बड़ी रूकावट होती है।
10. नित्य प्रति बड़ों की तथा दीन-दुःखी प्राणियों की कुछ न कुछ सेवा अवश्य करनी चाहिये।
11. किसी भी अंगहीन, दुःखी, बेसमझ, गल्ती करने वाले को देखकर हँसना नहीं चाहिये।
12. न्याय से प्राप्त हुई चीज को ही काम में लाना चाहिये।
13. माता, पिता, गुरू आदि बड़ों की आज्ञा उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करें। बड़ों के आज्ञा का उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करेे। बड़ों की आज्ञा पालन से उनका आर्शीवाद मिलता है, जिससे लौकिक और पारमार्थिक उन्नति होती हैं।
14. गुरूजनों की कमी हँसी न उड़ाये, प्रत्युत उनका आदर-सत्कार करें तथा जब पढ़ाने के लिये अध्यापक आवें और जायें, तब खड़े होकर और नमस्कार करके उनका सम्मान करें।
15. समान अवस्था वाले और छोटों से प्रेमपूर्वक बर्ताव करें।
16. सभा में भाषण या प्रश्नोत्तर सभ्यतापूर्वक करें तथा सभा में अथवा पढ़ने के समय बात-चीत न करें।
17. सबकों अपने प्रेम भरे व्यवहार से संतुष्ट करने की कला सीखें।
18. कभी किसी का अपमान या तिरस्कार न करे।
19. किसी भी काम को कभी असम्भव न माने, क्योंकि उत्साही मनुष्य के लिए कठिन काम भी सुगम हो जाते हैं।
20. सदा अपने से बड़े और उत्तम आचरण वाले पुरूषों के साथ रहने की चेष्टा करें तथा उनके सद्गुणों का अनुकरण करे।
21. अपने से छोटे बालक में कोई दुव्र्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसको समझायें अथवा उस बालक के हित के लिये अध्यापक को सूचित कर दें।
22. अपने में से दुर्गुण-दुराचार हट जाय और सदाचार आयें इसके लिए भगवान से सच्चे हृदय से प्रार्थना करें और ईश्वर के बल पर सदा निर्भय रहें।