Thursday, April 24, 2025

पुण्यों का मोल

एक व्यापारी जितना अमीर था उतना ही दान-पुण्य करने वाला, वह सदैव यज्ञ-पूजा आदि कराता रहता था।एक बार उसे व्यापार में घाटा चला गया ।अब उसके पास परिवार चलाने लायक भी पैसे नहीं बचे थे।

व्यापारी की पत्नी ने सुझाव दिया कि पड़ोस के नगर में एक बड़े सेठ रहते हैं। वह दूसरों के पुण्य खरीदते हैं।आप उनके पास जाइए और अपने कुछ पुण्य बेचकर थोड़े पैसे ले आइए, जिससे फिर से काम-धंधा शुरू हो सके।

पुण्य बेचने की व्यापारी की बिलकुल इच्छा नहीं थी, लेकिन पत्नी के दबाव और बच्चों की चिंता में वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। पत्नी ने रास्ते में खाने के लिए चार रोटियां बनाकर दे दीं।

व्यापारी चलता-चलता उस नगर के पास पहुंचा जहां पुण्य के खरीदार सेठ रहते थे। उसे भूख लगी थी।नगर में प्रवेश करने से पहले उसने सोचा भोजन कर लिया जाए। उसने जैसे ही रोटियां निकालीं एक कुतिया तुरंत के जन्मे अपने तीन बच्चों के साथ आ खड़ी हुई।

कुतिया ने बच्चे जंगल में जन्म दिए थे। बारिश के दिन थे और बच्चे छोटे थे, इसलिए वह उन्हें छोड़कर नगर में नहीं जा सकती थी। व्यापारी को दया आ गई। उसने एक रोटी कुतिया को खाने के लिए दे दिया।कुतिया पलक झपकते रोटी चट कर गई लेकिन वह अब भी भूख से हांफ रही थी।

व्यापारी ने दूसरी रोटी, फिर तीसरी और फिर चारो रोटियां कुतिया को खिला दीं। खुद केवल पानी पीकर सेठ के पास पहुंचा।व्यापारी ने सेठ से कहा कि वह अपना पुण्य बेचने आया है। सेठ व्यस्त था। उसने कहा कि शाम को आओ।

दोपहर में सेठ भोजन के लिए घर गया और उसने अपनी पत्नी को बताया कि एक व्यापारी अपने पुण्य बेचने आया है। उसका कौन सा पुण्य खरीदूं।

सेठ की पत्नी बहुत पतिव्रता और सिद्ध थी। उसने ध्यान लगाकर देख लिया कि आज व्यापारी ने कुतिया को रोटी खिलाई है।उसने अपने पति से कहा कि उसका आज का पुण्य खरीदना जो उसने एक जानवर को रोटी खिलाकर कमाया है। वह उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ पुण्य है।

व्यापारी शाम को फिर अपना पुण्य बेचने आया। सेठ ने कहा- आज आपने जो यज्ञ किया है मैं उसका पुण्य लेना चाहता हूं।

व्यापारी हंसने लगा। उसने कहा कि अगर मेरे पास यज्ञ के लिए पैसे होते तो क्या मैं आपके पास पुण्य बेचने आता!

सेठ ने कहा कि आज आपने किसी भूखे जानवर को भोजन कराकर उसके और उसके बच्चों के प्राणों की रक्षा की है। मुझे वही पुण्य चाहिए।

व्यापारी वह पुण्य बेचने को तैयार हुआ। सेठ ने कहा कि उस पुण्य के बदले वह व्यापारी को चार रोटियों के वजन के बराबर हीरे-मोती देगा।

चार रोटियां बनाई गईं और उसे तराजू के एक पलड़े में रखा गया। दूसरे पलड़े में सेठ ने एक पोटली में भरकर हीरे-जवाहरात रखे।पलड़ा हिला तक नहीं। दूसरी पोटली मंगाई गई। फिर भी पलड़ा नहीं हिला।

कई पोटलियों के रखने पर भी जब पलड़ा नहीं हिला तो व्यापारी ने कहा- सेठजी, मैंने विचार बदल दिया है. मैं अब पुण्य नहीं बेचना चाहता।व्यापारी खाली हाथ अपने घर की ओर चल पड़ा। उसे डर हुआ कि कहीं घर में घुसते ही पत्नी के साथ कलह न शुरू हो जाए।

जहां उसने कुतिया को रोटियां डाली थी, वहां से कुछ कंकड़-पत्थर उठाए और साथ में रखकर गांठ बांध दी।

घर पहुंचने पर पत्नी ने पूछा कि पुण्य बेचकर कितने पैसे मिले तो उसने थैली दिखाई और कहा इसे भोजन के बाद रात को ही खोलेंगे। इसके बाद गांव में कुछ उधार मांगने चला गया।

इधर उसकी पत्नी ने जबसे थैली देखी थी उसे सब्र नहीं हो रहा था। पति के जाते ही उसने थैली खोली।उसकी आंखे फटी रह गईं। थैली हीरे-जवाहरातों से भरी थी।

व्यापारी घर लौटा तो उसकी पत्नी ने पूछा कि पुण्यों का इतना अच्छा मोल किसने दिया ? इतने हीरे-जवाहरात कहां से आए ?? व्यापारी को अंदेशा हुआ कि पत्नी सारा भेद जानकर ताने तो नहीं मार रही लेकिन, उसके चेहरे की चमक से ऐसा लग नहीं रहा था।

व्यापारी ने कहा- दिखाओ कहां हैं हीरे-जवाहरात। पत्नी ने लाकर पोटली उसके सामने उलट दी। उसमें से बेशकीमती रत्न गिरे। व्यापारी हैरान रह गया।फिर उसने पत्नी को सारी बात बता दी। पत्नी को पछतावा हुआ कि उसने अपने पति को विपत्ति में पुण्य बेचने को विवश किया।

दोनों ने तय किया कि वह इसमें से कुछ अंश निकालकर व्यापार शुरू करेंगे। व्यापार से प्राप्त धन को इसमें मिलाकर जनकल्याण में लगा देंगे।

ईश्वर आपकी परीक्षा लेता है। परीक्षा में वह सबसे ज्यादा आपके उसी गुण को परखता है जिस पर आपको गर्व हो।

अगर आप परीक्षा में खरे उतर जाते हैं तो ईश्वर वह गुण आपमें हमेशा के लिए वरदान स्वरूप दे देते हैं।

अगर परीक्षा में उतीर्ण न हुए तो ईश्वर उस गुण के लिए योग्य किसी अन्य व्यक्ति की तलाश में लग जाते हैं।

इसलिए विपत्तिकाल में भी भगवान पर भरोसा रखकर सही राह चलनी चाहिए। आपके कंकड़-पत्थर भी अनमोल रत्न हो सकते हैं।

   न डर रे मन दुनिया से

   यहाँ किसी के चाहने से नहीं

   किसी का बुरा होता है,

   मिलता है वही, जो हमने बोया होता है,

   कर पुकार उस प्रभु के आगे.. क्योकि सब कुछ उसी के बस में होता है।।

Wednesday, April 23, 2025

विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को ग्राम गंगामूल (जिला मंगलोर, कर्नाटक) में हुआ था। उस समय वहाँ लड़कियांे की उच्च शिक्षा को ठीक नहीं माना जाता था। बाल एवं अनमेल विवाह प्रचलित थे। रमा के विधुर पिता का नौ वर्षीय बालिका से पुनर्विवाह हुआ। उससे ही एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं। 


रमा के पिता ने अपनी पत्नी को भी संस्कृत पढ़ाकर विद्वान बनाया। इस पर स्थानीय पंडित उनसे नाराज हो गये। वे उन्हें जाति बहिष्कृत करने पर तुल गये। तब उन्होंने उडुपि में 400 विद्वानों के साथ दो महीने तक लिखित शास्त्रार्थ में सिद्ध किया कि महिलाओं को वेद पढ़ाना शास्त्रसम्मत है। इससे वे जाति बहिष्कार से तो बच गये; पर लोगों का द्वेष कम नहीं हुआ। 


उन्होंने अपने सब बच्चों को पढ़ाया। रमा जब नौ साल की थी, तो उनके पिता तीर्थयात्रा पर चले गये। रमा की माँ ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी। जब छह साल बाद रमा के पिता लौटकर आये, तब तक रमा हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बंगला तथा संस्कृत भाषाएँ जान गयी थी।


जब रमा 15 साल की ही थी, तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी। लोगों में द्वेष इतना था कि उनकी अंत्येष्टि के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। इस पर रमा के भाई ने उनके शव को धोती में बाँधकर गाँव से बाहर गाड़ दिया। 


कुछ समय बाद माँ की मृत्यु होने पर रमा एवं उसके भाई ने बड़ी कठिनाई से दो लोगों को तैयार किया, तब जाकर माँ का अन्तिम संस्कार हो सका।

इसके बाद रमा अपने छोटे भाई को लेकर कोलकाता आ गयी। वहाँ विद्वानों ने उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें ‘पंडिता रमाबाई’ की उपाधि दी। ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से रमा ने वेदों का और गहन अध्ययन किया। 


इसी दौरान उनके भाई की भी मृत्यु हो गयी। रमाबाई का पत्र व्यवहार एवं भेंट आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से भी हुई। महर्षि दयानन्द जी चाहते थे कि रमाबाई पूरी तरह वेद और धर्म प्रचार का कार्य करंे; पर वह इससे सहमत नहीं हुई। वे अभी और पढ़ना चाहती थीं।


22 वर्ष की अवस्था में विपिनबिहारी दास से उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ। एक साल बाद पुत्री मनोरमा के जन्म तथा उससे अगले साल पति के निधन से पुत्री की पूरी जिम्मेदारी रमाबाई पर आ गयी। आर्य समाज से निकटता के कारण ब्रह्मसमाज वाले भी अब उनकी आलोचना करने लगे।


इसके बाद भी रमाबाई नहीं घबराईं। वे पुत्री को लेकर पुणे आ गयीं और आर्य समाज की स्थापना कर समाजसेवा में लग गयीं। उन्होंने महाराष्ट्र के कई नगरों में आर्य समाज की स्थापना की। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें बहुत लोगों से मिलना पड़ता था। कुछ रूढि़वादियों ने इसका विरोधकर उनके चरित्र पर लांछन लगाये। इससे रमाबाई का मन बहुत दुखी हुआ।


1883 में वे चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने इंग्लैंड गयीं। वहाँ उनका सम्पर्क ईसाइयों से हुआ। रमा का मन अपने सम्बन्धियों और विद्वानों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार से दुखी था। अतः उन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार कर लिया।


अब उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखकर बाइबल का इन भाषाओं तथा मराठी में अनुवाद किया। इसके बाद वे अमरीका भी गयीं। वहाँ उन्होंने महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा। इससे वे बहुत प्रभावित हुईं। 


ईसाई बनने के बाद भी हिन्दुत्व और भारतीयता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ। 1889 में भारत लौटकर उन्होंने पुणे में ‘शारदा सदन’ नामक विधवाश्रम बनाया। पांच अप्रैल, 1922 को पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया।


समय का मोल

एक धन सम्पन्न व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था पर कालचक्र के प्रभाव से धीरे-धीरे वह कंगाल हो गया।उस की पत्नी ने कहा कि सम्पन्नता के दिनों में तो राजा के यहाँ आपका अच्छा आना जाना था। क्या विपन्नता में वे हमारी मदद नहीं करेंगे जैसे श्रीकृष्ण ने सुदामा की मदद की थी ? पत्नी के कहने से वह भी सुदामा की तरह राजा के पास गया।


द्वारपाल ने राजा को संदेश दिया कि एक निर्धन व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और स्वयं को आपका मित्र बताता है।राजा भी श्रीकृष्ण की तरह मित्र का नाम सुनते ही दौड़े चले आए और मित्र को इस हाल में देखकर द्रवित होकर बोले कि मित्र बताओ !! मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ ? मित्र ने सकुचाते हुए अपना हाल कह सुनाया।

चलो !! मै तुम्हें अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर अपनी जेब में रत्न भर कर ले जाना। पर तुम्हें केवल ३ घंटे का समय ही मिलेगा। यदि उससे अधिक समय लोगे तो तुम्हें खाली हाथ बाहर आना पड़ेगा।

ठीक है,चलो !! वह व्यक्ति रत्नों का भंडार और उनसे निकलने वाले प्रकाश की चकाचौंध देखकर हैरान हो गया। पर समय सीमा को देखते हुए उसने भरपूर रत्न अपनी जेब में भर लिए।वह बाहर आने लगा तो उसने देखा कि दरवाजे के पास रत्नों से बने छोटे छोटे खिलौने रखे थे जो बटन दबाने पर तरह तरह के खेल दिखाते थे।उसने सोचा कि अभी तो समय बाकी है,क्यों न थोड़ी देर इनसे खेल लिया जाए?

पर यह क्या? वह तो खिलौनों के साथ खेलने में इतना मग्न हो गया कि समय का भान ही नहीं रहा। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चलो ! मैं तुम्हें अपने स्वर्ण के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर सोना अपने थैले में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान रखना।

ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी सुनहरे प्रकाश से जगमगा रहा था।उसने शीघ्रता से अपने थैले में सोना भरना प्रारम्भ कर दिया।तभी उसकी नजर एक घोड़े पर पड़ी जिसे सोने की काठी से सजाया गया था। अरे !! यह तो वही घोड़ा है जिस पर बैठ कर मैं राजा साहब के साथ घूमने जाया करता था। वह उस घोड़े के निकट गया, उस पर हाथ फिराया और कुछ समय के लिए उस पर सवारी करने की इच्छा से उस पर बैठ गया। पर यह क्या? समय सीमा समाप्त हो गई और वह अभी तक सवारी का आनन्द ही ले रहा था। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह घोर निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है।चलो ! मैं तुम्हें अपने रजत के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर चाँदी अपने ढोल में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान अवश्य रखना।ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी चाँदी की धवल आभा से शोभायमान था।उसने अपने ढोल में चाँदी भरनी आरम्भ कर दी।इस बार उसने तय किया कि वह समय सीमा से पहले कक्ष से बाहर आ जाएगा।पर समय तो अभी बहुत बाकी था।दरवाजे के पास चाँदी से बना एक छल्ला टंगा हुआ था। साथ ही एक नोटिस लिखा हुआ था कि इसे छूने पर उलझने का डर है।यदि उलझ भी जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने की चेष्टा बिल्कुल न करना।उसने सोचा कि ऐसी उलझने वाली बात तो कोई दिखाई नहीं देती।बहुत कीमती होगा तभी बचाव के लिए लिख दिया होगा।देखते हैं कि क्या माजरा है? बस! फिर क्या था।हाथ लगाते ही वह तो ऐसा उलझा कि पहले तो एक हाथ से सुलझाने की कोशिश करता रहा। जब सफलता न मिली तो दोनों हाथों से सुलझाने लगा।पर सुलझा न सका और उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र, !!कोई बात नहीं।निराश होने की आवश्यकता नहीं है।अभी तांबे का खजाना बाकी है।चलो ! मैं तुम्हें अपने तांबे के खजाने में ले चलता हूँ।

वहां से जी भरकर तांबा अपने बोरे में भर कर ले जाना।पर समय सीमा का ध्यान रखना।ठीक है।

मैं तो जेब में रत्न भरने आया था और बोरे में तांबा भरने की नौबत आ गई।थोड़े तांबे से तो काम नहीं चलेगा।उसने कई बोरे तांबे के भर लिए।भरते भरते उसकी कमर दुखने लगी लेकिन फिर भी वह काम में लगा रहा।विवश होकर उसने आसपास सहायता के लिए देखा।एक पलंग बिछा हुआ दिखाई दिया।उस पर सुस्ताने के लिए थोड़ी देर लेटा तो नींद आ गई और अंत में वहाँ से भी खाली हाथ बाहर निकाल दिया गया।

दोस्तो !! परमपिता परमेश्वर हम सबका दयालु राजा है। वह बार-बार हमें सुख-समृद्धि हेतु अवसर देता है। हम आलस्य-प्रमाद में अथवा दुनिया के प्रलोभनों एवं आकर्षणों में ऐसे बंध जाते हैं कि जीवन-काल का ख्याल ही भूल जाते हैं आखिरी समय में रोते-कलपते,अशांति इस दुनिया से विदा होते हैं। क्या इसी प्रकार हम आप भी अपने जीवन में अपने साथ कुछ नहीं ले जा पाएंगे?

ग्रंथ और संत कहते हैं- सावधान! सावधान!!


यूँ ही आता रहा,यूँ ही जाता रहा,लख चौरासी के चक्कर लगाता रहा।

क्यों न पहचान पाया तू श्वासों का मोल,अपना हीरा जन्म यूँ ही समय गँवाता रहा।”

संन्यासी और युवती

एक पहुंचे हुए महात्मा थे। एक दिन महात्मा जी ने सोचा कि उनके बाद भी धर्मसभा चलती रहे इसलिए क्यों न अपने एक शिष्य को इस विद्या में पारंगत किया जाए। उन्होंने एक शिष्य को इसके लिए प्रशिक्षित किया। अब शिष्य प्रवचन करने लगा।

सभा में एक सुंदर युवती आने लगी। वह उपदेश सुनने के साथ प्रार्थना, कीर्तन, नृत्य आदि समारोह में भी सहयोग देती।

लोगों को उस युवती का युवक संन्यासी के प्रति लगाव खटकने लगा। एक दिन कुछ लोग महात्माजी के पास आकर बोले - 'प्रभु, आपका शिष्य भ्रष्ट हो गया है।'

महात्मा जी बोले - 'चलो हम स्वयं देखते हैं'। महात्मा जी आए, सभा आरंभ हुई। युवा संन्यासी ने उपदेश शुरू किया। युवती भी आई। उसने भी रोज की तरह सहयोग दिया। 

सभा के बाद महात्मा जी ने लोगों से पूछा - 'क्या युवक संन्यासी प्रतिदिन यही सब करता है। और कुछ तो नहीं करता? 

लोगों ने कहा - 'बस यही सब करता है।' 

महात्मा जी ने फिर पूछा - 'क्या उसने तुम्हें गलत रास्ते पर चलने का उपदेश दिया? कुछ अधार्मिक करने को कहा?'

सभी ने कहा - 'नहीं।'

महात्माजी बोले - 'तो फिर शिकायत क्या है?' कुछ धीमे स्वर उभरे कि 'इस युवती का इस संन्यासी के साथ मिलना- जुलना अनैतिक है'। 

महात्माजी ने कहा - 'मुझे दुख है कि तुम्हारे ऊपर उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ा। तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की वो युवती है कौन। वह इस युवक की बहन है। 

चूंकि तुम सबकी नीयत ही गलत है इसलिए तुमने उन्हें गलत माना। 

सभी लज्जित हो गए। 

जब नियत ही खोटी हो तो उपदेश का असर कैसे होगा?