सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
दुनिया की विरासत में एक डायलाग कभी नहीं मिटेगा। वह है- अपने पैरों पर खड़े होना सीखो। यह इस दुनिया का सदाबहार डायलाग है। जब हम छोटे थे तब हमारे बुजुर्ग यह डायलाग कह-कहकर हमारे कान पका देते थे। जब हम बड़े हुए तो हमने अपने बच्चों के कान पका दिए। स्वाभाविक है कि हमारे बच्चे भी अपने बच्चों के कान पकायेंगे। यही दुनिया का दस्तूर है। हँसी तो तब आती जब यह सोच-सोचकर दिमाग खपा देते कि हम अपने पैरों पर नहीं तो किनके पैरों पर खड़े हैं। खैर, किताबों की खाक़ छानी तो पता चला कि यह कथन तो एक मुहावरा है। इस मुहावरे का अर्थ है- ‘आत्मनिर्भर बनना’। फिर मैंने आत्मनिर्भर शब्द का पोस्टमार्टम किया। पता चला यह दो शब्दों से बना है- आत्म और निर्भर। आत्म शब्द आत्मा का सूचक है। आश्चर्य की बात यह है कि भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक की लगभग सभी भाषाओं में आत्मा के लिए ‘आत्मा’ शब्द ही है। आत्मा के बारे में और अधिक जानने के क्रम में भगवत् गीता के अध्याय दो श्लोक 20 पर नजर पड़ी। इसमें आत्मा की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी गयी है- न, जायते, म्रियते, वा, कदाचित्, न, अयम्, भूत्वा, भविता, वा, न / भूयः, अजः, नित्यः, शाश्वतः, अयम्, पुराणः, न, हन्यते, हन्यमाने, शरीरे। यानी आत्मा किसी काल में न तो जन्म लेता है और न मरता है। न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला है। कारण, यह अजन्मा नित्य सनातन और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो आत्मा न खाती, न चलती, न हिलती, न पैदा होती न मरती है। अरे भाई! जो है ही नहीं उसे खाक़ निर्भर करेंगे?
हमारे देश में आत्मा के बारे में सभी लोगों के अलग-अलग मत हैं। लेकिन हद तब हुई जब सरकार ने आत्मनिर्भरता को खरीदने की कीमत लगाई – पूरे बीस लाख करोड़ रुपये! गणित में कमजोर लोग इस आंकड़े से दूर रहने में ही भलाई है। बचा-खुचा गणित भी भूल जायेंगे। तब मुझे संदेह हुआ जो है ही नहीं उसकी निर्भरता के लिए इतनी बड़ी राशि का क्या होगा? यह रुपया किसे मिलेगा? यही सोच-सोचकर सर चकरा रहा था।
तभी मेरे एक मित्र ने मुझसे मेरी चिंता का कारण पूछा। मैंने बीस लाख करोड़ रुपये और आत्मनिर्भरता की बात छेड़ी। तब उसने कहा - बस इतनी-सी बात के लिए सर खपा रहे हो। मान लो मैं सरकार हूँ और तुम जनता। मैंने तुम्हें बीस लाख करोड़ रुपये दे दिए। अब बताओ तुम्हें कैसा लग रहा है? मैंने खुशी-खुशी कहा – अच्छा लग रहा है। यह हुई न बात! कहकर मित्र फिर से अपनी बात समझाने लगा। उसने पूछा इन रुपयों का तुम क्या करोगे? मैंने कहा- यह भी कोई प्रश्न है? खाने-पीने और जरूरत की चीज़ें खरीदूँगा। मित्र ने लंबी साँस लेते हुए कहा- अब बताओ तुम्हें कैसा लग रहा है? मैंने कहा – बहुत अच्छा लग रहा है। तब मित्र ने कहा – हो गया हिसाब बीस लाख करोड़ रुपये का। जहाँ तक बात आत्मनिर्भरता की है, तो याद रखो तुम आत्मा हो और तुम्हारी खुशी निर्भरता। अब व्यर्थ की यह चिंता छोड़ो। घर जाओ और सो जाओ।
मैं घर पहुँचा। लेकिन मैं इसी उधेड़बुन में परेशान था कि जो रुपये मुझे मिले ही नहीं उसकी खुशी कैसी? आत्मनिर्भरता कैसी? यही सोचते-सोचते मैं सो गया। सपने में किसी ने मुझसे कहा – जिन बीस लाख करोड़ रुपयों को तुमने देखा नहीं, उसके लिए चिंता क्यों? उस चिंता के लिए चिता बनना क्यों? चिता बनकर यूँ सोना क्यों? जागो! अपने चारों ओर देखो। जिस प्रकार बिजली के प्रवाह को देख या छू नहीं सकते उसी प्रकार सरकारी रुपये देख या छू नहीं सकते, ये रुपये बस सुनने में अच्छे लगते हैं। सोचो! ये रुपये सच में होते तो क्या लोग गरीबी से मरते? भूख से तड़पते-बिलखते? दर-दर की ठोकरें खातें? नहीं न! इसीलिए जो नहीं है उसके होने का आभास दिलाने के लिए बीच-बीच में ऐसी बातें कह दी जाती हैं। ऐसा करने से जीने का झूठा दिलासा मिलता है। फिर चाहे वह बीस लाख करोड़ रुपये हो या फिर आत्मनिर्भरता! आत्मा निर्भर बनने के लिए चाहे लाख डिसको करे, लेकिन निर्भरता का उसके लिए एक ही डायलाग होगा – खिसको! खिसको! खिसको!