मनुज दनु ज बन गया,
धरती , धरा , वसुंधरा को भूलकर
पथ पथिक परवान को भूलकर।
मानव मन क्यों चला झूमकर
मनुज दनुज बन गया केसव को भूलकर।।
दिख रहा आज मार्तण्ड का वैभव
क्या - क्या नहीं किया -
धरा का वसन उधेड़ दिया ,
कुबेर बनने की आश में
सागर , सरिता , सुरनदि में विष घोल दिया ।
जनक चरण को काट कर ,
इंद्रपुरी बनाने चला
तो क्यों है आवक - मार्तण्ड का तेज देखकर।।
जगदीश जनक रजनी का भी दिवा का भी ,
आदमी अनुचर है रजनी का भी दिवा का भी ।।
फिर क्यों मनुज दनुज बन गया - अपने केशव को भूलकर ।।