Friday, April 18, 2025

कॉमन सेंस

एक पंडितजी के घर में उनकी पहली संतान का जन्म होने वाला था। उनका नाम पंडित विष्णुदत्त शास्त्री था। पंडितजी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने दाई से कह रखा था कि जैसे ही बालक का जन्म हो नींबू प्रसूतिकक्ष से बाहर लुढ़का देना। 

बालक जन्मा लेकिन बालक रोया नहीं तो दाई ने हल्की सी चपत उसके तलवों में दी और पीठ को मला और अंततः बालक रोया। 

दाई ने नींबू बाहर लुढ़काया और बच्चे की नाल आदि काटने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गई।उधर पंडितजी ने गणना की तो उन्होंने पाया कि बालक की कुंडली में पितृहंता योग है अर्थात उनके ही पुत्र के हाथों ही उनकी मृत्यु का योग है। पंडितजी शोक में डूब गए और अपने पुत्र को इस लांछन से बचाने के लिए बिना कुछ कहे बताए घर छोड़कर चले गए। 

सोलह साल बीते।

बालक अपने पिता के विषय में पूछता लेकिन बेचारी पंडिताइन उसके जन्म की घटना के विषय में सबकुछ बताकर चुप हो जाती क्योंकि उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं पता था। अस्तु! पंडितजी का बेटा अपने पिता के पग चिन्हों पर चलते हुये प्रकांड ज्योतिषी बना। उसी बरस राज्य में वर्षा नहीं हुई। राजा ने डौंडी पिटवाई जो भी वर्षा के विषय में सही भविष्यवाणी करेगा उसे मुंहमांगा इनाम मिलेगा लेकिन गलत साबित हुई तो उसे मृत्युदंड मिलेगा। 

बालक ने गणना की और निकल पड़ा। लेकिन जब वह राजदरबार में पहुंचा तो देखा एक वृद्ध ज्योतिषी पहले ही आसन जमाये बैठे हैं। राजन !! आज संध्याकाल में ठीक चार बजे वर्षा होगी।" वृद्ध ज्योतिषी ने कहा। 

बालक ने अपनी गणना से मिलान किया और आगे आकर बोला -  महाराज !! मैं भी कुछ कहना चाहूंगा। राजा ने अनुमति दे दी। 

राजन वर्षा आज ही होगी लेकिन चार बजे नहीं बल्कि चार बजे के कुछ पलों के बाद होगी।

वृद्ध ज्योतिषी का मुँह अपमान से लाल हो गया और उन्होंने दूसरी भविष्यवाणी भी कर डाली। 

महाराज !! वर्षा के साथ ओले भी गिरेंगे और ओले पचास ग्राम के होंगे।

बालक ने फिर गणना की। 

महाराज !! ओले गिरेंगे लेकिन कोई भी ओला पैंतालीस से अडतालीस ग्राम से ज्यादा का नहीं होगा।

अब बात ठन चुकी थी। लोग बड़ी उत्सुकता से शाम का इंतजार करने लगे। 

साढ़े तीन तक आसमान पर बादल का एक कतरा नहीं था लेकिन अगले बीस मिनट में क्षितिज से मानो बादलों की सेना उमड़ पड़ी। 

अंधेरा सा छा गया। बिजली कड़कने लगी लेकिन चार बजने पर भी पानी की एक बूंद न गिरी।लेकिन जैसे ही चार बजकर दो मिनट हुये धरासार वर्षा होने लगी। वृद्ध ज्योतिषी ने सिर झुका लिया।आधे घण्टे की बारिश के बाद ओले गिरने शुरू हुए। राजा ने ओले मंगवाकर तुलवाये। कोई भी ओला पचास ग्राम का नहीं निकला।

शर्त के अनुसार सैनिकों ने वृद्ध ज्योतिषी को सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया और राजा ने बालक से इनाम मांगने को कहा - महाराज !! इन्हें छोड़ दिया जाये। बालक ने कहा। राजा के संकेत पर वृद्ध ज्योतिषी को मुक्त कर दिया गया। 

बजाय धन संपत्ति मांगने के तुम इस अपरिचित वृद्ध को क्यों मुक्त करवा रहे हो।बालक ने सिर झुका लिया और कुछ क्षणों बाद सिर उठाया तो उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। क्योंकि ये सोलह साल पहले मुझे छोड़कर गये मेरे पिता श्री विष्णुदत्त शास्त्री हैं। वृद्ध ज्योतिषी चौंक पड़ा। 

दोनों महल के बाहर चुपचाप आये लेकिन अंततः पिता का वात्सल्य छलक पड़ा और फफक कर रोते हुए बालक को गले लगा लिया। आखिर तुझे कैसे पता लगा कि मैं ही तेरा पिता विष्णुदत्त हूँ।

क्योंकि आप आज भी गणना तो सही करते हैं लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग नहीं करते।" बालक ने आंसुओं के मध्य मुस्कुराते हुए कहा।

"मतलब"? पिता हैरान था। 

वर्षा का योग चार बजे का ही था लेकिन वर्षा की बूंदों को पृथ्वी की सतह तक आने में कुछ समय लगेगा कि नहीं?ओले पचास ग्राम के ही बने थे लेकिन धरती तक आते आते कुछ पिघलेंगे कि नहीं?              और... 

दाई माँ बालक को जन्म लेते ही नींबू थोड़े फैंक देगी,उसे कुछ समय बालक को संभालने में लगेगा कि नहीं और उस समय में ग्रहसंयोग बदल भी तो सकते हैं और पितृहंता योग पितृरक्षक योग में भी तो बदल सकता है न?

पंडितजी के समक्ष जीवन भर की त्रुटियों की श्रंखला जीवित हो उठी और वह समझ गए कि केवल दो शब्दों के गुण के अभाव के कारण वह जीवन भर पीड़ित रहे और वह थे-- कॉमन सेंस

तस्मै श्री गुरुवे नमः

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।आपका हर पल मंगलमय हो।

कामनाओं को नियंत्रित रखे सदैव

बंधुओ, शिथिल एवं अधूरी कामनाएँ भी अशांति का एक कारण होती हैं। शिथिल कामना वाला व्यक्ति थोड़ा सा प्रयत्न करके बड़ी उपलब्धि चाहने लगता है और जब उसको नहीं पा सकता तो समाज अथवा परिस्थितियों को दोष देकर जीवनभर असफलता के साथ बँधा रहता है।

अपनी स्थिति से परे की कामनाएँ करना, अपने को एक बड़ा दण्ड देने के बराबर है। मोटा सा सिद्धांत है कि अपनी शक्ति के बाहर की गई कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकती और अपूर्ण कामनाएँ हृदय में काँटे की तरह चुभा करती हैं।

मनुष्य को अपने अनुरूप, अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार ही कामना करते हुए अपने पूरे पुरुषार्थ को उस पर लगा देना चाहिए।

इस प्रकार एक सिद्धि के बाद दूसरी सिद्धि के लिए पूर्व सिद्धि और उपलब्धियों का समावेश कर आगे प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस प्रकार एक दिन वह कोई बड़ी कामना की पूर्ति भी कर लेगा। 

"निःसन्देह कामनाएँ मनुष्य का स्वभाव ही नहीं, आवश्यकता भी है, किंतु इनका औचित्य, नियंत्रण, दृढ़ और प्रयत्नपूर्ण होना भी वांछनीय है। तभी ये जीवन में अपनी पूर्ति के साथ सुख-शान्ति का अनुभव दे सकती हैं "अन्यथा "अनियंत्रित" एवं "अनुपयुक्त" कामनाओं से बड़ा शत्रु मानव-जीवन की सुख-शान्ति के लिए दूसरा कोई नहीं है।"


आहार के प्रकार एवं उनका प्रभाव

 

आहार सदा सात्विक होना चाहिए

      भोजन शरीर तथा मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव डालता है, आयुर्वेद में आहार को अपने चरित्र एवं प्रभाव के अनुसार सात्विक, राजसिक या तामसिक रूपों में वर्गीकृत किया गया है, कोई कैसा भोजन पसंद करता है यह जानकर उसकी प्रकृति व स्वाभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

सात्विक भोजन

      सात्विक भोजन सदा ही ताज़ा पका हुआ, सादा, रसीला, शीघ्र पचने वाला, पोषक, चिकना, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है यह मस्तिष्क की उर्जा में वृद्धि करता है और मन को प्रफुल्लित एवं शांत रखता है, सोचने-समझने की शक्ति को और भी स्पष्ट बनाता है सात्विक भोजन शरीर और मन को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में बहुत अधिक सहायक है।

       देसी गाय का दूध, घी, पके हुए ताजे फल, बादाम, खजूर, सभी अंकुरित अन्न व दालें, टमाटर, परवल, तोरई, करेला जैसी सब्जियां, पत्तेदार साग सात्विक मानी गयीं हैं घर में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले मसाले जैसे हल्दी, अदरक, इलाइची, धनिया, सौंफ और दालचीनी सात्विक होते हैं।

सात्विक व्यक्तित्व

       जो व्यक्ति सात्विक आहार लेते हैं उनमें शांत व सहज व्यवहार, स्पष्ट सोच, संतुलन एवं आध्यात्मिक रुझान जैसे गुण देखे जाते हैं. ईश्वर भक्ति, जीव प्रेम, दया , करुणा जैसे गुण से समृद्ध होते है।

       सात्विक व्यक्ति आमतौर पर शराब जैसे व्यसनों, चाय-कॉफी, तम्बाकू और मांसाहारी भोजन जैसे उत्तेजक पदार्थों नही ग्रहण करते हैं।

राजसिक भोजन

        राजसिक आहार भी ताजा परन्तु भारी होता है. इसमें मांसाहारी पदार्थ जैसे मांस, मछली, अंडे, अंकुरित न किये गए अन्न व दालें, मिर्च-हींग जैसे तेज़ मसाले, लहसुन, प्याज और मसालेदार सब्जियां आती हैं. राजसिक भोजन का गुण है की यह तुंरत पकाया गया और पोषक होता है।

        इसमें सात्विक भोजन की अपेक्षा कुछ अधिक तेल व मसाले हो सकते हैं। राजसिक आहार उन लोगों के लिए हितकर होता है जो जीवन में संतुलित आक्रामकता में विश्वास रखते हैं जैसे सैनिक, व्यापारी, राजनेता एवं खिलाड़ी।

       राजसिक आहार सामान्यतः कड़वा, खट्टा, नमकीन, तेज़, चरपरा और सूखा होता है. पूरी, पापड़, बिजौड़ी जैसे तले हुए पदार्थ , तेज़ स्वाद वाले मसाले, मिठाइयाँ, दही, बैंगन, गाजर-मूली, उड़द, नीबू, मसूर, चाय-कॉफी, पान राजसिक भोजन के अर्न्तगत आते हैं।

राजसिक व्यक्तित्व

       राजसिक आहार भोग की प्रवृत्ति, कामुकता, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, कपट, कल्पना, अभिमान और अधर्म की भावना पैदा करता है. राजसिक व्यक्तित्व वाले लोग शक्ति, सम्मान, पद और संपन्नता जैसी चीज़ों में रूचि रखते हैं। इनका अपने जीवन पर बहुत हद तक नियंत्रण होता है; ये अपने स्वार्थों को सनक की हद तक नहीं बढ़ने देते। राजसिक व्यक्ति दृढ़ निश्चयी होते हैं और अपने जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, राजसिक व्यक्ति अक्सर ही अपनी जीभ को संतुष्ट करने के लिए अलग अलग मसाले दार चटपटा व्यंजनों में रुचि रखते है।

तामसिक भोजन

        तामसिक आहार में ऐसे खाद्य पदार्थ आते हैं जो ताजा न हों वासी हो, जिनमे जीवन शेष न रह रह गया हो , ज़रूरत से ज्यादा पकाए गए हों, बुसे हुए पदार्थ या प्रसंस्कृत भोजन अथवा प्रोसेस्ड फ़ूड ।

         मांस, मछली और अन्य सी-फ़ूड, वाइन, लहसुन, प्याज और तम्बाकू परंपरागत रूप से तामसिक माने जाते रहे हैं.

तामसिक व्यक्तित्व

        तमस हमारी जीवनी शक्ति में अवरोध पैदा करता है जिससे की धीरे धीरे स्वस्थ्य और शरीर कमज़ोर पड़ने लग जाता है. तामसिक आहार लेने वाले व्यक्ति बहुत ही मूडी किस्म के हो जाते हैं, उनमें असुरक्षा की भावना, अतृप्त इच्छाएं, वासनाएं एवं भोग की इच्छा हावी हो जाती है; जिसके कारण वे दूसरों से संतुलित तरीके से व्यवहार नहीं कर पाते इनमे दूसरों को उपयोग की वस्तु की तरह देखने, और किसी के नुकसान से कोई सहानुभूति न रखने की भावना आ जाती है. यानि की ऐसे लोग स्वार्थी और खुद में ही सिमट कर रह जाते हैं. इनका केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और ह्रदय पूरी शक्ति से काम नहीं कर पाता और इनमें समय से काफी पहले ही बुढापे के लक्षण दिखने में आने लगते हैं. ये सामान्यतः कैंसर, ह्रदय रोग, डाईबीटीज़, आर्थराईटिस और लगातार थकान जैसी जीवनशैली सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त पाए जाते हैं।

     सात्विक, राजसिक और तामसिक यह केवल खाद्य पदार्थों के ही गुण नहीं है, बल्कि जीवन जीने व उसे दिशा देने का मार्ग भी हैं।

Thursday, April 17, 2025

एक ऐसा नेता जिसे श्राप लगा हुआ है

शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मध्यप्रदेश सरकार अशासकीय विद्यालयों को कुछ अनुदान देती थी। कुछ प्रबन्ध समितियों की अनियमितताओं के चलते सरकार द्वारा दिए जाने वाले इस अनुदान को "वेतन संदाय अधिनियम 1978" में बदल दिया गया था। इस अधिनियम के तहत अनुदान प्राप्त सभी शिक्षकों को शासन की ओर से अनुदान की जगह 100 % वेतन दिया जाने लगा। इसलिए इस अधिनियम का नाम अनुदान न होकर वेतन संदाय कर दिया गया। अतः शासकीय शिक्षकों के समान इन शिक्षकों को भी सभी लाभ दिए जाने लगे। रिक्त पदों पर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्ती के लिए बाकायदा विज्ञापन दिए जाने लगे। शासकीय शिक्षा विभाग द्वारा आदेशित  अधिकारियों या उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों सहित अधिकृत चयन

कमेटियों द्वारा साक्षात्कार लेकर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्तियांँ हुईं। शिक्षा विभाग द्वारा उनके अनुमोदन हुए। तब भर्ती परीक्षाएँ नहीं होती थीं किन्तु यह सब विधि सम्मत था।

उक्त अधिनियम में पेंशन का प्रावधान नहीं था किन्तु इसके बदले में इन शिक्षकों को दो वर्ष की अतिरिक्त आवश्यक सेवा अवधि के लाभ का प्रावधान किया गया। यदि शासकीय शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 60 वर्ष की आयु में होती थी तो इन विद्यालयों के शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 62 वर्ष पूर्ण होने पर होती थी। इसके साथ ही हर विद्यालय की प्रबन्ध समिति  शिक्षक की सहमति और उपयोगिता के आधार पर सरकार से प्रति वर्ष एक वर्ष की वृद्धि की स्वीकृति लेकर 65 वर्ष तक के लिए इनकी सेवाएँ बढ़ा सकती थी इस तरह सेवा की अधिकतम आयु 65 वर्ष तक थी।

शिक्षकों ने इसे राष्ट्रीय और शासकीय सेवा समझकर इस नौकरी को सहर्ष स्वीकार कर लिया था। सन् 2000 तक इन शिक्षकों को आने वाली हर सरकार भी पूरा वेतन व सुविधाएँ देती रही, शिक्षकों ने भी जी भर कर परिश्रम किया और अन्यों की तुलना में अच्छे से अच्छे परिणाम दिए। इस कारण इन विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या सीमा से अधिक ही रहा करती थी। एडमिशन के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। सरकारों ने इन शिक्षकों से भी जनगणना, मकान गणना, मतदाता सूची, चुनाव आदि राष्ट्रीय और राजकीय कार्यों हेतु ड्यूटी लगाकर खूब काम लिया।

दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! नेकी के‌ परिणाम ही बदी में बदल गए। एक ही घटना ने मध्यप्रदेश की पूरी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त कर दी। दिग्विजय सिंह की सरकार ने सन् 2000 में नया अध्यादेश लाकर फिर उसे विधानसभा में विधेयक के रूप में प्रस्तुत कर पारित करवा लिया। कानून बन गया जिसमें हिन्दुओं के विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में प्रति वर्ष 20% कटौती करते हुए पाँच वर्ष में पूरा वेतन खत्म कर देने की कार्यवाही कर दी वहीं अल्प संख्यकों द्वारा संचालित विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में कभी कोई कटौती नहीं की जाने का भी प्रावधान किया गया। इस अवसर पर माननीय कैलाश विजयवर्गीय जैसे विपक्ष के समर्थ कई विधायकों ने क्रोधित होकर विधेयक का विरोध करते हुए हंगामें के साथ विधानसभा में इस विधेयक की प्रतियाँ फाड़ीं थीं।

कानून पास होते ही न जाने कितने शिक्षकों ने नौकरियाँ छोड़ दीं। कई शिक्षकों की हृदय गति रुकने से‌ मृत्यु हो गई। कइयों को  अन्य अनेक कारणों से अल्पायु में ही मरना पड़ा। कई पागल हो गए।धन के अभाव में अवसादग्रस्त कई शिक्षकों के बच्चों की उच्च शिक्षा रुक गई, वे फिर कभी अपना समुचित विकास न कर पाए। कुछ के बेटे शराबी और अपराधी हो गए। एक ऐसी मानसिक अराजकता में छात्रों की शिक्षा में प्रगति रुक गई, उसी में राष्ट्र निर्माता शिक्षक उलझ गया। कइयों की बेटियों को क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ा? शिक्षिकाओं की आँखें हमेशा के लिए गीली हो उठीं। तत्कालीन सत्ताधारी मन्त्रियों विधायकों में किसी को भी दया नहीं आई। तथाकथित सम्मान के धनी इन शिक्षकों के अपमान को जगह-जगह लेखक ने भी खूब अनुभूत किया है।

उस समय सत्ता ऐसे दुष्टों के हाथ में कैद हो गई थी, जिनमें नैतिकता और मानवता के लिए सुखकारी लकीरें ही नहीं थीं। उस शासन में बिजली की इतनी किल्लत थी कि किसान मजदूर शहरी ग्रामीण सभी दुखी हो गए। सड़कों की दुर्दशा, सभी दैनिक वेतनभोगियों की एक ही दिन में अकारण बर्खास्तगी, रोडवेज कर्मचारियों की नौकरी ख़त्म करने के आदेश आदि अनेक जनविरोधी निर्णयों को याद करते हैं तो उस समय की दुर्दशा पर रूह काँप उठती है। हाय रे क्रूरता की पराकाष्ठा राम!राम! अगर कुछ सुखी थे तो मात्र सत्ता से जुड़े हुए लोग। सत्ता के मद में चूर केवल यही लोग समझ रहे थे कि अभी तक के शासन कालों में जनता सबसे अधिक खुशहाल और प्रसन्न है।

ऐसे में बेचारे इन शिक्षकों के परिवारों ने तब हमेशा के लिए दृढ़ होकर संकल्प लिया था कि जिस दल की सरकार ने हमारे परिवारों को भूखों मारा है, उसे सत्ता में अब नहीं आने देंगे। ऐसा हुआ भी। इसीलिए इन शिक्षकों के परिवार आज तक काँग्रेस और विशेषकर दिग्विजय सिंह का बिल्कुल समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि अन्तरात्मा से श्राप दे चुके हैं। सभी शिक्षकों को तभी से उनसे एक घृणा सी हो गई है। शापित होने के कारण ही अब वह दल और दिग्विजय सिंह दोनों बुरी तरह अपना जनाधार खो चुके हैं। हाँ, पार्टी में सक्षम नेतृत्व के अभाव और अपने राजनीतिक छल-बल से वे राज्य सभा के लिए
चुन लिए जाते हैं किन्तु सत्य तो यह है कि उनकी पार्टी में मन से उन्हें कोई भी पसन्द नहीं करता। ऐसे नेता पर मध्य प्रदेश क्या समूचा देश गर्वित न हो कर अत्यधिक लज्जित होता है।

दूसरी सरकारें आईं उन्होंने भी चुनाव के समय झूठे आश्वासन दिए किन्तु किया कुछ नहीं। भला हो उस सुप्रीम कोर्ट का जिसने 2014 में वेतन संदाय अधिनियम 1978 को पुनर्जीवित कर दिया। तब जाकर कुछ न्याय मिल सका। 100% वेतन फिर मिलने लगा लेकिन सन् 2000 से 2014 तक क्या-क्या नहीं बीती इन शिक्षकों पर ईश्वर ही जानता है। इतने पर भी इन शिक्षकों को अभी पूरा लाभ नहीं मिला है।

वर्तमान सरकार ने भी अभी तक सातवाँ वेतनमान नहीं दिया क्रमोन्नति लाभ भी नहीं दिये। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त शिक्षकों को आधिकारिक रूप से मिलने वाली ग्रेच्युटी तक नहीं दी पेंशन तो बहुत दूर की बात है। दो साल सेवा का लाभ भी नहीं दिया है। 2016 से सेवानिवृत्त शिक्षकों को कुछ भी नहीं मिला न सातवाँ वेतनमान न क्रमोन्नति,न ग्रेच्युटी, न पेंशन, न दो साल की सेवा का अतिरिक्त लाभ, न समयमान वेतनमान।
देश के दूसरे प्रान्तों में अनुदान प्राप्त शिक्षकों को उक्त सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। कितना अमानवीय व्यवहार हुआ है शिक्षकों के साथ , कल्पना से परे है।

सांसद विधायक आदि पाँच साल तक उच्च वेतन भत्ते व सेवा के बाद पेंशन प्राप्त करते हैं किन्तु 40 साल सेवा करने के बाद भी बेचारे इन शिक्षकों को कोई पेंशन क्यों नहीं मिलती? जब ग्रेच्युटी हर कर्मचारी का अधिकार है तो ग्रेच्युटी क्यों नहीं दे रही सरकार। सत्ता के मद में हमारे नेता क्यों नहीं समझते? समय बढ़ाने के लिए कोर्ट चले जाते हैं। समझ से परे है। गम्भीर विचार करना चाहिए। बुढ़ापा इनको भी सताता है। इनको भी बीमारी घेरती है। दवाइयों की जरूरत इनको भी है। वाह रे संवेदनशील सरकारी तन्त्र! न जाने कितने शिक्षक उचित न्याय अभाव में अपनी जान गँवा रहे हैं।

अब केवल न्यायालय का सहारा है उसमें भी सरकार तारीखों पर तारीखें बढ़वाती रहती है, समय पर न्याय भी नहीं मिलने देती। न्यायालय भी इन प्रकरणों पर ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षक है। क्या करेगा? यह सोच कर काँग्रेस अब अपनी बहुत बड़ी भूल को सुधारने की बात कह रही है जबकि सत्ता में रहते मदमाते नेताओं को सोचना चाहिए था कि इस जगह हम होते तो क्या करते, लेकिन इन सभी की संवेदनशीलता मात्र घड़ियाली आंँसू सिद्ध होती रही है।

राष्ट्रनिर्माता कह देना और मानना दोनों बातों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। वर्तमान सरकार से भी पूरी तरह हताश ये शिक्षक घर के रहे न घाट के। इन शिक्षकों के परिवारों में यह भावना घर कर गई है कि सरकारें हमें कुछ नहीं देंगीं जो भी हक मिलेगा वह माननीय कोर्ट के द्वारा ही मिलेगा। अब ये सोच रहे हैं कि मध्यप्रदेश में एक बार फिर सामूहिक प्रण किया जाए। ये शिक्षक संख्या में भले ही कम हों किन्तु किसी एक जाति या किसी एक वर्ग के नहीं होने से इन शिक्षकों को विभिन्न समाजों में पसरे शिष्यों से गहरा सम्मान प्राप्त होता है। जी में आता है कि इस प्रकरण की हर पहलू और उसके परिणाम पर विचार करते हुए ईमानदारी से एक ऐसी पुस्तक लिखी जाए जो काल-पात्र की संज्ञा को प्राप्त हो।

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर