Wednesday, April 16, 2025

बुराई का अंत

एक सांप को एक बाज़ आसमान पे ले कर उड राहा था..

अचानक पंजे से सांप छूट गया और कुवें मे गिर गया बाज़ ने बहुत कोशिश की अखिर थक हार कर चला गया..

सांप ने देखा कुवें मे बड़े किंग साईज़ के बड़े बड़े मेढक मौजूद थे.. 

पहले तो डरा फिर एक सूखे चबूतरे पर जा बैठा और मेढकों के प्रधान को लगा खोजने.. 

अखिर उसने एक मेढक को बुलाया और कहा मैं सांप हूँ मेरा ज़हर तुम सब को पानी मे मार देगा.. 

ऐसा करो रोज़ एक मेढक तुम मेरे पास भेजा करो, वह मेरी सेवा करेगा और तुम सब बहुत आराम से रह सकते हो.. 

पर याद रखना एक मेढक रोज़ रोज़ आना चाहिए.. एक एक कर के सारे मेढक सांप खा गया.. 

जब अकेले प्रधान मेढक बचा तब सांप चबूतरे से उतर कर पानी मे आया और बोला प्रधान जी आज आप की बारी है 

प्रधान मेढक ने कहा मेरे साथ विश्वास घात ? सांप बोला जो अपनो के साथ विश्वास घात करता है उसका यही अंजाम होता है।

फिर उसने प्रधान जी को गटक लिया।

कुछ देर के बाद साँप आहिस्ता आहिस्ता कुवें के ऊपर आ कर चबूतरे पर लेट गया.. 

तभी एक बाज़ ने आ कर साँप को दबोच लिया.. 

पहचान साँप मुझे मैं वही बाज़ हूँ जिसके बच्चे तूने पिछले साल खा लिये थे.. 

और जब तुझे पकड़ कर ले जा रहा था तब तू मेरे पंजे से छूट कर कुवें मे जा गिरा था.. 

तब से मैं रोज़ तेरी हरकत पर नज़र रखता था.. आज तू सारे मेढक खा कर काफी मोटा हो गया.. 

मेरे फिर से बच्चे बड़े हो रहे है वह तुझे ज़िंदा नोच नोच कर अपने भाई बहनो का बदला लेंगे.. 

फिर बाज़ साँप को लेकर उड़ गया अपने घोसले की तरफ..

बुराई एक दिन हार जाती है वह चाहे कितनी भी ताक़त वर हो..!

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

बड़ा सोचो

अत्यंत गरीब परिवार का एक  बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में  किसी दूसरे शहर जाने के लिए  रेलगाड़ी से  सफ़र कर रहा था | घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटीयां ही रखी थी | आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगने लगी, और वह टिफिन में से रोटीयां निकाल कर खाने लगा | उसके खाने का तरीका कुछ अजीब था , वह रोटी का  एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटीयां थीं।


उसकी इस हरकत को आस पास के और दूसरे यात्री देख कर हैरान हो रहे थे | वह युवक हर बार रोटी का एक टुकड़ा लेता और झूठमूठ का टिफिन में डालता और खाता | सभी सोच रहे थे कि आखिर वह युवक ऐसा क्यों कर रहा था | आखिरकार  एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और उसने उससे पूछ ही लिया की भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमे सब्जी हो |


तब उस युवक  ने जवाब दिया, “भैया , इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है लेकिन मै अपने मन में यह सोच कर खा रहा हू की इसमें बहुत सारा आचार है,  मै आचार के साथ रोटी खा रहा हू  |”  फिर व्यक्ति ने पूछा , “खाली ढक्कन में आचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो तो क्या तुम्हे आचार का स्वाद आ रहा है ?” “हाँ, बिलकुल आ रहा है , मै रोटी  के साथ अचार सोचकर खा रहा हूँ और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है |”, युवक ने जवाब दिया|


उसके इस बात को आसपास के यात्रियों ने भी सुना, और उन्ही में से एक व्यक्ति बोला , “जब सोचना ही था तो तुम आचार की जगह पर मटर-पनीर सोचते, शाही गोभी सोचते….तुम्हे इनका स्वाद मिल जाता | तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने आचार सोचा तो आचार का स्वाद आया तो और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता | सोचना ही था तो भला  छोटा क्यों सोचे तुम्हे तो बड़ा सोचना चाहिए था |”


Monday, April 14, 2025

रखी लोकतंत्र की मर्यादा

 संविधान का निर्माण करके,

बने जो आधुनिक संविधान निर्माता,

आज़ादी की परिभाषा समझाई,

रखी  लोकतंत्र की मर्यादा।

कर सके हर भारतीय,

अपने हकों का उपयोग,

ऐसे महान थे भारत रत्न भीमराव,

सिखाई सबको राजनीति की परिभाषा।

बचपन का नाम था इनका भीम,

14अप्रैल को जन्म लिया धरा पर,

सबकी कसौटी पर उतरे खरे,

रखी मजबूत संविधान की नींव।

कहते सब इनको संविधान निर्माता,

थे समान अधिकारों के संरक्षक,

पढ़ाई ऐसी थी इनकी,

थे कानून के प्रख्यात ज्ञाता।

गरीबों शोषितों के थे वो मसीहा,

समानता का था जो अधिकार,

उन्होंने संविधान में था दिया,

तभी बनी थी फिर  आम जनता की सरकार।

खुद रहे थे बचपन से ही शोषित,

पाया था फिर भी शिक्षा को अपार,

अस्पृश्यता और जातिप्रथा पर किया था कड़ा प्रहार,

हमेशा रहे लोगों की सहायता को तत्पर,

ऐसे थे भारत रत्न डॉक्टर भीम राव अंबेडकर।


स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना 

कैप्टन (डॉo) जय महलवाल (अनजान)


मेरे नैन

गुपचुप करते वो सारी बतिया,

जगाते भी जो पूरी ही रतिया,
मौन की भाषा ही बोलते हैं,
राज दिल के सारे खोलते हैं ।

अपनों की चिंता में हो जाते बेचैन,
रात-दिन थके-हारे अश्रुपूरित नैन,
चिंतित हो बहुत कुछ सोचते हैं,
खत्म हुए "आनंद" को खोजते हैं ।

दर्द छुपाना इनको आता ही नहीं,
कशमकश अन्तर्मन की हॉं यहीं,
टुटे दिल के तारों को टटोलते हैं,
अन्तर्मन को बेहद कचोटते है ।

एकटक आस लगाएं तकते ये राह,
अश्रु छलकाते निकलती जब आह,
टुटे हुए रिश्तों के अक्स से जोड़ते हैं,
बीती यादों की तरफ़ ये मोड़ते हैं ।

ख्वाब दिखा मीलों ले जाते ये दूर,
थम न पाते सपने जब हो जाते चूर,
साथी बन दिल का दर्द बॉंटते हैं,
 परछाइयों से मन को यूँ बॉंधते हैं ।
-  मोनिका डागा