Friday, October 18, 2024
आप किचेन गार्डन में उगा सकते हैं छह मसाले वाले पौधे
Wednesday, October 2, 2024
शारदीय नवरात्रारम्भ 03अक्तूबर 2024 बृहस्पतिवार
#शास्त्रोक्त_कलश_स्थापन_शुभ_मुहूर्त :----
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#घटस्थापना_यवरोपण_दीप_प्रज्ज्वलित_दीपपूजन_मुहूर्त ( स्थान -पठानकोट संभाग )
#शुभ_मुहूर्त :--प्रात: 06:27 से 10:27 पर्यन्त ( सूर्योदयान्तर 10 घडी तक अतिश्रेष्ठ ) एवं मध्याह्न
#अभिजित_शुभ_मुहूर्त_समय :--- #मध्याह्ण (दोपहर):-- 11:52':30" amसे 12:40':30" pm तक
(#सभी_दोषों_को_दूर_करने_वाला_सर्वश्रेष्ठ_शुभमुहूर्त)
( प्रातः काल सूर्योदयान्तर चित्रा नक्षत्र एवं वैधृति योग नहीं होने से कोई शास्त्रोक्त प्रतिबन्ध नहीं है )
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#वैधृति_योग_निषेधश्चउक्तकालानुरोधेन_स्थिति_सम्भवे_पालनीय:।।
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शारदीय एवं वासन्तिक नवरात्रों में मात्र शुद्ध शास्त्रीय पद्धति का प्रयोग किया जाना चाहिए। चौघड़िया शुद्ध मुहूर्त पद्धति नहीं है इसलिए मुहूर्त में चौघड़िया का उपयोग से परहेज़ करना चाहिए इसका उपयोग अत्यावश्यक परिस्थितियों में करना चाहिए।
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आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को शारदीय नवरात्रि की शुरुआत घटस्थापना से होती है। नवरात्रि में घटस्थापना यानि कलश स्थापना का बहुत महत्त्व होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यदि घटस्थापना शुभ मुहूर्त में सम्पन्न हो, तो देवी प्रसन्न होती हैं और भक्तों को मनचाहा फल देती हैं।
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लेकिन वहीँ यदि यह पूजा पूरे विधि-विधान और शुभ मुहूर्त में ना हो, तो 9 दिनों तक की जानें वाली यह पूजा सार्थक नहीं मानी जाती और इससे शुभ फलों की प्राप्ति भी नहीं होती। इसलिए ये बेहद ज़रूरी है कि आप नवरात्रि के पहले दिन से जुड़ी सारी जानकरी रखें, ताकि माता की पूजा में कोई कमी न रह जाये और आप छोटी-छोटी ग़लतियाँ जो अक्सर कर देते हैं वो ना करें। चलिए बिना देर किए आपको बताते हैं, नवरात्रि के पहले दिन से जुड़ी हर एक छोटी-बड़ी जानकरी
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नवरात्रि के दौरान मां के 9 रूपों की पूजा की जाती है। माता के इन नौ रूपों को ‘नवदुर्गा’ के नाम से जाना जाता है।
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सबसे पहले जानते हैं कि नवरात्रि में कौन से दिन माता के किस रूप की पूजा करनी चाहिए:---
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नवरात्रि की प्रतिपदा को – मां शैलपुत्री
नवरात्रि की द्वितीया को – मां ब्रह्मचारिणी
नवरात्रि की तृतीया को – मां चन्द्रघण्टा
नवरात्रि की चतुर्थी को – मां कूष्मांडा
नवरात्रि की पाचवी को – मां स्कंदमाता
नवरात्रि की षष्ठी को – मां कात्यायनी
नवरात्रि की सप्तमी को – मां कालरात्रि
नवरात्रि का अष्टमी को – मां महागौरी
नवरात्रि का नवमी को। – मां सिद्धिदात्री
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नवरात्रि में पहले दिन कलश स्थापना की जाती है। पुराणों के अनुसार कलश को भगवान विष्णु का रुप माना गया है, इसलिए लोग माँ दुर्गा की पूजा से पहले कलश स्थापित कर उसकी पूजा करते हैं।
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#घट_स्थापना_की_आवश्यक_सामग्री:------
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घटस्थापना के लिए सबसे पहले आपको कुछ आवश्यक सामग्रियों को एकत्रित करने की ज़रूरत है। इसके लिए आपको चाहिए:------
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चौड़े मुँह वाला मिट्टी का कलश (सोने, चांदी या तांबे का कलश भी आप ले सकते हैं)
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किसी पवित्र स्थान की मिट्टी
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सप्तधान्य (सात प्रकार के अनाज) सम्भव न हो तो केवल जौ भी ले सकते हैं।
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जल (संभव हो तो गंगाजल)
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कलावा/मौली
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सुपारी
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आम या अशोक के पत्ते (पल्लव)
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अक्षत (कच्चा साबुत चावल)
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छिलके/जटा वाला नारियल
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लाल कपड़ा
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फूल और फूलों की माला
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पीपल, बरगद, जामुन, अशोक और आम के पत्ते (सभी न मिल पाए तो कोई भी 2 प्रकार के पत्ते ले सकते हैं)
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कलश को ढकने के लिए ढक्कन (मिट्टी का या तांबे का)
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फल और मिठाई
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#घटस्थापना_की_सम्पूर्ण_विधि:-----
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कलश स्थापना की विधि शुरू करने से पहले सूर्योदय से पहले उठें और स्नान करके साफ कपड़े पहने।
कलश स्थापना से पहले एक साफ़ स्थान पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर माता रानी की प्रतिमा स्थापित करें।
सबसे पहले किसी बर्तन में या किसी साफ़ स्थान पर मिट्टी डालकर उसमें जौ के बीज डालें। ध्यान रहे कि बर्तन के बीच में कलश रखने की जगह हो।
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अब कलश को बीच में रखकर मौली से बांध दें और उसपर स्वास्तिक बनाएँ।
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कलश पर कुमकुम से तिलक करें और उसमें गंगाजल भर दें।
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इसके बाद कलश में साबुत सुपारी, फूल, इत्र, पंच रत्न, सिक्का और पांचों प्रकार के पत्ते डालें।
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पत्तों के इस तरह ऱखें कि वह थोड़ा बाहर की ओर दिखाई दें। इसके बाद ढक्कन लगा दें। ढक्कन को अक्षत से भर दें और उसपर अब लाल रंग के कपड़े में नारियल को लपेटकर उसे रक्षासूत्र से बाँधकर रख दें।
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ध्यान रखें:---- कि नारियल का मुंह आपकी तरफ होना चाहिए। (जानकारी के लिए बता दें कि नारियल का मुंह वह होता है, जहां से वह पेड़ से जुड़ा होता है।)
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देवी-देवताओं का आह्वान करते हुए कलश की पूजा करें।
कलश को टीका करें, अक्षत चढ़ाएं, फूल माला, इत्र और नैवेद्य यानी फल-मिठाई आदि अर्पित करें।
जौ में नित्य रूप से पानी डालते रहें, एक दो दिनों के बाद ही जौ के पौधे बड़े होते आपको दिखने लगेंगे।
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नोट – आप चाहें तो अपनी इच्छानुसार और भी विधिवत् तरीके से स्वयं या किसी पण्डित द्वारा पूजा करा सकते हैं।
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प्रात: व्रतसंकल्प:--
--------------------------------------------------------------------ॐ विष्णु: विष्णु: विष्णु: अध्यक्ष ब्रह्मणो वयस:परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे काल-युक्त नाम संवत्सरे आश्विन शुक्ल प्रतिपदि बृहस्पतिवासरे प्रारम्भमाणे नवरात्रपर्वणि एतासु नवतिथिषु अखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृत्युक्त पुण्यसमवेत सर्वसुखलब्धये संयमादि दृढ़ पालयन् अमुक गोत्र:अमुकनामाहं भगवत्या:दुर्गाया: प्रसादाय व्रतं विधास्ये ।।
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नवरात्रों के नौ दिनों में उपवासादि व्रत रखने वाला व्रती इस संकल्प को नवरात्रा के प्रथम दिवस पर ही प्रात: काल करे,अन्य तिथियों में इसे करने की आवश्यकता नहीं है। जो केवल अन्तिम एक,दो,तीन नवरात्रों में व्रत रखते हैं, उन्हें " एतासु नव-तिथिषु की जगह यथोचित " सप्तम्यां,अष्टम्यां,नवम्यां तिथौ " आदि बदलकर तत्तत्- तिथियों में ही यह संकल्प पढ़ना चाहिए।।
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दैनिक षोडशोपचार पूजासंकल्प:-------
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ॐ विष्णु: विष्णु: विष्णु: अध्यक्ष ब्रह्मणो वयस:परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे कालयुक्तनामसम्वत्सरे आश्विन शुक्ल प्रतिपदि बृहस्पतिवासरे प्रारम्भमाणे नवरात्रपर्वणि एतासु नवतिथिषु अखिलपापक्षयपूर्वक श्रुति स्मृत्युक्त पुण्यसमवेत सर्वसुखलब्धये संयमादि दृढ़ पालयन् अमुक गोत्र:अमुकनामाहं भगवत्या:दुर्गाया:षोडशोपचार पूजन विधास्ये ।।
Friday, September 27, 2024
तिरुपति बालाजी
🌹तिरुपति बालाजी के प्रसाद लड्डू की कथा और इतिहास जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे, खुद माता लक्ष्मी ने बनाया था लड्डू, क्यों प्रसिद्ध है तिरुपति बालाजी मंदिर का लड्डू?🌹
⭕आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के तिरुपति के पास तिरूमाला पहाड़ी पर स्थित भगवान वेंकटेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर हैं जहां भगवान विष्णु की पूजा होती है। इनकी ख्याति तिरुपति बालाजी के रूप में हैं। भगवान श्री वेंकटेश्वर अपनी पत्नी पद्मावती (लक्ष्मी माता) के साथ तिरुमला में निवास करते हैं। वैष्णव परम्पराओं के अनुसार यह मन्दिर 108 दिव्य देसमों का एक अंग है। विष्णु ने कुछ समय के लिए तिरुमला स्थित स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। आज भी यह कुंड विद्यमान है जिसके जल से ही मंदिर के कार्य सम्पन्न होते हैं।
⚜️क्यों प्रसिद्ध है तिरुपति बालाजी मंदिर?
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तिरुपति बालाजी का मंदिर 5 खास बातों के लिए जाना जाता है। पहला यहां बाल दिए जाते हैं, जिसे केशदान कहते हैं। दूसरा विश्व का सबसे प्रसिद्ध और अमीर मंदिर जहां पर करोड़ों रुपए का चढ़ावा आता है। तीसरा प्रसाद के रूप में दिया जाने वाला लड्डू जो कि सदियों से एक जैसे ही स्वाद के लिए विश्व प्रसिद्ध है। चौथी मान्यता है कि यहां आने से जीवन के सभी संकट दूर हो जाते हैं और मृत्यु के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। मंदिर में बालाजी की जीवंत प्रतिमा एक विशेष पत्थर से बनी हुई है। प्रतिमा को पसीना आता है। उनकी प्रतिमा पर पसीने की बूंदें स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। बालाजी की पीठ को जितनी बार भी साफ करो, वहां गीलापन रहता ही है। इसलिए मंदिर में तापमान कम रखा जाता है। कहते हैं कि भगवान वेंकेटेश्वर की प्रतिमा पर कान लगाकर सुनें तो भीतर से समुद्र की लहरों जैसी ध्वनि सुनाई देती है। यह आवाज कैसे और किसकी आती है यह रहस्य अभी तक बरकरार है।
⚜️लड्डू की सामग्री है?
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तिरुपति बालाजी के दर्शन क्रम में अंत में लड़्डू का प्रसाद मिलता है। •'पनयारम' यानी लड्डू मंदिर के मिलते हैं, जो यहां पर प्रभु के प्रसाद रूप में भी चढ़ाए जाते हैं। इन्हें लेने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं। इसके अलावा अन्न प्रसादम की व्यवस्था भी है जिसके मीठी पोंगल, दही-चावल, रसम आदि भोजन प्रसाद मिलता है। लड़्डू पंचमेवा से बनता है जो कि पंचभूतों और पांच इंद्रियों का प्रतीक है। इसमें बेसन, घी, चीनी, काजू, किशमिश आदि सामग्री मिलाकर यह लड्डू बनाते हैं।
⚜️लड्डू की क्या है विशेषता:-
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यह लड्डू प्रसाद सदियों से वितरित किया जा रहा है। खास बात यह है कि इसकी सामग्री और स्वाद में अभी तक कोई बदलाव नहीं देखा गया। इसे बनाने की प्रक्रिया, सामग्री और अद्वितीय स्वाद के कारण ही इसकी विश्व में एक अलग पहचान बनी थी। इस पहचान के कारण तिरुपति के लड्डू को 2009 में Geographical Indication - GI टैग भी मिला था। इसका अर्थ होता है कि तिरुपति के लड्डू को एक विशिष्ट पहचान प्राप्त है और इसे केवल तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर में ही तैयार किया जा सकता है। यह टैग इस बात को तय करता है कि तिरुपति लड्डू की विशिष्टता और गुणवत्ता संरक्षित रहे, लेकिन कुछ माह से इसमें बदलाव होने के कारण वर्तमान में यह विवाद और चर्चा में है।
⚜️लड्डू से जुड़ी अन्य मान्यता:-
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ऐसी मान्यता है कि यहां का लड्डू प्रसाद का सेवन करने का अर्थ है कि भगवान तिरुपति आपको आशीर्वाद देंगे और लड्डू खाने से अब आपकी सभी समस्याओं का अंत होगा। इसे ग्रहण करने के पीछे यह विश्वास जुड़ा हुआ है कि भगवान तिरुपति बालाजी के प्रसाद के रूप में इसे प्राप्त करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होगी।
⚜️लड्डू से जुड़ी 3 कथाएं:-
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1. पहली कथा के अनुसार नंद बाबा और यशोदा मैया श्रीहरि विष्णु की पूजा करते थे। एक दिन उन्होंने लड्डू बनाए और विष्णुजी को भोग लगाकर आंखे बंद की। जब आखें खोली तो नटखट बालकृष्ण वो लड्डू बड़े प्रेम से खा रहे थे। माता यशोदा जी ने दोबारा लड्डू बनाए और नंद बाबा ने फिर से भोग लगाया, लेकिन इस बार भी बालकृष्ण लड्डू खा गए। इस तरह बार-बार ऐसा हुआ तब नंद बाबा को क्रोध आ गया और बालकृष्ण को डांटते हुए कहा कि कान्हा, थोड़ा ठहर जा, भोग लगा लेने दे, फिर तू खा लेना।
* इस बार बालकृष्ण ने तोतली आवाज में कहा कि, बाबा, आप ही तो बार-बार मुझे भोग लगाकर बुला रहे हो। नंद बाबा को कुछ समझ नहीं आया तो बालकृष्ण ने नंद बाबा और यशोदा माता को अपने चतुर्भुज स्वरूप में दर्शन दिए और कहा कि आपने मेरे लिए बहुत स्वादिष्ट लड्डू बनाए हैं। आज से ये लड्डू का भोग भी मेरे लिए माखन की तरह प्रिय होगा। तभी से बालकृष्ण को माखन-मिश्री और चतुर्भुज श्रीकृष्ण को लड्डुओं का भोग लगाया जाने लगा।
2. दूसरी कथा के अनुसार भगवान विष्णु वेंकटेश श्रीनिवास के रूप में अपनी पत्नी पद्मा और भार्गवी के साथ यहां रहते थे। भगवान वेंकटेश्वर और देवी लक्ष्मी के बीच एक बार यह विवाद हुआ कि किसे अधिक भोग अर्पित किया जाता है। भगवान वेंकटेश्वर का मानना था कि उन्हें सबसे अधिक भोग अर्पित करते हैं जबकि लक्ष्मी माता ने कहा कि आपको लगने वाले भोग में मेरा भी भाग है क्योंकि वह धन की देवी है और मेरे ही धन से भोग लगता है।
* इस विवाद के हल के लिए दोनों ने एक भक्त की परीक्षा ली। पहले वह अपने एक धनी भक्त के घर गए, जिसने विभिन्न पकवानों को बनाकर उन्हें भोग लगाया, लेकिन माता लक्ष्मी और भगवान को तृप्ति नहीं हुई। इसके पश्तात् वह अपने एक गरीब भक्त के यहां गए। वहां उस भक्त ने अपने घर बचे हुए आटे, कुछ फल-मेवे को मिलाकर लड्डू बनाकर खिलाया। इससे तुरंत भगवान बालाजी और माता तृप्त हो गए। इसके बाद से ही उन्होंने लड्डू को अपने प्रिय भोग की मान्यता दी।
3. एक तीसारी कथानुसार तिरुमला की पहाड़ियों पर भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति स्थापित की जा रही थी, तब पुजारी इस उलझन में थे कि प्रभु को प्रसाद के रूप में क्या अर्पित करें? तभी एक बूढ़ी मां हाथ में लड्डू का थाल लेकर उधर आईं और उन्होंने प्रथम नैवेद्य चढ़ाने की मांग की। पुजारियों ने इसे प्रभु की आज्ञा समझकर अर्पित किया और जब उन्होंने इसे खाया तो इसके दिव्य स्वाद से वह चकित रह गए। फिर जब उन्होंने बूढ़ी माई से इस स्वाद रहस्य के बारे में कुछ पूछना चाहा तो देखा कि वो गायब हो गई थीं। दूर तक वह कहीं नजर नहीं आई। तब यह माना जाने लगा कि स्वयं देवी लक्ष्मी ने इस प्रसाद को अर्पित करने का संकेत दिया है। एक किवदंती यह भी है कि भगवान बालाजी ने खुद ही पुजारियों को लड्डू बनाने की विधि सिखाई थी।
⚜️लड्डू बनाने का इतिहास:-
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यदि हम कथाओं को छोड़ दें तो तिरुपति के प्रसिद्ध लड्डू प्रसादम का इतिहास बहुत प्राचीन है। जब से मंदिर अस्तित्व में है तब से लड्डू प्रसाद तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर की पारंपरिक रीतियों और भक्ति-पूजा से जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि तिरुपति के लड्डू प्रसादम की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई. थी। हालांकि, लड्डू को कब विशेष प्रसाद के रूप में अपनाया गया इस बारे में कोई स्पष्ट डॉक्यूमेंटेशन नहीं मिलता है।
Thursday, September 26, 2024
जनवासा
गांव में विवाह होता था तो इस सीजन में होता था क्योंकि गेहूं, गन्ना कटने के बाद खेत खाली हो जाते थे और बारात को टिकाने (प्रबंध) के लिए अच्छी खुली जगह मिल जाती थी।
जहां बारात रुकती थी उसे जनवास कहते थे। जनवास का प्रबंध लड़के वाले ही करते थे। जनवास में जो टेंट लगता था उसका पैसा लड़के वाले देते थे। जनरेटर इत्यादि भी उनके तरफ़ का ही होता था।
लड़की वाले चारपाई, नाच के लिए तख्त की व्यवस्था कर देते थे।
बराती के स्वागत, नाश्ता कराने, भोजन करवाने के लिए सारा गांव एक पैर पर खड़ा हो जाता था।
जितने लोग घराती के मदद के लिए आते थे वो सारे बराती को नाश्ता भोजन करवाते जरूर थे लेकिन बेटी के विवाह में स्वयं भोजन नही करते थे।
बेटी के विवाह में जो लोग नेवता करने वाले रिश्तेदार आते थे वो पैसा, बर्तन,मिठाई, राशन, साड़ी, सिकौहिली, बेना इत्यादि लेकर आते थे। ये सब कुछ बेटी को दिया जाता था और बिटिया के घरवालों की इसी बहाने ज़िम्मेदारी कम हो जाती थी।
जब तक बारात विदा नही हो जाती थी तब तक सारे गांव वाले मदद के लिए तैनात रहते थे कहते थे कि बेटियां साझी होती हैं। बेटी के पिता की इज्जत सारे गांव वाले अपनी इज्जत मानते थे।
हर घर से बिस्तर, बर्तन, जरूरत का सारा सामान आ जाता था। गांव वाले ही मिलकर भोजन बना लेते थे। गांव के लड़के आटा गूंथते, लड़कियां पूड़ी बेलती, सारे नवयुवक भोजन परोसने का काम करते यूं मिल जुलकर विवाह हंसी खुशी निपट जाता था।
तब हॉल नही बुक होते थे। स्कूल, बगीचे, खेत में बारात रुकती थी।
सारे बाराती नाचते गाते दुआर चार के लिए जाते थे तो गांव के सभी लोग उनके अगवानी के लिए आकर खड़े हो जाते थे।
गांव के बुर्जुग कहते थे कि फलाने के द्वार पूजा होने जा रही है जाकर दस मिनट के लिए खड़े हो जाओ।
किसी के घर से यदि मतभेद भी हो तो भी बिटिया के विदा होते समय जरूर द्वार पर आ जाता था।
कितना अच्छा था पहले का समय कम खर्च में बड़ी अच्छी ढंग से बेटी का विवाह हो जाता था। गांव के लोग बेटी के पिता की ज़िम्मेदारी बांट लेते थे।