Wednesday, April 3, 2024

अतीत का दर्द

कभी नेनुँआ टाटी पे चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी, कभी बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहड़ौरी, सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी‌!

वो दिन थे, जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था। देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे,लेकिन खिचड़ी आते-आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी!
तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था।
ये सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं। लोहे की कढ़ाई में, किसी के घर रसेदार सब्जी पके तो, गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी। धुंआ एक घर से निकला की नहीं, तो आग के लिए लोग चिपरि लेके दौड़ पड़ते थे संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था!
रातें बड़ी होती थीं, दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो।
किसान लोगो में कर्ज का फैशन नहीं था, फिर बच्चे बड़े होने लगे, बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं!
बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही,अंग्रेजी इत्र लगाने लगे। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे, किसान क्रेडिट कार्ड डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया,इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी!
बीच में मूछमुंडे इंजीनियरों का दौर आया। अब दीवाने किसान,अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे, बेटी गाँव से रुखसत हुई,पापा का कान पेरने वाला रेडियो, साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था!
अब आँगन में नेनुँआ का बिया छीटकर,मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया, पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं!
बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गई, सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था, जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था!
दही मट्ठा का भरमार था, सबका काम चलता था। मटर,गन्ना,गुड़ सबके लिए इफरात रहता था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि, आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था!
आज की छुद्र मानसिकता, दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती थी, हाय रे ऊँची शिक्षा, कहाँ तक ले आई। आज हर आदमी, एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है!
विचारणीय है कि क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा है.....?

Tuesday, April 2, 2024

क्‍यों नहीं काटतीं कोहड़ा महिलाएं

इस बार बाजार से सब्जी के साथ कोहड़ा भी आ गया था। लगभग दो किलो का साबूत। इसमें दो दिन सब्जी बन जाती। शाम को उसे काटने के पहले दिव्या ने कहा-पापा काट देते तो सब्जी बना देती। मैंने चाकू से उसे आधा काट दिया। उसने इसी के साथ ही सवाल भी किया कि महिलाएं कद्दू क्यों नहीं काटती़। ऐसा हमेशा से होता आ रहा था कि जब भी पूरा कद्दू आता कोई पुरुष ही उसे पहला चाकू मारता और बाद में महिलाएं उसे काटतीं। मेरी मां भी ऐसा ही करती थीं और ऐसा ही अभी तक चल रहा है। मैंने भी एक बार मां से पूछा था कि तुम इसे क्यों नहीं काटती तो उसने जवाब दिया कि कद्दू बेटा होता है तो उसे कैसे काटा जाए।मैने पूछा कि तो क्या अन्य सब्जियों बेटी होती हैं जिन्हें कोई भी काट सकता है। वह कोई जवाब नहीं दे सकी। उसका यह जवाब मुझे संतुष्ट नहीं कर सका। कुछ अन्य लोगों से भी पूछा लेकिन कोई भी उसका सही जवाब नहीं दे पाया। आज यही प्रश्न मेरे सामने था और मेरे पास कोई तार्किक जवाब नहीं था।



दरअसल भारतीय शाक्त परंपरा में पहले देवी देवताओं को पशुबलि देने की प्रथा थी। यह परंपरा बहुत ही प्राचीन है। ऐसा नहीं कि ऐसा भारत में ही है। कई अन्य देशों में भी पशु बलि की परंपरा है। आज भी अनेक जगहों पर भेड़, बकरा, मुर्गा, और कहीं कहीं भैंसे की बलि देने जी जाती है।इन बलि पशुओं का मांस प्रसाद के रूप में लोग सेवन करते हैं, लेकिन जब जीवों के प्रति करुणा का भाव मानव में पैदा हुआ तो बलि प्रथा बंद करने पर विचार हुआ और विकल्प की तलाश की जाने लगी। ऐसे में मनुष्य की तरह दिखने वाले पदार्थों की तलाश हुई तो सबसे पहले नारियल सामने आया। नारियल के फल में दो आंखों और नाक जैसी रचना होती है। वास्तव में इन रचनाओं के साथ उसके बीज का जुड़ाव होता है। और यहीं से नारियल उगता है। लेकिन इस तरह की मानवाकृति देख कर उसे बलि फल के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आज हर मंदिर में खासतौर से शाक्त (देवी) मंदिरों में पूजा के बाद नारियल जरूर तोड़ा जाता है। यह बलि का प्रतीक है। नारियल का पानी और गरी प्रसाद हो जाता है। इसी तरह सफेद कद्दू (पेठा वाला) को भी देखा गया। इसकी रचना तो किसी जीव की तरह नहीं होती लेकिन न जाने कब से इसे बलि के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। देवी मंदिरों में इसकी बलि देने के पहले इसे सजा कर पूजा की जाती है। मैने एक बार महाकुंभ में इलाहाबाद(अब प्रयागराज) के संगम क्षेत्र में बंगाल से आए एक मठ के पंडाल में निशा पूजा के दौरान आधीरात को सफेद कद्दू को कपड़े पहनाकर सिंदूर आदि लगा कर पूजा करने के बाद खड्ग से बलि देने की घटना देखी थी। मेरे साथ बेटा भी था जिसकी उम्र उस समय कम थी और वह यह सब देख कर डर गया।
सब्जी वाले हरे कद्दू को भी सफेद कद्दू का भाई मान लिया गया। इसकी बलि तो नहीं दी जाती लेकिन यह मान लिया गया कि इसे काटना भी बलि देना ही है। चूंकि बलि आदि देने का काम पुरुष ही करते हैं और महिलाओं को इस क्रूर कर्म को करने की अनुमति नहीं होती,इसलिए सब्जी के लिए कोहड़ा काटने का काम भी पुरुष ही करते हैं। मुझे लगता है कि पूरे भारत में यह परंपरा है। दक्षिण को तो नहीं कह सकता लेकिन हिंदी भाषी उत्तर भारत में तो ऐसा ही है। मैंने कई राज्यों में इस परंपरा की बात सुनी है। पहले कोई पुरुष उसे काटेगा फिर महिलाएं उसे छोटे टुकड़े कर सब्जी आदि बनाती हैं। मैं एक बार शनि बाजार में कद्दू खरीद रहा था और वह बड़ा था जिसे काट कर ही लिया जाता। सब्जी बेचने वाली महिला थी। उसने पहले मुझसे उस पर चाकू चलवाया फिर काट कर दिया। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में तो इसे बड़ा बेटा ही माना जाता है और आदिवासी महिलाएं इसे काटने की सोच नहीं सकतीं।

Thursday, March 28, 2024

भगवान लड्डू गोपाल का उपचार कराने अस्पताल पहुंचा युवक

 प्रिंस गुप्ता ब्यूरो चीफ शाहजहांपुर दैनिक अयोध्या टाइम्स समाचार पत्र  खबर शाहजहांपुर 

डॉक्टर साहब मेरे लड्डू गोपाल का कर दो इलाज108 एम्बुलेंस से अस्पताल पहुंचे लड्डू गोपाल,उपचार कराने की जिद पर अड़ा भक्त

डॉक्टर साहब ने भी हार्ट रेट जांच की और लड्डू गोपाल को स्वस्थ बताया



शाहजहांपुर खुटार।खुटार के सरकारी अस्पताल पर अचानक ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर एवं स्वास्थ्य कर्मी हैरान रह गए जब भगवान लड्डू गोपाल का उपचार कराने के लिए 108 एंबुलेंस उन्हें लेकर अस्पताल पहुंची।भगवान को चोट लगने की बात कहकर लगातार रो रहा भगवान का भक्त डॉक्टर उसे समझाने के प्रयास में जुटे। मंगलवार की शाम 108 एम्बुलेंस पर तैनात पायलट रामेंद्र कुमार दुबे एवं ईएमटी कीरत यादव को किसी के बीमार होने की सूचना मिली।सूचना मिलते ही तत्काल एंबुलेंस कर्मी खुटार थाना क्षेत्र के गांव सुजानपुर पहुंचे वहां गांव सुजानपुर में रहने वाले रिंकू पुत्र रतीराम भगवान लड्डू गोपाल को चोट लग जाने की बात कहकर अस्पताल ले जाने के लिए कहने लगा यह देख एंबुलेंस कर्मियों ने युवक को समझाने का प्रयास किया लेकिन वह नहीं माना। जिस पर 108 एंबुलेंस कर्मियों को उपचार के लिए भगवान लड्डू गोपाल को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खुटार पर लाना पड़ा।सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खुटार पर तैनात डॉक्टर अंकित वर्मा एवं वहां मौजूद स्वास्थ्य कर्मी हैरान रह गए भगवान को चोट लगी है यह बात कह कर भक्त रिंकू लगातार रो रहा था डॉक्टर अंकित वर्मा एवं स्वास्थ्य कर्मियों ने भगवान की मूर्ति का चेकअप किया और ठीक होने की बात कह कर रिंकू को समझने का काफी प्रयास किया लेकिन वह नहीं माना जिस पर स्वास्थ्य कर्मियों ने रिंकू के परिवार वालों को सूचना दी तो पता चला उसके परिवार के सभी सदस्य पटियाली भोलेबाबा के सत्संग में गए थे जहां सभी लोग वापस आ रहे हैं। भगवान और भक्त के बीच एक अटूट प्रेम का अद्भुत दृश्य देखकर अस्पताल में तमाम लोग एकत्रित हो गए सब लोग अलग-अलग तरीके से रिंकू को समझने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन वह लगातार रोये ही जा रहा है।और कह रहा आज भगवान लड्डू गोपाल को स्नान कराते समय वह गिर गए जिससे उन्हें चोट लगी है डॉक्टर साहब मेरे माधव गोपाल का उपचार करा दो। करीब दो घंटे बाद युवक की मां अस्पताल पहुंची जहां डॉक्टरों ने युवक का समझा बुझाकर उसकी मां के साथ उसे घर भेज दिया।

Monday, March 11, 2024

जीवन की कल्पनाओं और जीवंत संबंधों की सार्थक आत्मकथन की अभिव्यक्ति "बीती हुई बतियाँ"

आत्म कथन एवंम स्वयं के संदर्भ में लेखन साहित्य की दुरूह विधा है और इस विधा को बड़े भोले और मासूम तरीके से नवोदित लेखिका बलजीत कौर 'सब्र' ने अपनी प्रथम कृति "बीती हुई बतियाँ" में पिरोया है। बचपन से लेकर अब तक की इनके निजी अनुभवों की जीवंत गाथा को अपने संस्करण में लिपिबद्ध किया है। यह लेखिका के लिए शुभ लक्षण है कि बाल्य काल से ही उनकी पठन-पाठन में गहन रुचि रही है और उसी का सम्यक प्रतिफल का प्रमाण इस कृति के रूप में हमारे हाथों में है। यह बचपन के विभिन्न अध्यायों में विभक्त संस्करणों का एक बड़ा कैनवास है जिसमें लेखिका ने अपनी तूलिका से अलग-अलग रंगों से सजाया है। लिखे गए साहित्य में लेखिका की अपनी स्वयं की अनुभूतियों तथा संवेदनाओं के स्मरण का संप्रेषण तथा अभिव्यक्ति दी है, कलात्मक अभिव्यक्ति में सादा भोलापन,मूल मानवीय संवेदना और

सपाट वक्तव्य भी समाहित हैं, उनके लेखन में कृत्रिमिता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती है आडंबर विहीन शब्दों का चयन करके लेखिका ने इसको बड़े ही निजी अंदाज में संकलित किया है। इस किताब में आठ आलेखों में अब तक के अनुभवों का विस्तृत विवरण समाहित है। बीती हुई बतियाँ में कुछ बातें जो दैनंदिनी की उल्लेखित है किंतु कुछ ऐसी बातें जो मन में घूमड घूमड कर मस्तिष्क के तंतुओं में आकर रुक जाती हैं उन्हें भी लिखकर लेखिकाओं ने भावनात्मक संश्लेषण में अभिव्यक्त किया है। बचपन वाला इश्क, चाय, बारिश को सजदा, स्कूल की अनमोल सखियां, छत पर गुजरे लम्हे, कुछ बातें जो दिल के करीब है, वो दौर, और इस महत्वपूर्ण कृति की मुख्य पृष्ठभूमि में शीर्षक बीती हुई बतियां में लेखिका ने अपने जीवन का निचोड़ प्रस्फुटित किया है। निसंदेह इनका यह प्रथम प्रयास साहित्य जगत के लिए शुभ संकेत है। सचमुच मानवीय संबंधों को पंख और उड़ान देती है चाय की मीठी चुस्कियां यह उनका गहन व्यक्तिगत अनुभव है और चाय को केवल चाय न मानकर बतरस का बेहद रोचक और संग्रहणीय जरिया बनाया है, चाय एक अंतरण बातों का खूबसूरत माध्यम भी हो सकता है यह लेखिका ने साबित किया है। बारिश को सजदा में अंतरंग भावनाओं को अंतस की तपिस को बारिश की बूंदों में शांत करते हुए लेखिका का मन सचमुच अंतरंग बातों से भीग भीग जाता है यह लेखिका की सफलता है। बाल मन में मित्रता सखियां और बाल मित्र संबंधों की सीमाओं से परे जाकर अंतरंग रिश्ते में परिवर्तित हो जाती है बचपन मित्रता को समर्पित होता है और इन्हीं स्मृतियां को इस कृति में बड़े ही मार्मिक तरीके से इंगित किया गया है। छत पर गुजरे हुए लमहे हर व्यक्ति की जिंदगी में एक अलग अनुभव और विशेषताओं को दर्शाता है यह केवल अनुभव नहीं बचपन की मधुर स्मृतियां जैसे हर मनुष्य लम्हा गुजर जाने के बाद फिर से पाने का प्रयास करता है, इसी जादूगरी में बड़ी दक्षता के साथ लेखिका ने अपनी बात रखी है। बीती हुई रतियों में आकाश के तारों को ताकते हुए भविष्य की कल्पनाओं में खोना मनुष्य का खूबसूरत स्वप्न होता है। उन्हें स्वप्नों को लेखिका ने स्वयं अपने दिल में जिया है। लेखिका भावनात्मक रूप से संवेदनशील है और यही वजह है कि उन्होंने बडे ही संवेदनशील तरीके से अपनी बातों को अपनी किताब में प्रस्तुत किया है। कुछ बातें जो दिल के करीब है मैं लेखिका ने अपने मन की बात को जैसा का वैसा ही लेखन में उतार दिया है उनके लेखन में कहीं भी आत्मश्लाघा, या आत्म प्रवंचना नहीं है, आत्म विश्लेषण होते हुए भी सब कुछ बड़ा खुला एवं स्पष्ट है। और बीती हुई बतिया शीर्षक की इस कृति में लेखिका बलजीत कौर उस कष्ट साध्य समय का भी उल्लेख करती है जब वह करोना जैसे भीषण संक्रमण से पीड़ित थी और उसे दौरान उन्होंने अपनी परिस्थितियों को बड़े ही दिल से संपूर्ण संवेदना और मर्म के साथ लिखने के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखा है पूरे विश्व के साथ इस किताब का पाठक भी उसे संक्रमण काल को याद करके नख से शिख तक अत्यंत भयभीत हो जाता है, ऐसे में लेखिका द्वारा उसे पीड़ा को अभिव्यक्त करने का दुरूह कार्य किया है, लेखिका को साधुवाद।

लेखिका ने मानवीय संबंधों, साथियों के साथ अंतरंग मित्रता और जीवन की विसंगतियों को अपनी लेखनी से बड़े ही रोचक तरीके से पाठकों के सामने रखा है। अपने आलेखों के बीच-बीच में बड़ी भोली,मासूम और मार्मिक कविताओं को भी उन्होंने इस किताब में समाहित किया है जो इस कृती की विशेषताओं को द्विगुणित करता है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि लेखिका गद्य और पद्य में समान रूप से पारंगत है और सिद्धहस्त भी। लेखिका का संवेदनशील, भावनाओं से परिपूर्ण लेखन है साहित्य में इनका भविष्य उज्जवल है, किताब में कुछ भाषाई त्रुटियां हैं और कुछ प्रूफ की गलतियां भी रह गई हैं जिन्हें अगले प्रकाशन में सुधार की आवश्यकता होगी। किताब आपके सामने होगी आप पढ़ेंगे आपको मर्मस्पर्शी अंतरंग स्मरण की भी बातों का आस्वाद प्राप्त होगा, ऐसा मैं दिल से महसूस करता हूं। शुभकामनाओं के साथ।

संजीव ठाकुर ,लेखक, चिंतक, समालोचक, कवि, रायपुर छत्तीसगढ़