हर विभाग के केंद्रीय बज़ट 2022 उपरांत सकारात्मक विश्लेषण वेबीनार से उत्साह का माहौल- पीएम द्वारा खुद बजट से हर क्षेत्र की प्रभावोत्पादकता बताना सराहनीय-एड किशन भावनानी
Monday, February 28, 2022
योजनाओं, परियोजनाओं बज़ट 2022 को रणनीतिक रोडमैप से धरातल पर पारदर्शिता से हितधारकों तक क्रियान्वयन करना चुनौतीपूर्ण कार्य
Sunday, February 20, 2022
मातृभाषाएं हमारी भावनाओं को संप्रेषित करने, एक दूसरे से जोड़ने, सशक्त बनाने, सहिष्णुता, संवाद एकजुटता को प्रेषित करने का अचूक अस्त्र व मंत्र है
वैश्विक स्तरपर अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 फ़रवरी 2022 को मनाए जा रहे पर्व पर इस साल की थीम का विषय, बहुभाषी सीखने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना- चुनौतियां और अवसर, है| इस साल का विषय बहुभाषी शिक्षा को आगे बढ़ाने और सभी के लिए गुणवत्ता शिक्षण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए प्रौद्योगिकी की संभावित भूमिका पर केंद्रित है। वर्तमान प्रौद्योगिकी और डिजिटल युग की प्रौद्योगिकी में आज शिक्षा में कुछ सबसे बड़ी चुनौतियों का समाधान करने की क्षमता है। यह सभी के लिए समान और समावेशी आजीवन सीखने के अवसरों को सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयासों में तेजी ला सकता है।
बुर्का, हिजाब और घुंघट सब गुलामी की निशानी
जब से मानव समाज की शुरुआत हुई है तब से लेकर अब तक औरतों को गुलाम बनाने की लगातार साजिश और कोशिशें होती रही है। मगर धीरे-धीरे मानव समाज ने अपनी पुरानी रूढ़ वादी परंपराओं को खत्म करने की कोशिश तो की मगर आज भी बहुत सी ताकत हैं, जो इन परंपराओं के पक्ष में खड़ी रहती है।
आज जो मुस्लिम समाज कर्नाटक के मुस्लिम लड़कियों के बुर्के और हिजाब के समर्थन में उतर रहा है। मैं उनसे सीधा सवाल करना चाहता हूं कि क्या आप आप नहीं चाहते कि आपके समाज की महिलाएं पुरानी रूढ़िवादी परंपराओं से मुक्त हो ? अगर आप चाहते हैं कि आपके समाज की महिलाएं आगे बढ़े, आपके कदम से कदम मिलाए और देश का नाम रोशन करें तो फिर आपको दो नाव में पैर नहीं रखना चाहिए बल्कि आपको रूढ़िवादी परंपराओं, गुलामी के प्रतीक वस्त्र आभूषणों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।
अगर आपको लगता है कि कर्नाटक में आपकी समाज की लड़कियां सही कर रही है तो इससे एक बात साफ होता है कि आप नहीं चाहते कि आपके समाज की लड़कियां गुलामी से मुक्त हो। अब आप मेरे से सवाल करेंगे या मेरे सवालों का जवाब देंगे कि यह तो हमारी संस्कृति का हिस्सा है तो भैया जो संस्कृति किसी व्यक्ति या किसी समाज को गुलाम बनाती है तो उस संस्कृति को नष्ट ही किया जाता है।
अब बात आती है उन बच्चों की जो कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं और उन्हें धार्मिक नारे लगाकर प्रताड़ित करना चाहते हैं। अपने सोशल मीडिया पर एक
कुछ लोग का कहना हैं कि स्कूल, कॉलेजों में यूनिफार्म होती है जो सबके लिए लागू होती है ऐसे में मुस्लिम लड़कियों का हिजाब पहनने का समर्थन करना संवैधानिक तौर पर गलत है।
अगर देश को संवैधानिक तौर पर चलना या चलाना है तो फिर हम सभी को अपनी धार्मिक विचारधारा को घर में बंद करके रखना होगा। आपको लग रहा होगा कि हम किसी विशेष समुदाय
खैर छोड़िए हमारा मुख्य विषय- हिजाब, घुंघट और बुर्का है। आज मुस्लिम समाज अपने ही समाज की औरतों के बुर्के के समर्थन में खड़ा है।
मुस्लिम समाज यह बताएं कि कौन से नेता, कौन से अभिनेता और कौन से पूंजीपतियों का परिवार बुर्खा और हिजाब पहनता है ? यही सवाल हिंदू समाज से भी है कि आपके समाज के कितने
अगर आपको अपने समाज में किसी चीज का विरोध करना ही है तो बुरी चीजों का विरोध करो। जैसे बढ़ता नशे का कारोबार, सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही नफरत, सरकार की गलत
- दीपक कोहली
Thursday, February 17, 2022
बाल श्रम की विभीषिका, बगले झांकती मानवाधिकार संस्थाएं
संविधान के अनुसार 18 साल से कम उम्र का बच्चा यदि घरेलू कामों से अलग अन्य कार्यों जैसे कारखाना, होटल हलवाई या अन्य जगह कार्य करता है तो उसे बाल श्रमिक माना जाता है। कानूनी रूप से बाल श्रम पर प्रतिबंध लगाया गया है। पर पूरे भारत सहित अन्य विकासशील देशों में बाल श्रम की बहुतायत पाई गई है। बाल श्रम केवल एक ही रूप में मौजूद नहीं है बल्कि कई अन्य रूपों में भी वह प्रचलित है, इसमें घर पर कार्य करने वाले घरेलू श्रमिकों चाय खाने-पीने की होटलों पर कार्य करते बच्चे पटाखा उद्योगों में दिन रात काम करते बच्चों के छोटे-छोटे शहरों में कचरा कूड़ा बीनते और भीख मांगते बच्चों से कार्य लिया जाना भी बाल श्रम माना जाता है। यह भी कानूनी रूप से अवैध ही है। बाल श्रम मूल रूप से भारत में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, कुपोषण तथा बेरोजगारी जैसे कारण के कारण परिवार के लोगों द्वारा स्वयं अपने बच्चों को बाल श्रम के दलदल में फसा दिया जाता है। इसके अतिरिक्त समाज में शिक्षा का अभाव, अंधविश्वास जागरूकता का अभाव तथा बच्चों के अधिकार के प्रति जानकारी का नितांत अभाव और बाल श्रम को लागू करने वाली संस्थाओं की कमजोरी के कारण बाल श्रम को बल मिलता है। बाल श्रम रोकने के लिए कानूनी प्रक्रिया में इतनी लंबी तथा महंगी होती है की इस प्रक्रिया पर रोक लगाना लगभग असंभव प्रतीत दिखाई देता है। कई परिवारों में बहुत बच्चे होने के कारण और परिवार के अभिभावकों की असामयिक मृत्यु अथवा बीमारी के कारण बच्चों पर ज्यादा जिम्मेदारी आने से बाल श्रम का सिलसिला शुरू होता है, और वह निर्बाध गति से आगे बढ़ता है। इसमें बच्चों का समाजिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, प्रशासनिक जैसे सभी स्तरों पर शोषण होता है। भारत में बाल श्रम इसीलिए भी प्रचलित है क्योंकि बाल श्रमिकों को वयस्क श्रमिक से आधे से भी कम पारिश्रमिक दिया जाता है। बाल श्रमिक बहुत कम दाम पर आसानी से उपलब्ध हो जाता है। इसलिए इस सिलसिले को रोकने का प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। बालकों के श्रम करने से उनमें मस्तिष्क का तनाव मानवी कुंठा तथा उन्हें दिग्भ्रमित करने की दिशा में कई स्तरों पर शोषण किया जाता है। इस तरह लाखों बच्चे सामाजिक बुराई के शोषण का शिकार होते हैं। बाल श्रम के कारण अनेक विसंगतियां के प्रमाण मिले थे जैसे मानव दुर्व्यवहार, बाल वेश्यावृत्ति जैसे अपराधों में बड़ी संख्या में वृद्धि होती है,और बाल श्रमिकों का जीवन एक दुर्घटना तथा अभिशाप बनकर रह जाता है । समाज के लिए कई परेशानियों का जन्म भी होता है। बाल श्रम करने के पश्चात भी बालकों बालिकाओं को पर्याप्त भोजन नहीं मिलने से वह कुपोषण के भी शिकार होते हैं, और बाद में कई बीमारियों के संवाहक भी बन जाते हैं। जो बालक बालिकाओं की जिंदगी के लिए अत्यंत खतरनाक एवं कष्ट दायक होता है। बाल श्रम रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा कई प्रयास किए बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम 1986 का यदि कड़ाई से पालन किया जाए तो बाल श्रम को रोका जा सकता है । इसका क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियां ही एकदम ढीली एवं संदेशों से परे नहीं है। इन एजेंसियों में नियोजक द्वारा क्रियान्वयन की जाने वाली एजेंसियों के अधिकारियों के साथ भ्रष्टाचार करके इसे लालफीताशाही की चादर ओढ़ा दी जाती है। ऐसे में लाखों बच्चे बाल श्रम की आग में झोंक दिया जाते हैं। भारत में बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम 1986 एवं प्राथमिक शिक्षा अधिकार 2009, राष्ट्रीय पोषण मिशन, राष्ट्रीय बाल श्रम निवारण योजनाएं बनाई गई है। इनके क्रियान्वयन में को की लेटलतीफी के कारण लाखों बच्चे अभी भी बाल श्रम में उलझे हुए हैं। अपनी जिंदगी को स्वयं अपने कंधों पर ढोने पर मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में दुनिया भर की मानव अधिकार संस्थाएं क्यों मौन है। इतने कानून बनने के बाद भी बाल श्रमिकों की संख्या हर वर्ष क्यों बढ़ते जा रही है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। बाल श्रमिकों पर जब भी संसद या विधायिका में प्रश्न उठाए जाते हैं तो मानव अधिकार की संस्थाएं क्यों बगले झांकने लगती है। बाल श्रमिक होना और बाल श्रम करवाना दोनों अलग-अलग मुद्दे हैं। बाल श्रमिक मजबूरी के कारण अपनी आजीविका चलाने के लिए बाल श्रमिक बनता है। पर इनको नियोजन में रखने वाली संस्थाओं पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। वरना बाल श्रमिक की विभीषिका दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती जाएगी और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे। बाल श्रमिकों की संख्या को तत्काल रोका जाना चाहिए और इन्हें देश की मुख्यधारा में शामिल किया जा कर देश के विकास में इनका सहयोग लिया जाना चाहिए। अन्यथा आज के ये बच्चे भविष्य के मजबूत नागरिक कैसे बन पाएंगे और एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण कैसे हो पाएगा।
संजीव ठाकुर, चिंतक, लेखक,