Wednesday, January 26, 2022

दुनिया का सबसे खूबसूरत दस्तावेज है भारतीय संविधान

                         - मुकेश बोहरा अमन

संविधान निर्माण में लगा 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का समय, 26 जनवरी 1950 को हुआ लागू

  दुनिया भर में भारत कई मायनों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । जिसमें भारतीय संविधान भी अपने आप में कई विशेषताओं को समेटे हुए है । भारत का संविधान भारत का सर्वाेच्च विधान है, जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर, 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी, 1950 से प्रभावी हुआ। ऐसे में 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है, वहीं 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस के रूप में हर्ष और उल्लास के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। भारतीय संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है। भारतीय संविधान दुनिया का सबसे खूबसूरत दस्तावेज है । जिसमें अनेकानेक खूबियां व विशेषताएं समाहित है । भारतीय संविधान में प्रस्तावना का आगाज हम भारत के लोग से होता है । जो यह साबित करता है कि भारत की जनता में ही सब कुछ निहित है ।

  भारतीय संविधान बहुत विशाल व विस्तृत नियमों, उपनियमों का एक ऐसा लिखित दस्तावेज है, जिसके अनुसार सरकार का संचालन किया जाता है। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र थे । जिनके नेतृत्व में भारतीय संविधान का निर्माण किया गया । वहीं संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे । डॉ. भीमराव आम्बेडकर को भारतीय संविधान का प्रधान वास्तुकार या निर्माता भी कहा जाता है। संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का समय लगा । मूल संविधान में भारतीय संविधान, हमारे लोकतांत्रिक आदर्शों, उद्देश्यों व मूल्यों का दर्पण है । संवैधानिक विधि देश की सर्वोच्च विधि है ।

  मूल भारतीय संविधान में 22 भागों में 395 अनुच्छेद तथा 8 अनुसूचियाँ थी । कालांतर भारतीय संविधान में समय-समय पर हुए संविधान संशोधनों से वर्तमान में भारतीय संविधान में 25 भागों में 470 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां है । भारत का मूल संविधान हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में हस्तलिखित है । जिसे प्रेम बिहारी रायजादा ने अपने हाथों से लिखा जिसके अंग्रेजी संस्करण में 146385 शब्दों का प्रयोग किया गया है । इस लिहाज से भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लम्बा लिखित संविधान है । भारतीय संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को दिल्ली संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सभा के अस्थायी अध्यक्ष डॉ. सच्चिानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में बुलाई गई ।

  भारतीय संविधान के निर्माण में सबसे अधिक भारत शासन अधिनियम 1935 का प्रभाव रहा है । जिसमें से तकरीबन 250 अनुच्छेद लिए गए । इसके अलावा अलग-अलग देशों  के संविधान से भी महत्वपूर्ण व उपयोगी व्यवस्थाओं को भारतीय संविधान में स्थान दिया गया है । जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, आयरलैंड, साउथ अफ्रीका, कनाडा, सोवियत संघ रूस, जापान, फ्रांस आदि देशों से अलग-अलग व्यवस्थाओं को भारतीय संविधान में जोड़ा गया है । और भारतीय संविधान को सशक्त व कारगर बनाया गया ।

  भारतीय संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हुआ लेकिन भारतीय संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया । इस उपलक्ष में प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस मनाया जाता है । वहीं संविधान को 26 जनवरी को लागू करने के पीछे भी विशेष कारण रहा है । 26 जनवरी 1930 को भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी जिसको महत्व देने को लेकर 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान विधिवत् लागू किया गया । हम वर्ष 2022 में भारतीय गणतंत्र का 73वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे है । जिसकी आप सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
 
मुकेश बोहरा अमन

Tuesday, January 4, 2022

बहरूपिया

जब हम छोटे थे तो याद आता हैं कि एक व्यक्ति आता था जो रोज ही नया रूप बना कर आता था।कभी हनुमानजी बन कर आता था तो कभी महाकाली का रूप ले कर आता था।कोई न कोई पात्र को ले कर उसी के उपर वेशभूषा कर घर घर जाता था और बदले में भिक्षा पाता था। दुकानों में भी वही स्वरूप बना कर भिक्षा पाता था।जिसे देखने बच्चे तो बच्चे बड़े भी खड़े हो जाते थे।क्या हम इसकी करोना से तुलना कर सकते हैं?पहले आया तो अनजाना सा किसीने भी न देखा न सुना था।आया तो तूफान सा था।जिस से डर ज्यादा लगा था ,काल्पनिक राक्षस सा था ,जिसका रूप और रंग की हम सिर्फ कल्पना ही कर के रह गए थे।वास्तविक रूप का अता पता नहीं था एक वायका सा था ,जो बातें जैसे हवा के साथ बह कर पूरे विश्व में फेल गई।लेकिन भिक्षा में न जानें क्या क्या के गया और पीछे छोड़ गया आर्थिक नुकसान,सभी देशों ने लॉकडाउन लगाया और इंसानों को बंद करके रख दिया।फिर थोड़ी राहत हुई ,सोचा कि अब गया लेकिन जब वह  फिर आया तो महा भयंकर रूप धर के आया तो विश्व के सभी देशों को आर्थिक,मंजिल और आर्थिक स्वरूप से ध्वंस कर कठूराघात कर गया।इस रूप ने तो आधे विश्व को अस्पतालों के दरवाजे पर पहुंचा दिया और कइयों को स्मशान के सुपुर्द कर दिया।इस भयंकर रूप  कइयों को मानसिक रूप से विक्षिप्त कर के गया तो एक डर के साएं से बाहर तो आए लेकिन आहत तो रह गई कि ये वापस आया तो क्या होगा।उसे नाम दिया गया डेल्टा,जो एक भय अंकित कर गया।

और आया ओमिक्रोन एक और भयावह स्वरूप जो हवा सा फैलता हैं।                       फिर एक बार सब को आतंकित करने आया ये रूप क्या असर छोड़ के जायेगा उससे सभी अनजान हैं।ये राक्षसी रूप बच्चों को ग्रसित करने आ रहा हैं ऐसी धारणाएं बंध रही हैं।वैसे देखें तो बच्चें ही हर देश का भविष्य हैं और भविष्य ही घायल हो गया तो कल क्या होने जा रहा हैं इसे समझना आसान हो जायेगा। स्वास्थ का नुकसान तो हैं ही लेकिन इसके परिणाम स्वरूप आर्थिक और मानसिक नुकसान होने से कोई नहीं रोक पायेगा।उत्पादों में कमी आ जायेगी,वह चाहे खेत हो या औद्योगिक हो,इसकी वजह से महंगाई खूब बढ़ जाएगी,भुखमरी और गरीबी बेहिसाब बढ़ जाएगी।
 वैसे विज्ञान कहता हे कि कोई भी दवाई की साइड इफेक्ट क्या और कैसी होगी उसका जायजा तभी पता लगता हैं जब १० साल उपयोग करके उसके द्वारा होने वाले लाभ और हानी का वैज्ञानिक तरीके से अवलोकन किया जाएं।अभी तो हम सिर्फ तत्कालीन लाभ के लिए दवाई  या वैक्सीन ले लेते हैं बाद में वयस्क,युवा और बच्चें जिन्होंने दवाईयां या वैक्सीन ली हैं उनके स्वस्थ के ऊपर इस सारवार क्या असर होगा ये तो सिर्फ समय ही बताएगा।
     अभी तो हमें इस बहरपिया बीमारी से बचने के लिए करोना अनुरूप व्यवहार का अनुसरण करके अपने आप को बचाना होगा ,यही एक रास्ता हैं कि हम बचें रहे।वैसे भी कई देशों पाश्चात्य देशों की जनसंख्या मिलाने के जितनी जनसंख्या होती हैं,उतनी जनसंख्या वाला अपने देश में आई ऐसी मुसीबतों से लड़ना आसान बात नहीं है।

जयश्री बिरमी
अहमदाबाद

डुप्लीकेट लोगों की डुप्लीकेट धरती

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा 

न जाने क्यों मुझे रह-रहकर मूर्धन्य 'की चिंता सताती रहती है। प्रदूषण से भरा  हर जगह हावी है। लगता है कभी-कभी 'ङ्’ अपने लुप्त होते उच्चारण की चिंता में आत्मदाह कर लेगा। न जाने कौन धीरे-धीरे शिरोरेखा को मिटाता जा रहा है। मौके-बेमौके खड़ी पाई को चुराता चला जा रहा है। नागरी के सारे अंक अपनी विलुप्तता का रोना अकेले में रोए जा रहे हैं। उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। मानो विदेशज के शब्दों ने देशज शब्दों को अंतरिक्ष में फेंक दिया है। यौगिक धातुओं के जमाने में हम स्टीलफाइबर सोडियम क्लोराइड के आदि हो चुके हैं। शुद्धता अब हमें कतई नहीं भाती। मिक्स्ड प्रवृत्ति को अपना स्वभाव बनाने के आदी हो चुके हैं।

दूरदर्शन के रामायण वाले हनुमान से नजर हटी तो बैटरी वाले हनुमान दिखाई दिए जो प्लास्टिक का पहाड़ उठाए पौराणिक ज्ञान को बाँचने का काम कर रहे हैं। बच्चों के हाथों में चल छैंया छैंया वाले प्लास्टिक के बने खिलौने वाले मोबाइलों की जगह असली मोबाइलों ने ले ली है, जो बड़ों की कद्र तो दूर उनके कहे को सो बोरिंग पकाऊ पिपुल कहकर आदर्श उवाचों को कचरे की पेटी में डालना अपना स्टेटस समझ रही है।  अब किसी भी घर में पुरानी नानियों के पहियों वाला काठ का नीला-पीला घोड़ा नहीं दिखता। हाइब्रिड अमरूदों ने असली अमरूदों का गला ऐसे घोंटा जैसे उसकी कोई पुरानी दुश्मनी हो। उस असली अमरूद की तरह असली धरती कब की लुप्त हो चुकी है। लोग डुप्लीकेट और धरती डुप्लीकेट हो चली है। सिर्फ छलावा ईमानदारी से किया जाता है।

आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते उड़ रहे हैं। अब घऱ में दादा की मिरजई टाँगने की कोई जगह नहीं बची है। न कोई ऐसा संग्रहालय है जहाँ पिता का वसूला माँ का करधन और बहन के बिछुए छिपाये जा सके। अब तो खिचड़ीठठेरामदारीलुहारकिताब सब सपने में आते हैं। वास्तविकता में इनका सामना किए अरसा बीत गया। अब न खड़ाऊ की टप-टप है न दातुन की खिच-खिच। और पीतल के लोटे का पीतल तो पिरॉडिक टेबल में बंधकर रह गया है, जिसे केवल एलिमेंट के नाम से पहचानना पड़ रहा है। अब गाँव में खेतजंगल में पेड़शहर में हवा, पेड़ों पर घोंसलेअखबारों में सच्चाईराजनीति में नैतिकताप्रशासन में मनुष्यतादाल में हल्दी खोजने पड़ते हैं। पहले की पीढ़ी लुप्तता की पीड़ा से मरी तो आज की पीड़ा वर्तमान पीढ़ी से मर रही है।

टीबी का गढ़ बनते देश को करनी होगी चिंता

- टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है।

अमित बैजनाथ गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक
करीब 140 साल पहले रॉबर्ट कोच ने ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) बैक्टीरिया की खोज की थी। इंसान की ओर से खोजी गई यह उन शुरुआती बीमारियों में से एक है, जिसके कारक स्पष्ट हैं। संक्रामक रोग होने से टीबी मौत का अहम कारण बनती है। सालाना एक करोड़ से अधिक लोग टीबी से संक्रमित होते हैं और 10 लाख से अधिक मौतें होती हैं। भारत पर टीबी का सबसे अधिक बोझ है। करीब 25 प्रतिशत मामले अकेले भारत से होते हैं और मौतें भी यहीं सबसे ज्यादा होती हैं। बीते कुछ वर्षों में भारत में टीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर विशेष जोर दिया गया है। इलाज के नए तरीके, पोषण सहायता के लिए वित्तीय प्रोत्साहन और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है। साथ ही आंकड़ों का व्यापक प्रबंधन हुआ है। इससे लोगों में जागरुकता भी आई है। हालांकि कोविड महामारी ने कई सफल प्रयासों पर पानी फेर दिया है।
     रिपोर्ट कहती हैं कि भारत जानलेवा संक्रामक महामारी टीबी का गढ़ बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की द ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में टीबी के मरीज दुनिया में सबसे ज्यादा हैं। ड्रग रेसिस्टेंट टीबी, टीबी की वह खतरनाक किस्म है, जिस पर दो सबसे ताकतवर एंटी टीबी ड्रग्स भी नाकाम साबित हो जाते हैं। दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञ इसे एक जिंदा बम और भयंकर स्वास्थ्य संकट का नाम दे चुके हैं। इससे भी अधिक टीबी एक ऐसी बीमारी है, जो आपके जीवन के सबसे उत्पादक काल यानी 15-59 आयु वर्ग के लोगों को अपनी चपेट में लेती है। इतना सब होने के बाद भी दबे पांव हमारे जीवन में दखल देने वाली इस महामारी को लेकर जनता में कोई खास चिंता नहीं है। वैज्ञानिक और शोधकर्ता भी कमजोर पड़े हुए हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि सरकारें इस पर बहुत कम पैसा खर्च कर रही हैं।
     टीबी पर लैंसेट कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 9,53,000 टीबी रोगी खो जाते हैं यानी या तो रोगी डायग्नोसिस के लिए नहीं आते या फिर वे रोगी जिन्हें टीबी होने का पता तो चला है, लेकिन उनकी सूचना दर्ज नहीं कराई गई। लैंसेट रिपोर्ट के मुताबिक, यदि प्राइवेट सेक्टर को पूरी तरह इस मुहिम में अपने साथ शामिल कर लिया जाए तो अगले 30 साल में भारत में 80 लाख जिंदगियों को बचाया जा सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2018 में टीबी की अधिसूचना नहीं देने को अपराध घोषित कर दिया यानी न केवल सरकारी बल्कि निजी चिकित्सकों को भी अपने पास आने वाले टीबी रोगियों की सूचना अनिवार्य रूप से देनी होगी, अन्यथा उन्हें जेल जाना पड़ सकता है। टीबी को खत्म करने का लक्ष्य साल 2025 तक रखा गया है। केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने सभी राज्यों को पत्र लिखा है। यह निर्णय अथॉरिटी के सदस्यों की अनुमति मिलने के बाद किया गया है।
     दुनियाभर में जहां कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए कई वैक्सीन बनाने पर चर्चा हो रही है, वहीं टीबी के खिलाफ हमारी जंग इतनी दयनीय है कि हम आज भी 100 साल पहले विकसित की गई वैक्सीन का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह वैक्सीन हमें बचाने में नाकाम भी साबित हुई है। पिछले 40 वर्षों में इसकी कोई नई दवा तक नहीं विकसित हो पाई है। इसके रिसर्च और फंडिंग में अधिकांश लोग रुचि नहीं लेते हैं। वजह यह है कि अधिकांश मरने वाले विकासशील देशों के होते हैं, विकसित देशों के नहीं। आज जहां कोरोना वायरस का यूरोप और अमेरिका में घातक प्रकोप है, वहीं टीबी को यूरोप के बहुत से हिस्सों में भुला दिया गया है। हालांकि इसे लेकर हाल के वर्षों में जागरुकता बढ़ी है, लेकिन फिर भी विकसित देशों में बहुत से इस गलतफहमी में जीते हैं कि टीबी का उन्मूलन हो चुका है और इसका जिक्र अब केवल किताबों में ही मिलता है।
     टीबी को पहचानने की चुनौतियां इससे निपटने में सबसे बड़ी बाधा हैं। इस रोग को पहचानने में देरी, खासकर एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी से पीड़ित मरीज तो एक डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक चक्कर काटता रहता है। कई बार तो रोग क्या है, इसकी सही जांच के लिए उसे दूसरे राज्यों तक दौड़ना पड़ता है। एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी तब होती है, जब टीबी के बैक्टीरिया शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे रीढ़, पेट, मस्तिष्क आदि को प्रभावित करते हैं। टीबी की तुलना में इसकी पहचान काफी मुश्किल है, क्योंकि अभी इस क्षेत्र में वैज्ञानिक सबूत मौजूद नहीं हैं। कुछ लोगों की तो समय रहते टीबी की पहचान हो जाती है। मामला तब जटिल हो जाता है, जब मरीज को ऐसी कई दवाओं के संवेदनशीलता परीक्षण से गुजरना पड़ता है, जिन्हें आमतौर पर कम इस्तेमाल किया जाता है। इन परीक्षणों के आधार पर तय किया जाता है कि टीबी की खास किस्म के लिए कौनसी दवाएं दी जाएं। टीबी के इलाज में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित होना एक बड़ी बाधा है। ऐसे में सही परीक्षण के अभाव में बहुत से लोगों का समय उन दवाओं को लेने में बर्बाद हो जाता है, जो कारगर ही नहीं हैं।
     टीबी से ग्रस्त लोग जानते हैं कि सामाजिक अलगाव और इससे जुड़ा कलंक क्या है। टीबी की संक्रामक प्रकृति की वजह से सामाजिक दुराव की प्रवृत्ति और मजबूत होती है। हालांकि जागरुकता की कमी की वजह से लोगों को यह पता नहीं है कि सही दवा लेने के दो हफ्तों से दो महीनों के बीच इसका मरीज संक्रामक नहीं रह जाता। टीबी के बहुत से रोगियों को उनके अपने घरों और व्यवसाय की जगह पर ही सामाजिक अलगाव और दुराव का सामना करना पड़ता है। टीबी ग्रस्त लोग न केवल अपना रोजगार खो बैठते हैं, बल्कि उनमें से कई के जीवन साथी और दोस्त भी सामाजिक गलतफहमी के कारण उनसे दूर हो जाते हैं। सामाजिक-आर्थिक संबल के नाम पर बहुत मामूली सी मदद सरकार से मिलती है।
     केंद्र सरकार टीबी के रोगियों को पोषण भत्ते के रूप में महज 500 रुपए महीने देती है। सरकारी लालफीताशाही और समय पर फंड न होने से कई बार वह मरीज को मिल ही नहीं पाता। भले ही टीबी कोरोना वायरस के जितनी संक्रामक नहीं है, लेकिन घातक उतनी ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दिल की बीमारियों और स्ट्रोक के साथ-साथ टीबी दुनियाभर में होने वाली मौतों की 10 प्रमुख वजहों में शामिल है। टीबी से जुड़ी मौतें टेलीविजन पर बहस का हिस्सा नहीं बनतीं। अधिकतर ये अखबार के अंदर के पन्नों में छिपकर रह जाती हैं। टीबी मरीजों की लंबी होती सूची महज आंकड़ों में सिमट जाती है। असल में टीबी को आज भी गरीबों की बीमारी के रूप में देखा जाता है, जो कि सच्चाई सेे परे है। सच यह है कि अमीर इसे छिपा लेते हैं और गरीब ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं हैं। टीबी के ऐसे हालातों के लिए हम सभी को सोचने की जरूरत है, तभी हालात में बदलाव और सुधार हो सकेंगे।

अमित बैजनाथ गर्ग
वरिष्ठ पत्रकार-लेखक