Thursday, October 8, 2020

आधुनिक समाज बनाम शार्टकट की बुनियाद 

जैसे-जैसे हम और हमारा समाज आधुनिकीकरण से रूबरू हो रहा है, वैसे-वैसे उसके जीने की कला और सोच में भी भारी परिवर्तन देखने को मिल रहा है। आज के दौर का हमारा आधुनिक समाज दौड़ कर जीतने के बजाय, तोड़ कर हराने में ज्यादा विश्वास करने लगा है। आम आदमी हो या विशिष्ट, सबकी निगाहों में सफलता का यह शार्टकट सबसे आसान और कारगर लगता दिख रहा है। जीवन जीने की कला का दौड़ हो या कैरियर बनाने की होड़ सब पर यह शार्टकट लगभग हावी नजर आ रहा है। राजनैतिक क्षेत्रों में तो यह शार्टकट 'तोड़ कर हराना' बहुत ही पुराना व कारगर पैतरा माना जाता रहा है, परंतु पहले के समय में इसके भी कुछ अपने कायदे-कानून हुआ करते थे। आज के आधुनिक दौर में इस शार्टकट का ना तो कोई नियम है और ना ही कोई कानून! मगर अपनाए खूब जा रहे हैं। इस आधुनिक समाज में कोई यह सोचने को तैयार नहीं है कि यह तोड़ कर जीतने का शार्टकट मानवता के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकता है। 

आधुनिक युग हो या आदिकाल, जीतने, पाने व छीनने की चाह, सबकी प्रवृत्ति एक जैसी ही रही है, मगर यह प्रवृत्ति दौड़ कर जीतने की ज्यादा रहती थी, ना कि तोड़ कर हराने में! आधुनिकीकरण ने हमें और हमारे समाज को इतना सुख प्रदान कर दिया है कि हम स्वतः ही आलसी हो गए, यही कारण है कि हमारे अंदर आराम पसंद भावना तोड़ कर हराने का भाव ज्यादा तीव्रगति से विकसित होता जा रहा है। आराम पसंद शार्टकट के रहते, दौड़ कर जीतने की जहमत आखिर कौन उठाए? यही भावना आज हमारे आधुनिक समाज में तीव्रता से फल-फूल रही है। आज आधुनिक समाज की यह पहली प्राथमिकता रही है कि फूट डालो राज करो! दौड़ कर जीतने की होड़ में समय का नुकसान आखिर कौन करे? जबकि यह शार्टकट मानवता के लिए कितना खतरनाक है, इस विचार कोई नहीं कर रहा, बस सब अपने धुन में मस्त शार्टकट की आधुनिकता का चोला धारण करने में लगे हैं। धरती पर मानव जीवन की उत्पत्ति एक लम्बी प्रक्रिया के अंतर्गत शुरू हुई और आज तक जारी है, परंतु सोच में इतना परिवर्तन हो गया कि मानव, आद्य प्राक् मानव, आदिमानव व आधुनिक मानव में बदल गया। इसने स्वयं अपनी सोच को आधुनिकीकरण से लैस कर, शार्टकट को अपनाना शुरू किया और आज हालत यह है कि सुख-सुविधाओं का वशीभूत यह आधुनिक समाज, हर क्षेत्र में शार्टकट चाहता है तथा वह प्राथमिक रूप से शार्टकट को ही वरीयता देता है। जबकि वह यह भूल जाता है कि यही शार्टकट सामने से भी तो अपनाया जा सकता है, क्योंकि वह भी तो इसी आधुनिक समाज का ही हिस्सा है! अक्सर यही भूल बड़ी हार का कारण भी बनता है, अतः तोड़ कर हराने से ज्यादा दौड़ कर जीतने को तवज्जो देना ही बेहतर होता है, हर जगह शार्टकट आपको सफल बना दे यह जरूरी नहीं, मगर दौड़ में आपको सफलता निश्चित ही प्राप्त होती है। 

 

अन्नदाता राजनैतिक दलों का मोहरा बना हुआ है

कृषि बिल  को लेकर हम सभी देख रहे है कि आज  पूरे देश में माहौल गरमाया हुआ है. विपक्ष जहां एक तरफ जोरदार ढंग से प्रदर्शन कर रहा है. तो वहीं पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के किसान भी इन बिलों को  लेकर खासे आक्रामक हैं। ध्यान से देखिए आप आज कहीं ना कहीं खेती -किसानी के लिए सोच- विचार कुछ ज्यादा ही अचानक बढ़ गया है । आज सिर्फ किसान और सरकारे ही नहीं बल्कि शहरों में रह रहे नौकरीपेशा, उद्योग धंधों में लगे और सामाजिक चिंताशील लोग भी कृषि पर विमर्श करते दिख रहे हैं। इससे देश में कृषि पर संकट की तीव्रता दिखे या ना दिखे लेकिन राजनीतिक दलों के संकट कितना है यह जरूर दिख रहे,दोस्त आज आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हमारे अन्नदाता के जीवन में कोई बदलाव तो नहीं आए हैं लेकिन राजनीतिक दल अपना हित साधने में जरूर सफल हो जाते हैं।

कृषि और किसानों के लिए क्या और कितना किया जाए, इस विषय पर पिछले दो दशकों में सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर खूब विचार विमर्श हुआ तथा दोनों ही स्तर पर विशेषज्ञ समितियों की ढेरों सिफारिशे हमारे सामने है। लेकिन दोस्त कृषि सुधार की हर योजना और उपाय की बात देश के सीमित संसाधनों पर आकर अटक जाती है। यह निष्कर्ष आज निकालना कतई गलत नहीं होगा कि देश के अंदर से कृषि के लिए संसाधन जुटाने की तमाम कोशिश  हो चुकी है या हो रही है और शायद इसीलिए कुछ समय से कृषि निर्यात बढ़ा कर बदहाल होती जा रही कृषि को राहत देने की कोशिशें दिख भी रही है। लेकिन वैश्विक बाजार में भारतीय कृषि उत्पादों की स्थिति बेहतर अभी तक नहीं हो पाई है शायद सरकार ने यह जो नया 3 दिन बिल हम किसानों के लिए लाया है ,इससे शायद हमारे अन्नदाता के जीवन में बदलाव आ सकें।

भारत शुरू से ही कृषि प्रधान देश है, लेकिन आजाद होते ही भारत के सामने सबसे बड़ा संकट पर्याप्त भोजन की व्यवस्था का ही था । उस समय खाद्य उत्पादन हमारी मांग के हिसाब से बहुत कम था। पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत में हम 47 लाख टन हम अनाज विदेशों से मंगा रहे थे। उसके 5 वर्ष बाद दोस्त हमने अपना उत्पादन बढ़ाकर हम अपना कृषि आयात घटाकर 10 लाख टन तक ले आए, लेकिन तीसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान दो युद्ध और गंभीर सूखे ने कृषि की कमर तोड़ दी और सन 1966 में भारत को अपनी आबादी की खाद्य जरूरत पूरी करने के लिए एक करोड़ टन अनाज आयात करना पड़ा। इस संकट से उबरने के लिए दोस्त उसी वक्त उन्नत बीजों के इस्तेमाल की योजना से हरित क्रांति की नींव रखी गई थी। आखिर खाद्य आत्मनिर्भरता का लक्ष्य हासिल हुआ और फिर कुछ भारतीय कृषि उत्पादों का निर्यात भी शुरू हुआ, जिसमें दोस्त गेहूं प्रमुख था। उस समय से लेकर आज तक भारत में कृषि उत्पादन औसतन बढ़ता ही जा रहा है लेकिन किसानों के जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं हुआ। देखा जाए तो आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत में जो खाद्य उत्पादन करीब 5 करोड़ टन था , वह आज 28 करोड़ टन तक पहुंच चुका है, लेकिन कृषि निर्यात उस हिसाब से नहीं बढ़ पाई है। आंकड़े देखे तो कृषि निर्यात के मामले में हम आज भी वैश्विक सूची में पहले 10 देशों में भी नहीं आते हैं। अगर हम देखें तो वैश्वीकरण के इस दौर में बाजार तलाशना भी इतना आसान नहीं है। हर देश प्रतिस्पर्धा में है, ऐसे में भारत प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए अभी तक निर्यात पर अलग-अलग सब्सिडी देकर अपना माल बाहर बेच रहा था। लेकिन पिछले कुछ समय से भारत पर अंतरराष्ट्रीय मंचों से यह दबाव बन रहा है कि हम अपने जिन उत्पादों का निर्यात बढ़ाने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं, उसे बंद कर दें। विश्व व्यापार संगठन में हमारी तो शिकायत भी दर्ज कराई गई है, लेकिन  अगर हम सब्सिडी बंद करते हैं तो विदेशों में भारतीय माल के दाम बढ़ जाते हैं। सब्सिडी हटाने के लिए दूसरे देशों का तर्क है कि वैश्विक बाजार में सभी उत्पादकों के लिए समान मौके होने चाहिए, सरकार के निर्यात पर सब्सिडी दे देने से दूसरे देशों के उत्पाद की बिक्री के मौके घट जाते हैं। आज वैश्विक व्यवस्था का यही दवा हमारे ऊपर है लेकिन हाल ही में लाए गए सरकार के यह तीनों बिल आखिर हमारे अन्नदाता के जीवन में किस प्रकार से सकारात्मक बदलाव लाते हैं यह तो वक्त बताएगा।

 

Tuesday, October 6, 2020

अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस पर ज्ञान के प्रकाश का दीप जलायें 

5 अक्तूबर को विश्व शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जीवन में सफलता का श्रेय शिक्षक को ही जाता है। कबीरदास जी कहते है कि बड़े-बड़े विद्वान शास्त्रों को पढ़कर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परंतु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नहीं मिलता और ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती है।

इस बात में कोई संदेह नहीं गुरु द्वारा दिखाया गया मार्ग ही सफलती की कुंजी है। आज से ठीक एक महीने पहले यानी 5 सितंबर को शिक्षक दिवस था, जिसे पूरे देश ने मनाया गया। हर साल ऐसा ही होता है। यहां हम आपको बता रहे हैं कि विशेषता एक होने के बावजूद दिन अलग-अलग क्यों हैं।

अंतरराष्ट्रीय शिक्षक दिवस संयुक्त राष्ट्र द्वारा वर्ष 1966 में यूनेस्को और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की हुई संयुक्त बैठक के कारण मनाया जाता है। उस बैठक में अध्यापकों की स्थिति को लेकर चर्चा की गई थी और सुझाव भी प्रस्तुत किए गए थे। इस दिन मुख्य रूप से कार्यरत अध्यापकों एवं सेवानिवृत्त शिक्षकों को उनके विशेष योगदान के लिए सम्मानित किया जाता है।

 

इस विशेष दिन भारत के पूर्व राष्ट्रपति और महान शिक्षाविद डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन का जन्म हुआ था। उनके जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। राधा कृष्णन पूरी दुनिया को स्कूल मानते थे। राधा कृष्णन का कहना था कि जब कभी भी कहीं से भी कुछ सीखने को मिले, तो उसे तभी अपने जीवन में उतार लेना चाहिए। वह अपने छात्रों को पढ़ाते वक्त उनकी पढ़ाई से ज्यादा उनके बौद्धिक विकास पर ध्यान देते थे।  

 

एक बार राधा कृष्णन के कुछ शिष्यों ने मिलकर उनका जन्मदिन मनाने का सोचा। इसे लेकर जब वे उनसे अनुमति लेने पहुंचे तो राधा कृष्णन ने उन्हें कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से सेलिब्रेट करने के बजाय शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए तो मुझे गर्व होगा। इसके बाद से ही 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। आपको बता दें, पहली बार शिक्षक दिवस 1962 में मनाया गया था।

 

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

'नोटा ' आज के लोकतंत्र में नेताविहीन राजनीतिक आंदोलन की संज्ञा है

अगर हम 2017 में हुए पांच विधानसभाओं के चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की बात करें तो सभी राज्यों में कई उम्मीदवारों की हार जीत में हमने देखा कि नोटा एक बहुत बड़ा कारण बनकर सामने आया था। इन विधानसभा चुनावों में नोटा को कुल नौ लाख छत्तीस हजार पांच सौ तीन  वोट मिले थे , दोस्त वोटों कि इस संख्या को किसी भी  सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि देश की आजादी के समय भारत में लोकतंत्र की स्थापना करते हुए जिस आम आदमी को इस लोकतंत्र की महत्वपूर्ण नीवं माना गया था , वह दोस्त हर 5 साल बाद इस भरोसे के साथ मतदान करता है कि चुनी जाने वाली सरकार उसके दुख दर्द को समझेगी और उसकी तरक्की के लिए हर संभव जरूरी कदम उठाएगी। किंतु दोस्त इस आम आदमी का भरोसा हर बार टूटता रहा और यह सिलसिला यथावत चला ही आ रहा है । बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, सभी दल और प्रत्याशी जनता को अपने अपने तरीके से लुभाने का प्रयास कर रहे हैं ।

लेकिन हम आम आदमी का भरोसा हर बार टूटता जा रहा है इसके चलते ही हम मतदाताओं के मन में रोष पनपता जा रहा है , क्योंकि चुनावों के दौरान हमारे समझ कोई विकल्प मौजूद नहीं पहले था, लेकिन कुछ वर्ष पहले हम सभी को नोटा के रूप में एक ऐसा विकल्प मिला, जिसके जरिए दोस्त हम चुनाव में अपनी नापसंद वाले उम्मीदवारों को नकार सकते हैं। पिछले वर्ष भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जिस प्रकार करीब 12 लाख मतदाताओ ने सभी उम्मीदवारों को खारिज करते हुए नोटा के विकल्प को चुना , बिहार में चुनावी बिगुल बज जाने के कारण दोस्त नोटा एक बार फिर चर्चा में है और ऐसे में लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता पर चर्चा करना भी जरूरी ही है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि चुनाव में जहां एक-एक वोट कीमती होता है, वहां इन 12 लाख नोटा वोटों का कितना महत्व रहा होगा। नोटा का मतलब होता है कि नॉन ऑफ द अबॉब यानी कि दोस्त इनमें से कोई भी नहीं। अब आप सोच सकते हो कि लोकतंत्र में सरकार बनाने के लिए जहां एक-एक वोट इतने कीमती होते हैं वहां नोटा जैसा विकल्प क्यों लाया गया? आपको बता दें कि वर्ष 2009 में चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए नोटा विकल्प उपलब्ध कराने की मनसा जाहिर की थी और एक संस्था है जिसका नाम है पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने भी  इसके समर्थन में अदालत में एक जनहित याचिका दायर की थी। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितंबर 2013 को ऐतिहासिक निर्णय में चुनाव आयोग को ईवीएम में नोटा बटन उपलब्ध कराने का आदेश देते हुए कहा कि नोटा का बटन देने से राजनीतिक दलों पर भी अच्छे चुनाव प्रत्याशी खड़े कराने का दबाव रहेगा। दोस्त यह सच है कि इससे कहीं ना कहीं राजनैतिक दल पहले से ज्यादा जनता के हितों के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले प्रत्याशी को ही चुनाव में प्रत्याशी बनाने का प्रयास करेंगे। आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने सबसे पहले दिसंबर 2013 में छत्तीसगढ़ ,मिजोरम ,राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में ईवीएम में नोटा बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए , ताकि चुनाव में अपनी पसंद का कोई भी प्रत्याशी ना होने पर मतदाता इस बटन का प्रयोग कर सकें। उसके बाद हमने देखा 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भी नोटा का इस्तेमाल किया गया और यह तब करीब 60 लाख लोगों ने नोटा के विकल्प को चुना , जोकि 21 पार्टियों को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा था। अदालत के समक्ष भी यह गंभीर सवाल उठाया गया था कि यदि मतदाताओं को चुनाव के दौरान कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता है तो वे अपना मत आखिर किसे दें? वैसे इसमें यह भी ऐतिहासिक निर्णय लिया  गया है कि अगर किसी भी सीट पर नोटा विजयी हो जाता है तो ऐसी स्थिति में वहां सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हो जाएंगे और फिर वह चुनाव दोबारा कराया जाएगा। दोस्त चुनाव आयोग के इस क्रांतिकारी कदम से आमजन की मतदान प्रक्रिया में आज ज्यादा से ज्यादा भागीदारी बढ़ने की उम्मीदें जगी है। हालांकि दोस्त यह विडंबना ही है कि चुनावों  में मतदान का फीसद बढ़ाने के लिए जहां मतदाताओं को जागरूक करने के प्रयास किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ देखे तो पिछले 5 वर्षों से ईवीएम में नोटा का उपयोग होने के बावजूद मतदाताओं को नोटा की पर्याप्त जानकारी देने और कोई भी उम्मीदवार पसंद ना आने की स्थिति में नोटा का बटन दबाने के लिए प्रोत्साहित करने के कोई प्रयास जिस प्रकार से होना चाहिए वैसा  नहीं हो रहा है। फिर भी दोस्त आज नोटा जिस प्रकार से लोकप्रिय होता जा रहा है, उससे देखा जाए तो लोकतंत्र मे नोटा की सार्थकता निरंतर बढ़ रही है। अब सवाल यह है कि आखिर हमारे देश में चुनाव प्रक्रिया में नोटा की जरूरत ही क्यों पड़ी? दोस्त किसी भी राजनीतिक दल का एकमात्र उद्देश्य यही रहता है कि वह ऐसे व्यक्ति को ही अपना प्रत्याशी बनाए जो किसी भी प्रकार चुनाव में जीत हासिल कर सके, भले ही उसका चाल, चरित्र, योग्यता कैसी भी क्यों ना हो। 

आज हम सब देख रहे हैं कि अधिकांश प्रत्याशी धनबल बाहुबल और भाई भतीजावाद के प्रभाव से किसी भी पार्टी का टिकट हासिल करने में सफल हो जा रहे हैं ,और ऐसे उम्मीदवारों में भ्रष्ट, बेईमान, दागी एवं बागी किस्म के टिकट धारियों  की बड़ी संख्या होती जा रही है ।

ऐसे में दोस्त मतदाता के समक्ष दो ही विकल्प होते हैं, पहला तो यही कि उन तमाम प्रत्याशियों में से उस प्रत्याशी को अपना मत दें, जो उसकी नजर में सबसे कम खराब छवि का हो और दूसरा विकल्प यह है कि हम अच्छा प्रत्याशी नहीं होने के कारण वोट डालने ही नहीं जाए। दोस्त लोकतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की अधिक से अधिक भागीदारी के लिए ही एक अन्य विकल्प पर विचार किया गया है जिसका यहां मैं चर्चा कर रहा हूं नोटा का जिससे किसी मतदाता को ही प्रत्याशी पसंद ना आने पर सभी को नकार सके ,लेकिन मतदान करने जरूर जाएं।

अगर हम कहे की नोटा एक नेता विहीन राजनीतिक आंदोलन है, जिसकी राजनीति में स्वच्छता एवं शुचिता बनाने के लिए आज के कटुतापूर्ण  और घृणित राजनीतिक माहौल में सख्त जरूरत है , तो कहीं से भी गलत नहीं होगा ।आप सभी से विनम्र निवेदन है कि वोट डालने जरूर जाएं लेकिन वोट उन्हीं को दें जिनको वोट करने का आपका आत्मा और दिल कहे ना तो विकल्प के रूप में हमारे पास नोटा है।।