अगर हम 2017 में हुए पांच विधानसभाओं के चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की बात करें तो सभी राज्यों में कई उम्मीदवारों की हार जीत में हमने देखा कि नोटा एक बहुत बड़ा कारण बनकर सामने आया था। इन विधानसभा चुनावों में नोटा को कुल नौ लाख छत्तीस हजार पांच सौ तीन वोट मिले थे , दोस्त वोटों कि इस संख्या को किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि देश की आजादी के समय भारत में लोकतंत्र की स्थापना करते हुए जिस आम आदमी को इस लोकतंत्र की महत्वपूर्ण नीवं माना गया था , वह दोस्त हर 5 साल बाद इस भरोसे के साथ मतदान करता है कि चुनी जाने वाली सरकार उसके दुख दर्द को समझेगी और उसकी तरक्की के लिए हर संभव जरूरी कदम उठाएगी। किंतु दोस्त इस आम आदमी का भरोसा हर बार टूटता रहा और यह सिलसिला यथावत चला ही आ रहा है । बिहार में चुनावी बिगुल बज चुका है, सभी दल और प्रत्याशी जनता को अपने अपने तरीके से लुभाने का प्रयास कर रहे हैं ।
लेकिन हम आम आदमी का भरोसा हर बार टूटता जा रहा है इसके चलते ही हम मतदाताओं के मन में रोष पनपता जा रहा है , क्योंकि चुनावों के दौरान हमारे समझ कोई विकल्प मौजूद नहीं पहले था, लेकिन कुछ वर्ष पहले हम सभी को नोटा के रूप में एक ऐसा विकल्प मिला, जिसके जरिए दोस्त हम चुनाव में अपनी नापसंद वाले उम्मीदवारों को नकार सकते हैं। पिछले वर्ष भी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जिस प्रकार करीब 12 लाख मतदाताओ ने सभी उम्मीदवारों को खारिज करते हुए नोटा के विकल्प को चुना , बिहार में चुनावी बिगुल बज जाने के कारण दोस्त नोटा एक बार फिर चर्चा में है और ऐसे में लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता पर चर्चा करना भी जरूरी ही है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि चुनाव में जहां एक-एक वोट कीमती होता है, वहां इन 12 लाख नोटा वोटों का कितना महत्व रहा होगा। नोटा का मतलब होता है कि नॉन ऑफ द अबॉब यानी कि दोस्त इनमें से कोई भी नहीं। अब आप सोच सकते हो कि लोकतंत्र में सरकार बनाने के लिए जहां एक-एक वोट इतने कीमती होते हैं वहां नोटा जैसा विकल्प क्यों लाया गया? आपको बता दें कि वर्ष 2009 में चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए नोटा विकल्प उपलब्ध कराने की मनसा जाहिर की थी और एक संस्था है जिसका नाम है पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने भी इसके समर्थन में अदालत में एक जनहित याचिका दायर की थी। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितंबर 2013 को ऐतिहासिक निर्णय में चुनाव आयोग को ईवीएम में नोटा बटन उपलब्ध कराने का आदेश देते हुए कहा कि नोटा का बटन देने से राजनीतिक दलों पर भी अच्छे चुनाव प्रत्याशी खड़े कराने का दबाव रहेगा। दोस्त यह सच है कि इससे कहीं ना कहीं राजनैतिक दल पहले से ज्यादा जनता के हितों के लिए हमेशा तत्पर रहने वाले प्रत्याशी को ही चुनाव में प्रत्याशी बनाने का प्रयास करेंगे। आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने सबसे पहले दिसंबर 2013 में छत्तीसगढ़ ,मिजोरम ,राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में ईवीएम में नोटा बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए , ताकि चुनाव में अपनी पसंद का कोई भी प्रत्याशी ना होने पर मतदाता इस बटन का प्रयोग कर सकें। उसके बाद हमने देखा 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भी नोटा का इस्तेमाल किया गया और यह तब करीब 60 लाख लोगों ने नोटा के विकल्प को चुना , जोकि 21 पार्टियों को मिले कुल वोटों से भी ज्यादा था। अदालत के समक्ष भी यह गंभीर सवाल उठाया गया था कि यदि मतदाताओं को चुनाव के दौरान कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता है तो वे अपना मत आखिर किसे दें? वैसे इसमें यह भी ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है कि अगर किसी भी सीट पर नोटा विजयी हो जाता है तो ऐसी स्थिति में वहां सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हो जाएंगे और फिर वह चुनाव दोबारा कराया जाएगा। दोस्त चुनाव आयोग के इस क्रांतिकारी कदम से आमजन की मतदान प्रक्रिया में आज ज्यादा से ज्यादा भागीदारी बढ़ने की उम्मीदें जगी है। हालांकि दोस्त यह विडंबना ही है कि चुनावों में मतदान का फीसद बढ़ाने के लिए जहां मतदाताओं को जागरूक करने के प्रयास किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ देखे तो पिछले 5 वर्षों से ईवीएम में नोटा का उपयोग होने के बावजूद मतदाताओं को नोटा की पर्याप्त जानकारी देने और कोई भी उम्मीदवार पसंद ना आने की स्थिति में नोटा का बटन दबाने के लिए प्रोत्साहित करने के कोई प्रयास जिस प्रकार से होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा है। फिर भी दोस्त आज नोटा जिस प्रकार से लोकप्रिय होता जा रहा है, उससे देखा जाए तो लोकतंत्र मे नोटा की सार्थकता निरंतर बढ़ रही है। अब सवाल यह है कि आखिर हमारे देश में चुनाव प्रक्रिया में नोटा की जरूरत ही क्यों पड़ी? दोस्त किसी भी राजनीतिक दल का एकमात्र उद्देश्य यही रहता है कि वह ऐसे व्यक्ति को ही अपना प्रत्याशी बनाए जो किसी भी प्रकार चुनाव में जीत हासिल कर सके, भले ही उसका चाल, चरित्र, योग्यता कैसी भी क्यों ना हो।
आज हम सब देख रहे हैं कि अधिकांश प्रत्याशी धनबल बाहुबल और भाई भतीजावाद के प्रभाव से किसी भी पार्टी का टिकट हासिल करने में सफल हो जा रहे हैं ,और ऐसे उम्मीदवारों में भ्रष्ट, बेईमान, दागी एवं बागी किस्म के टिकट धारियों की बड़ी संख्या होती जा रही है ।
ऐसे में दोस्त मतदाता के समक्ष दो ही विकल्प होते हैं, पहला तो यही कि उन तमाम प्रत्याशियों में से उस प्रत्याशी को अपना मत दें, जो उसकी नजर में सबसे कम खराब छवि का हो और दूसरा विकल्प यह है कि हम अच्छा प्रत्याशी नहीं होने के कारण वोट डालने ही नहीं जाए। दोस्त लोकतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की अधिक से अधिक भागीदारी के लिए ही एक अन्य विकल्प पर विचार किया गया है जिसका यहां मैं चर्चा कर रहा हूं नोटा का जिससे किसी मतदाता को ही प्रत्याशी पसंद ना आने पर सभी को नकार सके ,लेकिन मतदान करने जरूर जाएं।
अगर हम कहे की नोटा एक नेता विहीन राजनीतिक आंदोलन है, जिसकी राजनीति में स्वच्छता एवं शुचिता बनाने के लिए आज के कटुतापूर्ण और घृणित राजनीतिक माहौल में सख्त जरूरत है , तो कहीं से भी गलत नहीं होगा ।आप सभी से विनम्र निवेदन है कि वोट डालने जरूर जाएं लेकिन वोट उन्हीं को दें जिनको वोट करने का आपका आत्मा और दिल कहे ना तो विकल्प के रूप में हमारे पास नोटा है।।