Saturday, October 3, 2020

भारतीय सेना को अपनी सेकुलर पहचान पर गर्व है

पिछले कुछ दिनों में पाकिस्तान द्वारा भारतीय सेना के खिलाफ और विशेष रूप से सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) में तैनात वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल तरनजीत सिंह के खिलाफ राज्य प्रायोजित दुर्भावनापूर्ण सोशल मीडिया अभियान चलाया गया। देश के भीतर धर्म आधारित असहमति को भड़काने में लगातार असफल होने के बाद पाकिस्तान हताश है। उसने अब भारतीय सेना के भीतर विभाजन की कोशिश कर रहा है।


भारतीय सेना संस्थान को बदनाम करने के ऐसे कुत्सित प्रयासों को स्पष्ट रूप से खारिज करती है।


भारतीय सेना एक धर्मनिरपेक्ष संगठन है, और इसके सभी अधिकारी, सैनिक अपने धर्म, जाति, पंथ या लिंग का ख्याल किए बिना राष्ट्र की सेवा करते हैं।



पीड़ा

क्या कहूं बहुत ही पीड़ा है

ये हृदय भयानक जलता है

इस जग में ऐसा घोर भयानक

अधम कर्म क्यों पलता है

क्यों बार-बार नारी का पावन

आंचल मैला होता है

सुन घोर भयानक कृत्यों को

पत्थर का मन भी रोता है

घनघोर अधम इन पापों का

क्या कोई भी उपचार नहीं

इन दुष्टों, नीचों, अधमों का

होता अब क्यों संहार नहीं

यूं भीड़ जुटाकर, शोक मनाकर

चुप हो जाएंगे बस हम

कुछ दिन ऐसे ही रो लेंगे

पर पाप कभी न होंगे कम

 

रंजना मिश्रा ©️®️

कानपुर, उत्तर प्रदेश

 

 

हमारी बीमारी को आदर्श नहीं चाहिए, हम झेल लेंगे! 

आदर्श गाँव के बारे में तो सबने सुना ही होगा कि किसी रियायतदार के हाथ एक गाँव को गोद लिया जाता है, मगर हमारा गाँव अपंग, अनाथ तो नहीं! कि उसे गोद लेना पड़े। हम अपनी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक सभी बीमारियों से निपटने में स्वयं सक्षम हैं। देखा नहीं है क्या? कि जब हमारे बीच अनबन होती है, तो हम गाली-गलौच से अनबन का निपटारा कर ही लेते हैं। इससे भी अगर बात नहीं बनती तो लाठी-डंडों से समझौता हो ही जाता है, ऐसे में जब हम अपने मामलों को स्वयं येन-केन-प्रकारेण निपटा ही लेते हैं, तो हमारे गाँव को पुलिस स्टेशन जैसे आदर्श संरक्षण की क्या आवश्यकता? हमारा गाँव तो स्वयं में ही एक आदर्श है कि अपने मामलों को स्वयं निपटा लेता है। बाहरी हस्तक्षेप हमें बर्दाश्त नहीं! क्योंकि हमारा गाँव परिवार सरीखा है, अपंग, अनाथ नहीं कि कोई आए और उसे गोद लेकर आदर्श बनाए। चलो एक बार यह मान भी लेते हैं कि हमारे गाँव को आदर्श गाँव बनाने की जरूरत है, पर क्या यह बताएंगे? कि यह आदर्श गाँव बनाने की जरूरत क्यों केवल चुनावी दंगलों में ही महसूस होती है? क्या चुनावी दौर से पहले व बाद हमारा गाँव अपंग व अनाथ नहीं हो सकता? 

यह एक गाँव है, साहेब! यह अपना अच्छा-बुरा सब समझता भी है, निपटता भी है, यह कोई दूध पीता बच्चा नहीं कि खिलौना दिखाकर बहका लोगे और यह गोद में कूद पड़ेगा। आदर्श के नाम की लॉलीपॉप अब बहुत चूस ली हमनें, अब हकीकत का विकास चाहिए हमें, न कि महज आदर्श गाँव का तमगा! हमारे गाँव को ऐसे आदर्शवादी अस्पताल की जरूरत नहीं, जो लाश के भी पैसे बनाते हों! हमारे गाँव में तमाम नीम-हकीम, झोलाछाप डॉक्टर व दाई हैं। और तो और हमारे गाँव की दाई तो होशियार व बुद्धिमान भी खूब है, अगर रात में मृत्यु हो तो सुबह ही प्रमाणित करती हैं, क्योंकि उसे गाँव वालों की चिंता है, वह गाँव वालों की रात की नींद खराब करना नहीं चाहती। हमारे गाँव में स्कूल की भी कोई कमी नहीं है, मास्टर जी दिल खोलकर शिक्षा प्रदान करवा रहे हैं, फिर रिजल्ट खराब आए तो यह शिक्षार्थी की गलती, ना कि शिक्षक की! अब आज गाँव आदर्श हुआ नहीं कि मास्टर जी की पेशी, नेता जी टांग पर टांग चढ़ाए कुर्सी पर और मास्टर जी खड़े हो टुकुर-टुकुर निहारे जा रहे बेचारे। यह दशा अगर आदर्श गाँव को परिभाषित करे तो नहीं चाहिए, हमें आदर्श गाँव! हमारी बीमारी को हम येन-केन-प्रकारेण आज तक ठीक करते आए हैं और आगे भी कर ही लेंगे! 

 

जैविक और प्राकृतिक कृषि में सुनहरा भविष्य 

देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं यह सेक्टर 50 फीसद से ज्यादा आबादी को रोजगार भी उपलब्ध कराता है। इसके अलावा हाल के वर्षों में जिस तरह से कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण हुआ है, इसमें नई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़ा है। पारंपरिक खेती के साथ-साथ आर्गेनिक और इनोवेटिव फार्मिंग हो रही है, उसने एग्रीकल्चर के प्रति समाज और खासकर युवाओं का नजरिया काफी हद तक बदला है। यही कारण है कि बीते कुछ समय में आईआईटी और आईआईएम से पास आउट कई युवाओं ने मल्टीनेशनल कंपनियों का जॉब छोड़कर एग्रीकल्चर और एग्रीबिज़नस की ओर रुख किया है।

 

जैविक खेती का जिक्र तो आजकल बहुत हो रहा है, लेकिन सवाल यह है कि किसी को इसमें करियर बनाना है, तो वह क्या करे। गौरतलब है कि यह ऐसी खेती है, जिसमें सिंथेटिक खाद, कीटनाशक आदि जैसी चीजों के बजाय तमाम आर्गेनिक चीजें जैसे गोबर, वर्मी कम्पोस्ट, बायो फर्टिलाइजरस, क्रॉप रोटेशन तकनीक आदि का इस्तेमाल किया जाता है। कम जमीन में कम लागत में इस तरीके से पारंपरिक खेती के मुकाबले कहीं ज्यादा उत्पादन होता है। यह तरीका फसलों में जरुरी पोषक तत्वों को संरक्षित रखता है और नुकसानदेह केमिकल्स से दूर रखता है। साथ ही यह पानी भी बचाता है और जमीन को लम्बे समय तक उपजाऊ बनाये रखता है। यह पर्यावरण संतुलन बनाये रखने में मददगार है।

 

कृषि वैज्ञानिक आपकी जमीन की जांच करेंगे और यह तय करेंगे कि इसकी मिट्टी किस तरह की फसल के लिए अच्छी है। इसके बाद आपका प्रोजेक्ट कृषि विभाग में पास होने के लिए भेज दिया जायेगा। आर्गेनिक फार्मिंग के लिए तकरीबन हर राज्य में सरकार 80 से 90 फीसद तक सब्सिडी देती है। आज के समय में जो भी कंपनी किसानों के साथ बिज़नस ट्रांजेक्शन कर रही हैं, फिर चाहे वह खाद्यान्न, फल, फूल से जुड़ा हो या किसी सर्विस से, उसे एग्रीबिजनेस सेक्टर में शामिल किया जाता है। इसी तरह बीज, कीटनाशक, एग्रीकल्चर इक्विपमेंट की सप्लाई, एग्री-कंसल्टेंसी, एग्रो-प्रोडक्ट की स्टॉकिंग, फसल का बीमा कराने या खेती के लिए लोन देने का काम भी एग्रीबिजनेस के अंतर्गत आता है। एग्री-प्रोडक्शन में इन्वेस्टमेंट से लेकर उसकी मार्केटिंग तक का काम एग्री-बिज़नस कहलाता है।

 

भारत का एग्रीकल्चर सेक्टर आज सिर्फ अनाजों के उत्पादन तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि इसमें बिज़नस के अवसर भी काफी बढ़ चुके हैं। फसलों की हार्वेस्टिंग से लेकर प्रोसेसिंग, पैकेजिंग, स्टोरेज और ट्रांसपोर्टेशन में काम करने के लिए कई सारे मौके पैदा हुए हैं। इसके अलावा एडवांस टेक्नोलॉजी के आने से फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री और फ़ूड रिटेल सेक्टर में अनेक प्रकार के रोजगार सृजित हुए हैं, उन्हें मल्टीनेशनल कंपनियों में अच्छे पे-पैकेज पर रखा जा रहा है। इसके अलावा, एग्रीकल्चर और इससे जुड़े फील्ड के क्वालिफाइड यूथ के लिए वेयरहाउस, फ़र्टिलाइज़र, पेस्टिसाइड्स, सीड और रिटेल कंपनी में तमाम तरह के विकल्प सामने आ चुके हैं।

 

कृषि अब पूरी तरह से मानसून पर निर्भर नहीं है। वैज्ञानिक तरीके से अगर खेती की जाये, तो फसल भी अच्छी होती है और पानी भी कम लगता है। पहले जैसे सूखे के हालात अब नहीं पैदा होते। अब बारिश के पानी का स्टोरेज भी बेहतर तरीके से किया जाता है। इससे बारिश कम होने पर भी फसलों को पर्याप्त पानी मिल जाता है।

 

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

शोध प्रशिक्षक एवं साहित्यकार