वर्तमान हालात यह है कि चारों तरफ त्राहि-त्राहि का उठता हुआ वीभत्स शोर और इस वैश्विक महामारी का पीड़ादायक दंश अब झेलना अपने आप में एक चुनौती पूर्ण कार्य हो गया है। सम्पूर्ण जन-जीवन कोरोना अर्थात कोविड - 19 रूपी महामारी से अस्त-व्यस्त हो गया है। ऊपर से हमारी प्रकृति का यह रौद्र रूप तो जन-मानस पर पूर्णतः आघात करने को अमादा है। बिन मौसम के यह बरसात और दिल दहला देने वाले भारी-भरकम ओले भी अब अन्नदाताओ से रही गई कसर निकाल रहे हैं।
ऐसे में सबसे ज्यादा अगर किसी के मन-मस्तिष्क पर आघात लगा है तो वह हमारे अन्नदाता ही हैं, जो एक तरफ कोरोना से उपजे लॉकडाउन की वजह से त्रस्त तो हैं ही मगर दूसरी तरफ खराब मौसम के चलते फसलों की बर्बादी से यह भूखे मरने के कगार पर खड़े हो गए हैं। बरसात के साथ-साथ एक-एक किलोग्राम के ओले जहां भी गिरेंगे सोचिए वहां का मंजर क्या होगा।
ऐसे में हम हमारे अन्नदाताओ से उम्मीद कैसे लगा सकते हैं कि इस विकट घड़ी में वह अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करें जबकि परिस्थितियां एक अच्छी उपज के बिल्कुल विरूद्ध हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है यहाँ की लगभग 53-55% जनसंख्या कृषि से ही जीवनयापन करती है और कृषि का भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान 15% का है। अन्नदाताओ की सम्पूर्ण जीवन रेखा उनकी फसलों पर ही निर्भर रहती है। यही इनके भरण-पोषण का आधार है जब यही नहीं होगा तो फिर अन्नदाता कहाँ जाएगा किससे गुहार लगाएगा।
आज परिस्थितियां बद से बद्तर होती जा रही हैं "कोरोना के कहर और प्रकृति की मार" से आखिर अन्नदाताओ को कौन बचाएगा। अन्य मुद्दों पर राजनीति काफी चर्चे में है पर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाने वाली "कृषि क्षेत्र" के पालक अन्नदाताओ पर न कोई विशेष मुद्दे हैं ना ही कोई विशेष व्यवस्थाएं। मजदूर दिवस का भूखा नहीं साहेब मजदूर को खाने की भूख है!