Sunday, November 17, 2019

कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक अपराध

  ''जन्म दिया समाज को जिसने, 
   कोई सम्मान नहीं इस तल पे।
बन गई वह भी अछूती,
   पैदा हुई जो लड़की बनके।।''
यह बहुधा कहा गया है कि जीवन के युद्ध में जिसको कि मनुष्य परिस्थितियों के विरुद्ध लड़ता है, नारी की भूमिका द्वितीय पंक्ति की रहती है, यह बात निश्चित ही महत्वपूर्ण है किन्तु आज हम पुरुष और नारी में कोई भेद नहीं करते हैं। जहां तक दोनों की क्षमता का प्रश्न है, यह सिद्ध हो चुका है कि नारी की क्षमताओं का कुल योग पुरुष की क्षमताओं के कुल योग से कम नहीं, किन्तु हम देखते हैं कि हमारे समाज में नारी की स्थिति वह नहीं है जो होनी चाहिए। 
वही महज पुत्र की चाहत में कन्या भू्रणों की गर्भ में हत्या होने लगी है। परिवार में बच्ची का जन्म एक निराशा का अवसर होता है जबकि लड़के का जन्म आनंद और उत्सव मनाने का 1 सामाजिक जीवन का रथ एक पहिए से नहीं चल सकता, किन्तु फिर भी न जाने क्यों दूसरे पहिए के महत्व की पहचान कम है।
सामाजिक प्रभाव -
कन्या भ्रूण हत्या एक ऐसी समस्या बन चुकी है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। कन्या भ्रूण हत्या पर प्रशासन अंकुश लगाने में नाकाम है। स्त्री - पुरुष का आनुपातिक संतुलन बिगड़ रहा है। आंकड़ो पर यदि निगाह डाली जाए तो एक हजार पुरुष में 898 महिलाएँ हैं। कन्या भ्रूण हत्या में अनपढ़ - गंवार नहीं बल्कि उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोग अधिक शामिल हैं। अब पढ़े - लिखे सम्पन्न परिवारों में भी बालिका अवांछित मानी जाती है। आखिर कब थमेगी कन्या भ्रूण हत्या? कैसे बदलेगा सामाजिक चिंतन?
प्रस्तुत समस्या का कारण-
यदि हम कारण की तरफ मुख करेंगे तो इसका मुख्य कारण अपनी संस्कृति में ही पाऐंगे। दहेज देने की प्रथा। माता-पिता जन्म से ही कन्या को एक ऋण की तरह देखते हैं इसलिए उसकी असमय मृत्यु में ही वह अपनी भलाई समझते हैं।
''स्वप्न सजाए थे कैसे माँ ने,
चूर हो गये एहसास उसी के। 
ठोकर मारा उसके अंग को,
जो देखा लड़की समाज ने।''
विज्ञान का दुरुपयोग- 
कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देने में अल्ट्रासाउण्ड केन्द्रों का काफी योगदान है। हालांकि अल्ट्रासाउण्ड केन्द्रों पर लिंग परीक्षण नहीं किया जाता है, लेकिन पर्दे के पीछे का खेल जग जाहिर है। यह बातें महज कागजों में हैं। कन्या भू्रण हत्या को एक पैसा कमाने का जरिया माना जाता है और इसके अलावा कुछ नहीं।
समाधान-
कन्या भू्रण हत्या करने या कराने वालों का सामाजिक बहिष्कार हो।
लिंग परीक्षण करने वाले केन्द्रों संचालकों, चिकित्सकों को चिन्हित-दण्डित किया जाए।
दहेज जैसी कुप्रथा को खत्म किया जाए।
महिलाओं को जागरूक करने के लिए विशेष जन- जागरण अभियान चलाया जाए।
प्रचार माध्यम के जरिये लड़की-लड़का में भेद की भावना खत्म किया जाए।
कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक अपराध के अलावा धार्मिक - पौराणिक दृष्टि से भी घृणित कार्य है। समाज को इस तथ्य से अवगत कराया जाए।
महिला की सहमति के बगैर कन्या भ्रूण हत्या सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में महिलाओं को विशेष भूमिका निभानी होगी।
उपसंहार-
अब भी बहुत देर नहीं हुई है। आइए हम नारी को वह स्थिति प्रदान करें जिसकी वह अधिकारिणी है। अब लड़कियाँ वायुयान उड़ा रही हैं। अंतरिक्ष में पहुँच चुकी हैं। इसके बावजूद कन्या भू्रण हत्या समझ से परे है। समस्या जड़ मूल से खत्म करने के लिए लोगों को सामाजिक चिंतन में परिवर्तन करना होगा तभी कन्या जन्मदर में गिरावट थमेंगी।


विश्वशांति और भारत

भारत एक अध्यात्मवादी और शांतिप्रिय देश रहा है। यह अलग बात है कि आज का भारतीय अधिकाधिक मौलिक साधनों को पाने के लिए आतुर हो और दीवाना बनकर अपनी मूल अध्यात्म चेतना से भटकता जा रहा है और उससे हर दिन, हर पल दूर होता जा रहा है परन्तु जहाँ तक शांतिप्रियता का प्रश्न है, वह आज भी व्यर्थ के लड़ाई - झगड़ों में न पड़कर सहज शांति से ही जीवन जीना चाहता है। यही वह मूल कारण है कि अपने आरंभ काल से ही भारत शांतिवादी और निरंतर शांति बनाए रखने का आदी रहा है।
भारत ने कभी ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे विश्वभर की शांति भंग हो। भारत ने तो आक्रमणकारियों के प्रति भी उदारता बरती। जयशंकर प्रसाद ने स्पष्ट कहा है-
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम।
यहां के राजाओं नें अत्याचार, दमन, और संघर्ष का रास्ता छोड़कर त्याग और तपस्या का रास्ता अपनाया है। भारत सदा से 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना पर बल देता है।
विश्व शांतिः एक चुनौती-
शांति का अर्थ अन्याय - अत्याचार चुपचाप सहन करना नहीं है। इसी प्रकार शांति का अर्थ निष्क्रियता भी नहीं है। इसका अर्थ और प्रयोजन जानबूझकर ऐसे कार्य न करना रहा है जिनसे विश्व शांति भंग होने का अंदेशा हो। आज विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि विश्व शांति कैसे संभव हो? आज पूरा विश्व रास्तों की होड़ में अंधा होकर अपनी मृत्यु का सामान इकट्ठा कर चुका है।
वैज्ञानिकों के अनुसार आज विश्व के पास असीमित विस्फोटक सामग्री है। आज 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि' वाली कहावत अक्षरशः सिद्ध हो रही है।
भारत द्वारा विश्व शांति के उपाय-
भारत सदा से ही विश्वशांति का पक्षधर रहा है। जब हम किसी को हानि पहुँचाने और उकसाने वाला कार्य नहीं करेंगे तो शांति भंग होने की संभावना नहीं होगी। अतः विश्व शांति बनाए रखने का सबसे उत्तम उपाय है- स्वयं शांत बने रहना। अपनी राष्ट्रीय सीमाओं पर अतिक्रमण होने पर भी दूसरों के क्षेत्रों को हथियाने का प्रयास नहीं किया। आज स्वतंत्र भारत की विदेश नीति और तटस्थ नीति उसकी समानता पर ही निर्भर है।
निःशस्त्रीकरण:-
भारत निः शस्त्रीकरण की नीति का समर्थक रहा है। उसी का परिणाम है कि भारत के पास परमाणु बम बनाने की विधि होते हुए भी वह उसका निर्माण नहीं कर रहा है। भारत का स्पष्ट मत है कि परमाणु बमों का समूल नाश होना चाहिए यह शांति की सच्ची भावना का प्रश्न है। इस प्रकार भारत ने विश्वशांति में सदा योगदान दिया है। 
गुट निरपेक्षता -
जब विश्व 'रूस और अमेरिका' को दो विरोधी गुटों में बँटा था तब भारत ने विश्व को 'गुट निरपेक्षता' की नीति बताई थी। भारत ऐसे देशों का अगुआ बना, जो किसी भी गुट की तरफ नहीं थे। 
विश्व शांति का आवश्यक आधार-
विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा आधार है - शक्ति। विश्व उसी की बात सुनता है जिसके पास शक्ति है। यह धन, साधन या शस्त्र-बल किसी भी प्रकार हो सकती है। भारत के सभी प्रयास मुँह जबानी हैं। ठोस उपाय करने के लिए उसके पास शक्ति का अभाव है क्योंकि उसकी आर्थिक दशा दीन-हीन है।
विश्व शांति के लिए अध्यात्म भावना को प्रश्रय देना, सत्य, प्रेम, अहिंसा, और पारस्परिक सहयोग के मार्ग पर चलना, समस्या को बातचीत के द्वारा सुलझाने का प्रयास करना, आदि रास्ते पर चलना चाहिए।
संधि वचन सम्पूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजेय की''


‘‘सरल और समृद्ध भाषा है अपनी हिंदी’’

भाषा विभिन्न सार्थक ध्वनियों के संयोग से भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। जैसे - जैसे किसी भाषा का प्रयोग बढ़ता जाता है नई अवधारणाओं का समावेश होता जाता है और उसका प्रसार बढ़ता है। किसी भी भाषा का कठिन या सरल होना कोई अनिवार्य गुण नहीं है बल्कि यह पाठक की मानसिकता, रुचि, जिज्ञासा, तत्परता एवं प्रयोग पर निर्भर करता है कि कोई भाषा प्रयोगकर्ता के लिए सरल है या कठिन। बहुभाषी जनता ने ही अपनी आवश्यकता के अनुरूप भारतीय भाषाओं के मिले - जुले रूप को हिन्दी भाषा का नाम दिया और उसे विकसित किया। चूँकि हिन्दी भाषा का उद्गम, विकास एवं समृद्धि बढ़ती ही गई और आज हिन्दी एक समृद्ध भाषा के रूप में सभी क्षेत्रों में प्रयोग हेतु सुलभ है। इस प्रकार हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए और यह भारतीय जनता की एक अपरिहार्य आवश्यकता है। किसी भी हालात में अंग्रेजी संपर्क भाषा हिंदी का विकल्प नहीं बन सकती।
हिन्दी का साहित्यिक रूप तो पहले से ही समृद्ध था अब इसका व्यावहारिक स्वरूप (अनुप्रयुक्त स्वरूप) भी समृद्ध हो चुका है और तकनीकी एवं गैर-तकनीकी क्षेत्रों में इसका प्रयोग बढ़ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी एवं समाचार मीडिया के क्षेत्र में हिंदी निरन्तर प्रगति कर रही है। इसके आगे की प्रगति प्रयोगकर्ताओं पर ही निर्भर है। देश के उलटबांसी प्रवृत्ति के लोग राजभाषा एवं राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी की उपयुक्तता के संबंध में विसंगतिपूर्ण टिप्पणियाँ करके इसके महत्व को घटाने को असफल प्रयास करते रहे हैं जो निम्न हैं-
हिंदी कठिन, दुरुह एवं दुर्बोध है।
अंग्रेजी की तुलना में हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता सीमित है।
हिन्दी को सरल बनाया जाए। विदेशी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित करने से हिंदी सरल हो जायेगी।
हिन्दी में वैज्ञानिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है।
मानक हिंदी आम जनता नहीं समझ पाती है आदि आदि। 
विगत 300 वर्षों के दौरान अंग्रेजी के प्रयोगकर्ताओं ने अंग्रेजी के सरलीकरण की बात कभी नहीं कहीं जबकि वास्तविकता यह है कि विशेषज्ञों के द्वारा भी अंग्रेजी के मानक शब्दों का ठीक से उच्चारण नहीं हो पाता तथा उनके सामान्य एवं विशेष अर्थ में अंतर नहीं कर पाते हैं इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी की महिमा मण्डित करना अंधानुकरण पर आधारित है। जहां तक हिंदी भाषा का प्रश्न है, हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति से जुड़ी है और संपूर्ण भारतीय सस्कृति की संवाहिका बनने की दिशा में प्रगति कर रही है। आम प्रयोगकर्ता उसके मर्म को समझता है और जिस शब्द का प्रयोग करता है, उसका अर्थ समझता है। मानक शब्दों का सरलीकरण करने के नाम पर किसी भी भाषा को विकृत करने से वह भ्रांतिपूर्ण और अर्थहीन हो जायेगी। इस प्रकार यह कहना बिल्कुल गलत मानसिकता है कि हिंदी कठिन है, दुरुह है एवं दुर्बोध है। वास्तविकता यह है कि विविध विषयों के विशेषज्ञों द्वारा हिन्दी प्रयोग नहीं की जाती इसलिए हिन्दी के छोटे व सरल शब्द भी उनके लिए कठिन हो जाते हैं। अंग्रेजी के प्रयोगकर्ता अंग्रेजी के शब्दों के अर्थ विश्लेषण के लिए सैकड़ों बार अंग्रेजी शब्द कोष का संदर्भ लेते हैं परन्तु जब उन्हें हिन्दी शब्दकोश का एक दो बार भी हिंदी शब्द के लिए उपयोग करना पड़ता है तो वे अपनी नकारात्मक मानसिकता के आधार पर हिंदी भाषा पर दुरुह एवं कठिन होने का दोष मढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि हिंदी उच्चारण, लेखन एवं अर्थ विश्लेषण की दृष्टि से सरल एवं सहज है। इस भाषा की ध्वनियाँ हमारे मन - मस्तिष्क में रची बसी हैं।
हिंदी भाषा के मूल को संस्कृति जैसी समृद्ध भाषा एवं भारतीय भाषाएं अभिसिंचित और समृद्ध करती हैं। अकेले संस्कृत में ही असंख्य शब्दों के निर्माण की क्षमता है। भारतीय भाषाओं के प्रचलित शब्द हिंदी को अतिरिक्त अभिव्यक्ति क्षमता प्रदान करते हैं। 
किसी भी भाषा की अपनी मौलिक सार्थक प्रतीक ध्वनियाँ होती हैं। उसकी अपनी शैली होती है। विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में हिंदी की यह विशेषता है कि इसका प्रत्येक अक्षर, शब्द, अर्थ एवं प्रयोजन ध्वनि के सामंजस्य पर आधारित है। कोई भी भाषा किसी विदेशी भाषा के शब्दों को उसी हद तक अपनाती है। जिस हद तक विदेशी भाषा के शब्द देशीय भाषा के शब्दों से ध्वनि साम्य या सामंजस्य रखते हैं। अतः यह तर्क देना कि अधिक से अधिक विदेशी शब्दों को हिन्दी में अपना लेने से हिन्दी भाषा सरल और सुबोध हो जायेगी। बिल्कुल गलत है। किसी भी भाषा में विदेशी शब्दों को अपनाए जाने की प्रक्रिया  सहज होती है। इस दृष्टि से हिंदी भाषा की उदारता एवं सर्व सामंजस्य सर्वविदित है। असहज रूप से विदेशी शब्दों को अपनाने से भाषा का मौलिक स्वरूप विकृति हो जायेगा और उसका विकास अवरुद्ध हो जायेगा। अतः भाषा की मौलिकता को बनाए रखने के लिए और उसके विकास की श्रंखला को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि विदेसज शब्दों को सहज तरीके से दाल में नमक के बराबर अपनाया जाए।
आम जनता अपनी आवश्यकतानुसार हिंदी, अंग्रेजी या किसी भी भाषा के मानक शब्दों का प्रयोग करती है तथा कभी-कभी मानक शब्दों के विकृत रूप का प्रयोग करके काम चला लेती हैं परन्तु उस प्रकार की भाषा का प्रयोग विशेषज्ञ नहीं करते हैं ऐसी स्थिति में हिन्दी के मानक शब्दों के सरलीकरण  की बात कहना वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं है। आम जनता जब किसी भाषा का प्रयोग करने लगती है तो वह अपनी अपेक्षा के अनुसार उसका प्रयोग करने का मार्ग खोज लेती हैं। इससे विशेषज्ञों की भाषा पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। भाषा के मौखिक, साहित्यिक, और प्रयोजन मूलक स्वरूप की अलग पहचान होती है और उनका विभेदक गुण उन्हें एक दूसरे से अलग करता है। मौखिक भाषा में व्याकरणिक बंधन शिथिल हो जाते हैं। आम जनता मनमाने तरीके से शब्दों का प्रयोग करती है परन्तु कार्यालय में अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा में स्पष्टता के लिए हम कुछ आवश्यक मानक शब्दों और कुछ सामान्य शब्दों का प्रयोग करते हैं तथा समग्र अभिव्यक्ति का लक्ष्य होता है, सही, सटीक और उद्देश्य परक अभिव्यक्ति ताकि कार्यालय का कार्य त्वरित गति से चल सके। 97 प्रतिशत जनता तो अंग्रेजी जानती ही नहीं तो हिंदी पर यह दोष मढ़ना कि आम जनता हिन्दी नहीं समझ पाती है और अंग्रेजी सरल है। अन्यायपूर्ण है।
कहाँ तक युक्ति संगत है, जबकि देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी हिंदी का प्रयोग करती है और समझती है। विशेषज्ञों की अभिव्यक्ति मानक, सही, सटीक और विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है। विषय को जानने और समझने वाला कोई भी व्यक्ति उसी स्तर पर जाकर समझ पाता है। इसमें सरल या कठिन होने की अपेक्षा नहीं होती है बल्कि इसका लक्ष्य विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है जो मानक भाषा में मानक अभिव्यक्ति होता है। हिंदी में ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अपने विषय और भाषा के ज्ञान के अनुसार हिंदी में कहीं हुई बात समझ लेता है। हिंदी भाषा के माध्यम में रुचि रखने वाला और हिंदी जानने वाला पाठक हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार 'जयशंकर प्रसाद' की संस्कृत निष्ठ हिन्दी में व्यक्त भावों को समझ लेता है और प्रेमचन्द्र की लोकभाषा तथा उर्दू मिश्रित हिंदी में लिखे उपन्यासों और कहानियों को समझ लेता है। अतः हिंदी पर कठिन होने का दोष मढ़ने की बात विरोधाभासी, भ्रांति मूलक और नकारात्मक मानसिकता की देन है। इसके अतिरिक्त हिंदी की लोकप्रियता इससे स्वतः सिद्ध होती है कि आज देश में अंग्रेजी पत्र - पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं अधिक लोकप्रिय और अधिक संख्या में प्रकाशित होती हैं तथा पढ़ी जाती है।
''जो व्यक्ति जितना दुर्बल होता है। वह उतना ही अधिक क्रोध का शिकार होता है।''


Friday, November 15, 2019

स्वास्थ्य के क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देने के लिए दो नए समझौते

 


उमाशंकर मिश्र


नई दिल्ली, 14 नवंबर (इंडिया साइंस वायर): स्वास्थ्य के क्षेत्र में अत्याधुनिक शोध को बढ़ावा देने के लिए चंडीगढ़ स्थित सूक्ष्‍मजीव प्रौद्योगिकी संस्‍थान (इम्टेक) ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी)-बॉम्बे के साथ समझौता किया है। इस पहल से विचारों के आदान-प्रदान, नए ज्ञान के विकास और दोनों संस्थानों के शोधकर्ताओं और शिक्षकों के बीच उच्च गुणवत्ता के शोध कौशल को बढ़ाने में मदद मिल सकती है।


आईआईटी-बॉम्बे के शोध एवं विकास विभाग के डीन प्रोफेसर मिलिंद अत्रे और इम्टेक, चंडीगढ़ के कार्यवाहक निदेशक डॉ मनोज राजे ने नई दिल्ली के केंद्रीय वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) मुख्यालय में इस संबंध समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस मौके पर सीएसआईआर के महानिदेशक डॉ शेखर सी. मांडे भी मौजूद थे।


आईआईटी-बॉम्बे और सीएसआईआर-इम्टेक के पदाधिकारी एवं वैज्ञानिक


डॉ मांडे ने कहा कि “इन दोनों संस्थानों को अपने-अपने क्षेत्रों में महारत हासिल है। आईआईटी-बॉम्बे देश के शीर्ष संस्थानों में शुमार किया जाता है तो इम्टेक का फोकस भारत की मेडिकल जरूरतों को पूरा करने रहता है। इन दोनों संस्थानों के बीच इस नए करार से स्वास्थ्य के क्षेत्र में संयुक्त स्तर पर किए जाने वाले शोध कार्यों का दायरा बढ़ सकता है।”


यह समझौता मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा वर्ष 2018 में दिए गए दिशा निर्देशों पर आधारित है, जिसमें सभी आईआईटी संस्थानों को सीएसआईआर की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के साथ समझौता करने को कहा गया था। वर्ष 1984 में स्थापित सीएसआईआर-इम्टेक राष्ट्रीय स्तर पर सूक्ष्मजीव विज्ञान का एक उत्कृष्ट केंद्र है। इस संस्थान को स्वास्थ्य के क्षेत्र में नई दवाओं एवं थेरेपी,  मेडिकल प्रक्रिया और नैदानिक तकनीकों के विकास के लिए बुनियादी वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए जाना जाता है।


सीडीआरआई, लखनऊ के वैज्ञानिक और एफईईडीएस-ईएमआरसी, मणिपुर के प्रतिनिधि


सीएसआईआर से संबद्ध लखनऊ स्थित केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान (सीडीआरआई) ने भी मणिपुर की संस्था फाउंडेशन फॉर एन्वायरमेंट ऐंड इकोनोमिक डेवेलपमेंट सर्विसेज (एफईईडीएस)- एथ्नो-मेडिसिनल रिसर्च सेंटर (ईएमआरसी) के साथ करार किया है। इस समझौते का प्रमुख उद्देश्य पारंपरिक ज्ञान के वैज्ञानिक सत्यापन (साइंटिफिक वेलीडेशन) करना है। एफईईडीएस मणिपुर में स्थित एक वैज्ञानिक सोसाइटी है, जो भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के जंगलों में उपलब्ध औषधीय पौधों के पारंपरिक चिकित्सा अनुसंधान का कार्य करती है।


इस समझौते के तहत एफईईडीएस-ईएमआरसी चिह्नित औषधीय पौधों की खेती, पादप सामग्री की आपूर्ति एवं निष्कर्षण, रासायनिक लक्षणों की पहचान तथा प्रारंभिक जैव सक्रियता का मूल्यांकन करेगा। इसके साथ ही, पादप सामग्री की प्रस्तावित जैव-संभावना (बायो-प्रोस्पेक्टिंग) के लिए सलाह भी देगा।


एफईईडीएस-ईएमआरसी द्वारा भेजी गई पादप सामग्री और उनके सक्रिय घटकों के  फाइटोकेमिकल डेटा के संग्रह के साथ-साथ उनके लोक-पारंपरिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण की प्रामाणिकता का मूल्यांकन सीएसआईआर-सीडीआरआई द्वारा किया जाएगा। पादप अर्कों के मानकीकरण की प्रक्रिया और उनके मूल्य संवर्द्धन के लिए उन्नत रासायनिक विश्लेषण भी सीडीआरआई द्वारा किया जाएगा। (इंडिया साइंस वायर)