एक किसान पक्षियों से बहुत तंग आ गया था। उसका खेत जंगल के पास था। उस जंगल में पक्षी बहुत थे। किसान जैसे ही खेत में बीज बोकर, पाटा चलाकर घर जाता, वैसे ही झुंड के झुंड पक्षी उसके खेत में आकर बैठ जाते और मिट्टी कुरेद-कुरेदकर बोये बीज खाने लगते। किसान पक्षियों को उड़ाते-उड़ाते थक गया। उसके बहुत से बीज चिड़ियों ने खा लिये। बेचारे को दुबारा खेत जोतकर दूसरे बीज डालने पड़े। इस बार किसान बहुत बड़ा जाल ले आया। उसने पूरे खेत पर जाल बिछा दिया। बहुत से पक्षी खेत में बीज चुगने आये और जाल में फंस गये। एक सारस पक्षी भी उसी जाल में फंस गया।
जब किसान जाल में फँसी चिड़ियों को पकड़ने लगा तो सारस ने कहा-आप मुझ पर कृपा कीजिये। मैंने आपकी कोई हानि नहीं की है। मैं न मुर्गी हूँ, न बगुला और न बीज खाने वाला पक्षी। मैं तो सारस हूँ। खेती को हानि पहुँचाने वाले कीड़ों को खा जाता हूँ। मुझे छोड़ दीजिये।
किसान क्रोध में भरा था। वह बोला- 'तुम कहते तो ठीक हो, किन्तु आज तुम उन्हीं चिड़ियों के साथ पकड़े गये हो, जो मेरे बीज खा जाया करती हैं। तुम भी उन्हीं के साथी हो। तुम इनके साथ आये हो तो इनके साथ दण्ड भोगो।
जो जैसे लोगों के साथ रहता है, वैसा ही समझा जाता है। बुरे लोगों के साथ रहने से बुराई न करने वालों को भी दण्ड और अपयश मिलता है। उपद्रवी चिड़ियों के साथ आने से सारस को भी बन्धन में पड़ना पड़ा।
Tuesday, October 29, 2019
किसान और सारस
बालकों के लिए संस्कार-माला
बालक यदि निम्न बातों पर ध्यान देंगे तो उनका जीवन सदैव सुखी रहेगा।
1. विद्यालय में ठीक समय पर पहुँच जाना और भगवत्स्मरणपूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिये। किसी प्रकार का ऊधम न करते हुए मौन रहकर भगवान के नाम का जप-और स्वरूप की स्मृति रखते हुए प्रतिदिन जाना-आना चाहिये।
2. विद्यालय की स्तुति-प्रार्थना आदि में अवश्य शामिल होना और उनको मन लगाकर प्रेमभाव पूर्वक करना चाहिये।
3. पिछले पाठ को याद रखना और आगे पढ़ाये जाने वाले पाठ को उसी दिन याद कर लेना उचित है, जिससे पढ़ाई के लिए सदा उत्साह बना रहे।
4. पढ़ाई को कमी कठिन नहीं मानना चाहिये।
5. अपनी कक्षा में सबसे अच्छा बनने की कोशिश करनी चाहिये।
6. किसी विद्यार्थी को पढ़ाई में अग्रसर होते देखकर खूब प्रसन्न होना चाहिये और यह भाव रखना चाहिये कि यह अवश्य उन्नति करेगा तथा इसकी उन्नति से मुझे और भी बढ़कर उन्नति करने का प्रोत्साहन एवं अवसर प्राप्त होगा।
7. अपने किसी सहपाठी से ईष्र्या नहीं करनी चाहिये और न यही भाव रखना चाहिये कि वह पढ़ाई में कमजोर रह जाय, जिससे उसकी अपेक्षा मुझे लोग अच्छा कहें।
8. किसी भी विद्या अथवा कला को देखकर उसमें दिलचस्पी के साथ प्रविष्ट होकर समझने की चेष्टा करनी चाहिये, क्योंकि जानने और सीखने की उत्कण्ठा विद्यार्थियों का गुण है।
9. अपने को उच्च विज्ञान मानकर कभी अभिमान न करना चाहिये, क्योंकि इससे आगे बढ़ने में बड़ी रूकावट होती है।
10. नित्य प्रति बड़ों की तथा दीन-दुःखी प्राणियों की कुछ न कुछ सेवा अवश्य करनी चाहिये।
11. किसी भी अंगहीन, दुःखी, बेसमझ, गल्ती करने वाले को देखकर हँसना नहीं चाहिये।
12. न्याय से प्राप्त हुई चीज को ही काम में लाना चाहिये।
13. माता, पिता, गुरू आदि बड़ों की आज्ञा उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करें। बड़ों के आज्ञा का उत्साहपूर्वक तत्काल पालन करेे। बड़ों की आज्ञा पालन से उनका आर्शीवाद मिलता है, जिससे लौकिक और पारमार्थिक उन्नति होती हैं।
14. गुरूजनों की कमी हँसी न उड़ाये, प्रत्युत उनका आदर-सत्कार करें तथा जब पढ़ाने के लिये अध्यापक आवें और जायें, तब खड़े होकर और नमस्कार करके उनका सम्मान करें।
15. समान अवस्था वाले और छोटों से प्रेमपूर्वक बर्ताव करें।
16. सभा में भाषण या प्रश्नोत्तर सभ्यतापूर्वक करें तथा सभा में अथवा पढ़ने के समय बात-चीत न करें।
17. सबकों अपने प्रेम भरे व्यवहार से संतुष्ट करने की कला सीखें।
18. कभी किसी का अपमान या तिरस्कार न करे।
19. किसी भी काम को कभी असम्भव न माने, क्योंकि उत्साही मनुष्य के लिए कठिन काम भी सुगम हो जाते हैं।
20. सदा अपने से बड़े और उत्तम आचरण वाले पुरूषों के साथ रहने की चेष्टा करें तथा उनके सद्गुणों का अनुकरण करे।
21. अपने से छोटे बालक में कोई दुव्र्यवहार या कुचेष्टा दीखे तो उसको समझायें अथवा उस बालक के हित के लिये अध्यापक को सूचित कर दें।
22. अपने में से दुर्गुण-दुराचार हट जाय और सदाचार आयें इसके लिए भगवान से सच्चे हृदय से प्रार्थना करें और ईश्वर के बल पर सदा निर्भय रहें।
शिष्टाचार की बातें
दैनिक जीवन में शिष्टाचार की कितनी अहमियत है, यह हम सब समझ सकते हैं। जो शिष्टाचार का पालन करता है, वह निर्धन और कम पढ़ा लिखा होने पर भी आदर पाता है लेकिन धनिक और शिक्षित को अशिष्ट व्यवहार करने पर निरादर ही मिलता हे। शिष्टाचार के गुण जन्मजात भी हो सकते हैंै। लेकिन परिवार के अतिरिक्त संगी-साथियों का व्यवहार आचार विचारों को प्रभावित करते रहते हैं। देखा जाता हैं कि पन्द्रह वर्ष की आयु तक आचार विचार के सीखे, समझे गुण आजीवन उसके व्यतित्व पर हावी रहते हैं। अतः हर माता-पिता का यह फर्ज बनता है कि वह अपनी संतानों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ायें, उन्हें किससे किस तरह व्यवहार करना चाहिए इसकी जानकारी देनी चाहिए। आजकल व्यस्तता की वजह से अधिकतर माता-पिता अपनी संतानों को उतना समय नहीं दे पाते जितना देना चाहिए, यह ठीक नहीं है। हमारे बच्चे कल सुसंस्कृत एवं शिष्ट नागरिक बनें, यह सोच रखना बहुत जरूरी हैं।
विद्यार्थी और शिष्टाचार
1. छात्रों को अपने अध्यापक के सामने सावधान की स्थिति में खड़े होना चाहिए।
2. अध्यापक के कक्षा में प्रवेश होते ही खड़े होकर अभिवादन करना चाहिए।
3. अध्यापक के रहते हुए कक्षा में शोर करना या मजाक बनाना अच्छा नहीं हैं।
4. अध्यापक के निकट अथवा उनकी कुर्सी पर बैठना अशिष्टता है।
5. कई बच्चे रबड़ को दाँतों से काटते हैं, पेंसिल कान में या मुँह में डालते हैं, यह आदत ठीक नहीं है।
6. अपने सहपाठी से ली गई कोई भी चीज उसे समय पर और सुरक्षित रूप में वापस करनी चाहिए।
7. अपनी पुस्तकों, काँपियों और बस्तों को साफ-सुथरा रखें।
8. स्कूल में गन्दगी न करें, गन्दगी को दूर करने की कोशिश करें।
9. अपने सहपाठी से हँसी-मजाक तो करें लेकिन असभ्य भाषा का इस्तेमाल न करें।
10. विद्यालय में साफ और स्वच्छ परिधान पहिनकर आना चाहिये।
11. सदैव अच्छे और शिष्ट छात्रों से दोस्ती करें।
नारी बिना साहित्य जगत है अधूरा
साहित्य मानवीय संवेदनाओं के चिंतन एवं चित्रण की श्रेश्ठतम अभिव्यक्ति है। नारी सजल संवेदनाओं का मूर्तरूप है। अतः साहित्य नारी के बिना आधा अधूरा एवं एकांगी है। सृश्टि के ऊशाकाल से ही नारी पुरूश की सुकोमल भावनाओं में चेतना का संचार करती और उसकी विविध कल्पनाओं को निरभ्र गगन में उड़ान भरने के लिये प्रेरित करती रही है। इसी कारण नारी साहित्य के साम्राज्य पर सदैव ही अधिश्ठित और प्रतिश्ठित रही है। साहित्यकार मानते हैं कि कविता का उद्गम स्त्रोत नारी प्रेरित है। नारी स्वयं एक कविता हैं, नारी स्वयं एक परिपूर्ण साहित्य है। नारी की पवित्रता, षुचिता, सौंदर्य के बिना साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
सजल संवेदना की अविरल धारा जब स्थिर होकर रूपायित हुई तो उसमें नारी का रूप निखर उठा और जब इसकी अभिव्यक्ति हुई तो साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। अतः नारी और साहित्य का सम्बंध अनन्य और अखण्ड रहा है। नारी के संवेदनषील गर्भ से साहित्य की सृजन धारा फूट पड़ी है। सृजन की इस महती प्रक्रिया में नारी का योगदान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में हुआ है। अप्रत्यक्ष रूप से पुरूश द्वारा नारी का भरपूर उपयोग किया गया है और इसका कारण है- (1) सौंदर्यानुभूति (2) नैतिक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति (3) सामाजिक परिवेष का चित्रण।
ये तीन संवेदनायें ही मानवी मन को साहित्य सृजन के लिये प्रेरित करती है। जिसमें सौंदर्यानुभूति किसी भी साहित्यकार की साहित्य-साधना का मूल आधार रही है। भारतीय साहित्य में पुरातन से अद्यतनकाल तक सौंदर्य एवं श्रंगार को विषिश्ट स्थान प्राप्त है और हो भी क्यों न, क्योंकि संवेदना की धारा जब उमड़ती है, सौंदर्य एवं श्रंगार स्वतः स्फूर्त, आलोड़ित-उद्वेलित होते हैं। यह सौंदर्य कल्याणकारी एवं सत्य की आभा से मंडित होता था, जिसमें षील एवं षुचिता आधार बने हुये थे। जैसे ही ये आधार टूटने-बिखरने लगे, सौंदर्य एवं श्रृंगार की दिषा अधोगामी हो गई और साहित्य जीवन प्रदायक अमृत से जीवन हरने वाला विश बन गया, परंतु साहित्य की प्राचीन एवं श्रेश्ठ सौंदर्याभिव्यक्ति कालिदास, जायसी, तुलसी से लेकर पंत, प्रसाद और निराला आदि तक अविच्छिन्न रूप से निखरी है।
नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में भी नारी ने साहित्य को अपूर्व योगदान प्रदान किया है। संस्कृति को सींचने के लिये नारियों ने स्वयं को खपा दिया है। नारी अपने दरद को लेखिनी के माध्यम से उठाती रही है। सांमती मानसिकता पर करारा प्रहार करने वाली नारी लेखिकाओं की कमी नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर नें यहाँ तक कहा है कि सांस्कृतिक संवेदना नारी के बिना अपंग-अपाहिज के समान है। सांस्कृतिक ध्वजा को साहित्य के गगन में कम संख्या में ही सही, लेकिन दमदार ढंग से नारियों ने लहराया है। ठीक इसी प्रकार नैतिकता एवं सामाजिकता के अनेक विशयों को नारियों ने साहित्य से जोड़ा और अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बोध कराया है।
साहित्य साधिकाओं में मीराबाई का नाम ध्रुवतारा के समान प्रदीप्त है। मीरा हिन्दी साहित्य के काव्य फलक पर महान कवियत्री के रूप में प्रतिश्ठित है। मीरा की कविता के बिना हिंदी साहित्य का लालितय अधूरा माना जायेगा। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य को छायावाद, रहस्यवाद, प्रतीकयोजन, वेदना, गीतकला, प्रकृति चित्रण रूपी अनेक अनुपम उपहार देने के रूप में जानी जाती है।
वैदिककाल की नारियाँ जैसे अपाला, घोशा, गार्गी, विष्ववारा, अरूंधती अनसूया आदि ने भी अपने चिंतन से नारी जगत में नयी दिषा दी। ठीक इसी प्रकार आधुनिक काल में अमृता प्रीतम, चंद्रकिरण, ऊशादेवी मित्रा, षषि प्रभा षास्त्री, मृणाल पाण्डेय, सूर्यबाला, नासिरा षर्मा, षिवानी आदि तमाम रचनाकारों की सषक्त कृतियों से समृद्ध होती हुई आज नारी चेतना सम्पन्न एवं सुदृढ़ धरती तक पहुँच गई है। लेखिकाओं ने जहाँ संवेदनषील मानवीय संबधों को रचनाओं में उकेरा है, वहीं सामयिक ज्वलंत प्रष्नों को भी रेखांकित किया है। 'इक्कीसवीं सदी नारी सदी' की संभावना को साकार करने का यह श्रेश्ठ एवं पुण्यकार्य है, जिसे किसी भी कीमत पर करना ही चाहिये।
'पुस्तक से रहित कमरा आत्मा से रहित षरीर के समान है। (सिसरो)