Tuesday, October 29, 2019

जीवन की डोर

 जीवन की डोर बहुत कमजोर होती है। कब टूट जाये इसका कोई भरोसा नहीं। इस जीवन में कई मोड़ आते हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण मोड़ सुख तथा दुःख का होता है। जिस मनुष्य ने दुःख का अनुभव किया है वही सुख की कल्पना कर सकता है। आज तक बहुत कम लोगों ने जीवन का अर्थ समझा है। आज कल के तो नवयुवक जीवन का अर्थ यह बताते हैं कि जीवन सिर्फ मनोरंजन है। चाहे कोई मरे या जिए हमें उससे कोई मतलब नहीं है। अब यह दुनिया कितनी स्वार्थी हो गई है। उन्हें किसी से मतलब नहीं है। अगर मैं कुछ अच्छी बातें नवयुवकों को बताऊँ तो इसको एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देंगे। मैं 16 वर्षीय छात्रा हूँ। मैंने जीवन के थोड़े से पहलुओं को समझा है। मैं चाहती हूँ कि दूसरे मनुष्य जीवन के पहलुओं को समझो, उस पर अमल करे और उन पहलुओं को अपने जीवन में प्रयोग करें। पर ऐसा हो नहीं सकता है क्योंकि सबकी आँखों पर स्वार्थ तथा लालच की पट्टी बंधी हुई है। सभी मनुष्य स्वार्थी है।। मैं भी स्वार्थी हूँ। पूरे संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है। जो स्वार्थी न हो। सभी स्वार्थी हैं जैसे - (1) हम भगवान की पूजा इसलिए करते हैं कि भगवान हमारी सारी इच्छा पूरी करें तथा हमें सुखी रखें। (2) एक दोस्त दूसरे दोस्त से मेलजोल इसलिए बढ़ाता है क्योंकि मुसीबत में उसकी सहायता करे और जब उसकी मुसीबत टल जाती है तो वह अपने मित्र से मेलजोल खत्म कर लेता है। इससे पता चलता है कि वह उसका स्वार्थ था। अगर स्वार्थ के बारे में और बताऊँ तो उसका लेख कभी खत्म नहीं होता।


आज का मानव

 हम सब मनु जी की सन्तान हैं। इसलिए हम मनुष्य कहलाते हैं। हम मनुष्य या मानव कहलाने के अधिकारी तभी हो सकते हैं जब हमारे मानवी गुण यथादया, क्षमा, उदारता, साहस, निर्भीकता, सहनशीलता, सहिष्णुता, सत्यता, अहिंसा, अलोलुपता तथा संयम आदि समाहित हो।
 एक समय था जब मानव अपने कुटुम्ब, ग्राम, जनपद, राज्य देश तथा विश्व का शुभ चिन्तन करता था। हमें निम्न श्लोक कुछ इसी ओर संकेत करता सा प्रतीक होता है।
सर्वेच भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्वाणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत।।
 परन्तु खेद है। कि जब हम आज के मानव के संकीर्ण क्रिया-कलापों तथा उसके विचारों की ओर दृष्टिपात करते हैं। तो शर्म से हमारी नरजें नीचे हो जाती हैं। आज के मानव के क्या विचार हैं?
भगवान हमें ऐसा वर दो।
सारे जग की सारी सम्पत्ती मेरे घर भर दो!
भगवान हमें..................
कार्य हमारा जो भी होवे आप स्वयम् कर जावे!
हमतो मारे मौज मजे से, खाने को हल्लुवा ही पावे!!
जो भी हमसे टक्कर लेवे, उसको शक्कर आँखें ही गिर जावे!!
जिसकी ओर नजर भर देखूँ, उसकी आँखें ही गिर जावे!!
यदि हमको आ कर कर क्षुधा सताये तो खाने को घी शक्कर दो!!
भगवान हमें ऐसा वर दो!
 हाय! धन्य है। आज का मानव और उसके स्वार्थ भरे विचार। मैं आज के मानव की जो भी प्रशंसा करू, वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा।
 एक समय था जब हमारे पूर्वजो ने ''बसुधैव कुटुम्बकम'' का नारा ही नहीं दिया था बल्कि इसे अपने स्वभाव में ढाल कर के भी दिखाया था। कि पृथ्वी के सारे मानव मेरे कुटुम्बी हैं। और सारी धरती मेरा घर है। इसलिए हमारे पूर्वज गाया करते थे- 
विश्व है। मेरा सुन्दर धाम। करू मैं शत शत् इसे प्रणाम।।
विश्व में मंगल हो सब ओर। शंति का सागर करे हिलोर।।
विश्व हो सुन्दर स्वर्ग समान। मनुज का मनुज करे कल्यान।।
विश्व के मनुुज सभी है एक। एक में लगता हमें अनेक।। 
प्रभू का अंश जीव हर एक। भेद का करना, नहीं विवेक।।
 लेकिन जब हम आज के मानव के गीत सुनते हैं। तो हमें उसकी वैज्ञानिक बुद्धि पर तरस आता है। वह अपने कुटुम्ब के साथ तक रहना पसन्द नहीं करता है। उसका तो कहना है कि-
नोट: अरे आगे बढ़कर आओ! अरे आगे!!
  माता पिता को मारो गोली मां
 माता से नाता तोड़ो!
 अपना दरबा अलग बसाओ!!
 उनकी ड्यूटी खत्म हो गयी!
 तुम भी कुछ ब्यूटी दिखलाओ!!
अहा! आज का मानव की क्या सुन्दर धारणाएँ हैं। जिसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास कोई शब्द ही नहीं है। एक समय था जब मानव अपनी जान की बाजी लगा कर दूसरों के हित के लिए अपने प्राण तक उत्सर्ग करने को उत्सुक रहता था। जिसके उदाहरण ऋषि दधिच, राजशिव, दानवीरकर्ण, राजा रन्तिदेव आदि दिये जा सकते हैं।
 परन्तु आज का मानव कैसा है। यह हम सब भली भाँति जानते है। दुराचार और विश्वासघास में तो वह अपने सगे सम्बन्धियों तक को नहीं छोड़ता। उसे अपने गुणों या दुर्गुणों की कोई परवाह ही नहीं है। उसे ईश्वर पर तो रंच-मात्र विश्वास नहीं रहा कि अगर हम गलत कार्य करेंगे तो ईश्वर हमें दंड देगा। चोरी, नशाखोरी, धूसखोरी, जमाखोरी, अनर्ग, प्रलाप तथा विश्वासघात तो आज के मानव की बाल-क्रीडाएं हैं। वह रात-दिन धन दौलत पाने के संकल्पों की माला फेरा करता है।
 आज का मानव विज्ञान में जो भी उपलब्धियाँ आज तक प्राप्त कर सका है। तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सब की प्राप्ति, हमारे पूर्वज ''प्राप्ति'' नामक सिद्धि के द्वारा प्राप्त कर लिया करते थे। तथा योग साधना के द्वारा ध्यान के द्वारा सारे संसार की जानकारी रखते थे।
 हमारे पूर्वजो ने अभी तक के मानवों की तीन श्रेणियाँ ही स्थापित की थी। परन्तु आज मानव चतुर्थ श्रेणी में आ गया सा प्रतीत होता है। चारों श्रेणियाँ इस प्रकार हैं।
1. देव कोटि - वे मानव जो अपना हित त्याग कर हित करते हैं।
2. मानव कोटि - वे मानव जो अपनों का भी हित करते हैं। और दूसरों का भी हित करते हैं।
3. दानव कोटि - वे मानव जो अपना तो हित करते हैं और दूसरों का अहित करते हैं।
4. पिशाच या प्रेत कोटि - वे मानव जो अपना भी अहित कर के दूसरों का अहित करते हैं।
आज के मानव को चाहिए कि वह अपने धर्म पंथ पर चलते हुये कबीर, गुरूनानक, महाप्रभू, चैतन्य देव, मुहम्मद साहब, ईसामसीह, मुईन उद्दीन चिश्ती, आदि के उपदेशों को ग्रहण करें। तथा आत्मनिरीक्षण करें। अपने दुर्गुणों को दूर कर सद्गुणों का विकास करे। जाति रंग भेद, अस्पृश्यता आदि भेदभाव भूलकर ''वसुधैव कुटुम्बकम्, को साकार बनावे। अपने अन्धकार सत्य, दया, क्षमा उदारता, साहसिकता, निडरता, सहिष्णुता, सहनशीलता, अलोलुपता, संयमता, अहिंसा, आदि मानवीय गुणों का विकास करें। तथा विश्व को एक नया मार्ग प्रशस्त करें। हमारे विचार वाणी, कर्म पवित्र हो मंगल भावना से ओत प्रोत हो।
 आज के मानव को इस बात की महती आवश्यकता है कि वह विश्व कल्पमाण की कामना में रत रहने का संकल्प वृत ले, तभी विश्व कल्याण का स्वप्न साकार हो सकेगा।


होली की उपादेयता

श्री मनीष शर्मा
 विश्व मंे भारत उपमहाद्वीप ही ऐसा है जहाँ छः ऋतुओं का काल चक्र पूरा होता है। ऋतुराज वसंत के अगमन से प्रकृति में नवचेतना की बहार छा जाती है। रंग-बिरंग फूलों की चादर वाड़ियों में लहरा उठती है तो ऊसर भूमि में भी अंकुर फूट पड़ते हैं। नई उमंग उल्लास से मादकता नस नस में थिरकने लग जाती है। प्रत्येक प्राणीवान की। फूलों की सुगन्ध से गमकी शीतल मन्द समीर स्फुरित करती हुयी बहती है। खरीफ की फसल से प्राप्त भरपूर अन्न एवं रवी की पूर्ण रूपेण भरी फसल चनों के भाड़ गेहूँ जौ की इठलाती बालियों को भून कर खाने, होरी के सुखद कल्पना, नववर्ष सानन्द समृद्धिदायक होने की कामनाओं मंे उल्लासित मानव मन मादक वातवारण में झूम उठता है। कंठ स्वरों से स्वतः ही कीर्तिगान फूट पड़ता है। अपने प्रिय के प्रति अपने हाथ अधम्य शुभचिंतकों के प्रति।
 आदि से मानव को सर्वप्रथम जिस तत्व का ज्ञान हुआ वह तत्व है अग्नि वेदों में सर्व प्रथम ऋग्वेद का प्रथम यंत्र अग्रि का प्रतीक है। अग्रि के बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता। अग्नि देवता ही सर्वाधर हैं। निरूक्त में सविता को ही अग्नि कहा गया है। इस सृष्टि की उत्पत्ति भी अग्नि से ही निरूपित हुयी है। मानव ने रसना का स्वाद भी इसी से पाया तो भोजन को शरीर में 'जठारग्नि' के कारण पहचानने का आभास भी। रक्त जमा देने वाले भयंकर शीत के त्राण प्राप्त किया अलाव जला कर। मानव गहरे अन्धकार से घबड़ा कर उस महा शक्ति से प्रार्थना कर उठा 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
 ऐसे आत्म आनन्द दायक पर्व पर कोई स्वजन प्रियजन वंचित न रह जाये, अपने से दूर न चला जाय-इसके लिए मानव ने होली के आठ रोज पहले सभी सुभयात्रायें एवं शुभकार्य वर्जित कर दिये जाते हैं। कालान्तर में असुर राज हिरण्यकशिपु ने अपने ईश्वर भक्त पुत्र प्रहलाद के प्राण हरण हेतु अपनी राक्षसी बहिन होलिका के साथ अग्नि पीरक्षा का षडयंत्र रच कर आठ रोज पूर्व ही इस सामूहिक अग्नि पूजन अलाव को असुर राज के निर्णय से क्षुब्ध होकर सत्तप्त जनों ने इन आठ रोज के सभी शुभ कार्यों का परित्याग कर दिया। ईश्वर भक्त प्रहलाद अग्नि परीक्षा में खरा उतरा।
 मानव समुदाय ने जब यह दृश्य देखा तो आनन्द से झूम उठा मस्त हो गया। तथा उस प्रकृति की अद्भुत देन रंग विरंगे फूलों के रंगों से अपने प्रिय स्वजनों बन्धु बांधकों को रंगना शुरू कर दिया। कुमकुम केषर गुलाब मिश्रित सुगन्धित पावन जल से सरोवर कर दिया धरती के कण को। तभी से प्रारम्भ हुयी रंग लगाने की प्रथा का सुखद स्वरूप।
समानी वः आकृतिः समानाहृदयनि वः
समान यस्तु वो मनो यथा वः सुस सहासति
 आप सब के संकल्प अध्यवसाय एक प्रकार के ही आप सब के हृदय मंे एक रंग स्तर मन सत्य की कामना हो। आप सब के अन्तः करण में जो सत्य है शिव है-सुन्दर है जो समाज रूप से शुभकारी है-उसी की पूर्ण कृपा समान रूप से आप सब पर हो।
सबके लिए एक, एक के लिए सब समर्पित हो।


पुत्री

मनोज कुमार शर्मा
(1) ''हा दैव! क्या मेरे भाग्य में बदा था?मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था?''
पुरूषोत्तम दादा अपने गाँव के पुरोहित थे। वे ब्रह्माणों में उपाध्याय थे। बहुत गरीब थे। वर्ष का कोई ही ऐसा सौभाग्य का दिन होता, जिस दिन उन्हें और उनके बच्चों राजेश और विमला को पेट भर रोटी मिलती। राजेश 13 वर्ष का था तथा बिमला 16 वर्ष की बालिका थी।
गाँव के लोग रोज न सही तो होली दीवाली को अवश्य प्रसन्नचित रहते। मनोविनोद करते। परन्तु पुरूषोत्तम दादा के मुख पर बसन्त में भी प्रसन्नता की रेख न झलकती। हमेशा उनके घर में गमी सी रहती। बिमला को देखते ही उनके नयनाम्बर से आँसू टपकने लगते। हृदय अधीर हो जाता। रह रह कर कराह उठते ''हा दैव! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था। मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था।
 बैसाख का महीना था। सुबह 8 बज चुके थे। ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। पक्षी बोल रहे थे। दीप्तिमान दिनकर प्रसन्नता पूर्वक दैनिक यात्रा में चल पड़े थे। आज पुरूषोत्तम दादा के मुख पर प्रसन्नता थी। कहीं की तैयारी कर रहे थे एकाएक आवाज आयी।
''दादा! जल्दी तैयार होइये।'' पुरूषोत्तम ने दरवाजा खोला। राजा को द्वार पर खड़े देख बोले ''तैयार हो गये राजा। आओ बैठो! मैं शीघ्र ही आता हूँ।'' ऐसा कहते हुये पुरूषोत्तम ने चारपाई बिछा दी और घर के भीतर चले गये।   
(2) भगवान भुवन भाष्कर तेजी से सर पर चमक रहे हैं। हवा कुछ मन्द हो चुकी है। धूप चमचमा रही थी। पास में कोई भी वृक्ष न था। गाँव भी दूर है। तीन पुरूष ऐसे समय में चले जा रहे हैं।
''अभी कितनी मंजिल है।'' ''कोई लगी है। राजा!  यहाँ कहीं पानी न मिलेगा।''
''यहाँ तो नहीं मिल सकता दादा। थोड़ी दूर और चलो आगे उस कुयें पर पिया जायेगा'' राजा ने कहा। कुछ दूर जाने पर पुरूषोत्तम ने फिर कहा ''राजा! अब नहीं चला जाता। इससे तो मृत्यु ही भली।'' ''धैर्य रखो दादा! अब की काम बन गया मानो मुक्ति मिल गयी।'' राजा ने पुरूषोत्तम से कहा। ''बन जाय तब तो ना।'' पुरूषोत्तम ने उदास होकर कहा। ''ईश्वर पर भरोसा रखो। वह चाहे तो सब ठीक हो जायेगा।'' राजा ने ढाढस बंधाते हुये पुरूषोत्तम का मुख कमल की तरह खिल गया। मानो रंक को निधि मिल गयी। सारी थकान और प्यास गायब हो गयी। प्रसन्न मुद्रा में बोले ''अच्छा राजा! चला! वहीं पानी पियेंगे। पहले बातचीत तो कर लो।'' पुरूषोत्तम की बातचीत सुनकर राजा, राजेश और पुरूषोत्तम की बातचीत सुनकर राजा, राजेश और पुरूषोत्तम दादा के साथ शुकुल के बैठके की ओर चल दिये। सभी प्रसन्न हैं। पुरूषोत्तम ने दीन भाव से प्रार्थना की। 'भगवान! अबकी बार काम करो। शुकुल के कण्ठ में बसो। शादी तय हो जाए! घर पहुँचते ही कथा सुनेंगे।'' इस प्रकार सभी प्रार्थना करते हये आगे बढ़े। 
(3) एक युवती अपने दृग बिन्दुओं से धवलित सुगंधित पुष्पों की माल पिरो रही है। हृदय में तीर सा लगा। हृदय व्याकुल हो उठा। आँखों में आँसू निकल पड़े। हाथ रूक गये। माला पिरोना बन्द हो गया। एक चीख के साथ बोल पड़ी ''हाय मेरे कारण ही दादा और राजेश को इतना दुःख उठाना पड़ रहा है। मैं कितनी आभागिन हूँ। खुद तो दुख सह ही रही हूँ साथ ही भाई बाप को भी ले डूब रही हूँ। भगवान! अब मेरे भाई बाप को इस दुःख से मुक्त करो।'' ऐसा कहती हुयी कुछ धीरज बाँधा। करे क्या। माला बेचकर ही सही। किसी न किसी प्रकार खाना आदि खिला कर अपने भाई बाप की तकलीफ कम करना चाहती है। माला पिरोना शुरू किया। आँखों से आँसू अब भी जारी है। द्वार पर किसी की आहट सुनाई पड़ी,धीरे-धीरे दरवाजा खुला। शान्त रूप से शान्ती रूप से शान्ती अन्दर आयी विमला की आँखों में आँसू देखकर कहा ''विमला! पागल तो नहीं हो गयी। जब देखो रोती ही मिलती हो। सदैव का रोना भी ठीक नहींे होता। कुछ तो धीरज बाँधों।'' शान्ती को देखते ही विमला ने आँसू पोछे तथा मुद्रा बदलने की चेष्ठा करते हुये दवे स्वर में कहा ''क्या करूँ शान्ती?अब नहीं सहा जात। दादा तथा राजेश की हालत नहीं देखी जाती है। मुझे अपनी कोई चिन्ता नहीं है। चिन्ता जो है सो भाई बाप की। जो मेरे लिये इतने कष्ट सह रहे हैं। मुझे क्या न भी कुछ हुआ तो मर कर तो शान्ति पा ही सकती हूँ।'' ''घबड़ाओ नहीं बहिन! समय सदैव एक सा नहीं रहता। धैर्य रखा! अबकी भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो गया।'' इस प्रकार कहते हुये शान्ती ने आगे कहा ''लो यह आटा! खाना बनाओ। दादा भैया आते होंगे। थके भूखें होंगे खाना खिलाना। ''नहीं बहन, मैं यों नहीं लूँगी। दादा ने शिक्षा दी है कि बिना किसी प्रकार की सहायता किये किसी से कोई चीज कभी न लेना चाहिए। या तो हमें कोई काम बताओ वरन् ऐसे मैं नहीं लूँगी बहन।'' विमला ने शान्ती से कहा। विमला की बात पर शान्ती ने कहा ''बहन मैं तुम्हें अपनी तरफ से देती हूँ। जाओ खाना बनाओ। घर ही तो यह भी है।'' ''नहीं बहन! कुछ तो कहना ही पड़ेगा'' विमला ने कहा। शान्ती ने कहा 'अच्छा बहन! यदि यही इच्छा है तो मुझे यह माला दे दो।'' ऐसा कह कर विमला प्रसन्न मुख माला पिरोने लगी।
(4) बेनी माधव शुक्ल अपने बैठके में बैठे थे। बगल में चारपाई पड़ी थी। राजा राजेश तथा पुरूषोत्तम के साथ जाकर चारपाई पर बैठ गये। ''कहो भाई राजा! कैसे कष्ट किया आज यहाँ तक ।'' बेनी माधव ने राजा से पूछा। ''यह हमारे पुरोहित जी हैं। बहुत गरीब है। अपनी लड़की की शादी आपके श्याम बाबू के साथ करना चाहते हैं। इसी सम्बन्ध में आया हूँ।'' राजा ने कहा। ''ठीक है। परन्तु ----'' बेनीमाधव आगे कुछ बोल न सके। ''रूक क्यों गये शुकुल जी! जो बात हो साफ-साफ कहो।'' राजा ने बेनीमाधव से पूछा। ''और कोई बात नहीं राजा! परसों परोसिन के भागीरथ मिश्रा आये हुये थे। लड़की मिडिल पास थी। वे 800 रु0 दहेज में देना चाहते थे। और हम 1000 माँग रहे थे। रही बात आपकी। आप तो हमारे मित्र ही हैं। जैसे हमारा लड़का वैसे आपका। जैसा उचित समझें तैं कर लें। यदि आप ही बता दीजिए शुुकुल जी। पं0 जी की भी स्थिति हम बता चुके, अब आप भी हैं पं0 जी भी हैं, तैंकर लीजिए।'' राजा ने पीछा छुड़ाते हुये कहा। ''शुकुल जी हम बहुत गरीब हैं केवल लड़की ही हमारे पास समझिये। राजा जी सब हालत हमारी जानते हैं। अब हम आपकी शरन में आये हैं। जैसे बने धर्म रखिए जैसी हमारी लड़की वैसे आपकी।'' पुरूषोत्तम ने हाथ जोड़कर बेनीमाधव से दीन शब्दों में कहा। ''अरेे भाई आप गरीब हैं तो 100, 200 कम दे दीजिए।'' ''हमारे पास इस समय 800 पैसे का भी ठिकाना नहीं हैं शुकुल जी। हाँ लड़की अलवत् योग्य और सुन्दर है। उसमें कोई, सक नहीं है। राजा से पूँछ सकते है। जो कुछ हम छिपाते है।'' ''हाॅ! लड़की तो सुन्दर सुशील और योग्य है'' राजा ने बेनीमाधव से कहा। ''योग्यता और सुन्दरता को चूल्हे लगाना है पर जो चार जगह की रीति है, वही हम भी माँग रहे हैं। क्या अधिक माँग रहे हैं।'' बेनीमाधव ने कुछ जोश से कहा। ''आपके लिये नहीं परन्तु मेरे लिए तो पहाड़ है शुकुल जी'' राजेश ने कहा। ''अरे पहाड़ है तो बैठाले रहो। कहीं सेंत की शादी थोड़े ही हो जाती है।'' क्रोध से बेनीमाधव ने कहा। शुक्ल जी शादी कर लीजिए गरीब है। आपका भी भला होगा। जो होगा 100, 200 हम चन्दा लगा के दे देंग।'' बेनीमाधव ने कहा। ''शुकुल मैं कुछ नहीं दे सकता। मेरे कन्या का धर्म आप ही के हाथ है चाहे राखें चाहे बोर दें।'' रोते हुये पुरूषोत्तम ने अपना मस्तक बेनीमाधव के पैरों पर रख दिया। ''तो क्या तेरे लिए लड़के की जिन्दगी खो दूँ। चला है असगुन करने। जाइये शादी नहीं होगी।'' बेनीमाधव पैर छिटक कर अन्दर चले गये। सभी निराश हो गये। यह 8 वीं बार पुरूषोत्तम को दहेज के कारण लौटना पड़ा। अपने भाग्य पर रोते घर की ओर चल दिया।
(5) दिन भर की मंजिल के बाद दैनिक पथिक आराम की लालसा से अस्ताचल पर जा डटा। खग वृन्द मोहक स्वरों से जयघोष कर रहे थे। पवन भी मंद गति से स्वागत कर रही थी। पवन भी कमलिनी कुल अत्यन्त दुखी था। पुरूषोत्तम दादा अपनी चारपाई पर पड़े थे। एकाएक युवती विमला की मूर्ति उनके सामने आ उपस्थित हुई। ध्यान आते ही आँखां में आँसू आ गये। ''हे सूर्य देव। क्या मेरी विमला कभी सुख ऐश्वर्य की अधिकारिणी न हो सकेगी। अब आप ही मेरे धर्म की रक्षा कीजिए। मेरी विमला का सोहाग अमर कीजिए।'' पुरूषोत्तम ने रोते हुये प्रार्थना की। पुरूषोत्तम की आँखों में आँसू देख राजेश उत्तेजित हो उठा ''दादा अब मुझसे नहीं रहा जाता। खूब देख चुका समझ चुका और सहन कर चुका। मुझे आज्ञा दीजिए। जब तक इन दहेज वालों को दहेज न अदा कर दूँगा तब तक विश्राम न लूँगा।'' राजेश ने क्रोध से कहा। ''नहीं राजेश! ऐसा न सोचो मुझे कुछ दिन जीने दो। ऐसा गलत विचार हृदय से निकाल दो।'' पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछते हुये कहा।
 ''पिता जी, मुझे चैन नहीं पड़ सकता। बहन विमला के जीवन के लुटेरों को उसका मजा चखायें बिना मुझे चैन नहीं पड़ सकता'' राजेश ने कहा। ''बेटा! पागल न बन। बोश का कार्य कितना कठोर, निन्दनीय है। क्या तुम भी बोश का कार्य करोगे।'' पुरूषोत्तम ने आश्चर्य से कहा। ''मेरी समझ में नहीं आता कि आप बोश के नाम से क्यों घृणा करते है।। इन जुल्मी अन्यायियों, स्वार्थियों के प्रति आप इतने दार क्यों हैं, आखिर इन्हीं चाण्डालों के परिवार से ही आज यह दिन देखना पड़ा वरन् बहन बिमला एश्वर्य की अधिकारिणी ही क्यों न हो जाती।'' रमेश ने कहा। पुरूषोत्तम ने कहा ''पुत्र मरते दम तक मैं अपने स्वार्थ सेे दूसरों को दुःखी नहीं देख सकता। यह स्वार्थपरता की बात तो इन दहेज वालों के लिए ही उचित होगी।'' रमेश ने कहा ''आखीर कब तक आप ऐसा सोचेंगे और सहेंगे दादा! सीधी अंगुली घी नहीं निकलता। जब तक ये मेरी अवस्था को प्राप्त होंगे। इनका जुल्म खतम हो न होगा। इन्हीं के जुर्मो से बहन बिमला का जीवन काटों से बिंध गया है। असंख्या गरीब घराने की बहन बेटियों को आत्महत्या करनी पड़ी, तमामों को भ्रष्टाचार के लिए बाध्य होना पड़ा। यह याद आते ही खून उबल पड़ता है।'' ठीक है राजेश! तुम्हें मालूम है कि मैं हमेशा लोगों को शिक्षा देता रहा हूँ कि स्वार्थ के लिए दूसरों को न तड़पाओं। यदि मैं कुमार्ग पर चलूं तो लोग क्यों कर मेरी बात मानेंगे उल्टे खिल्ली उड़ावेंगे। राजेश! शिवि ऐसे महान् व्यक्तियों ने अपना शरीर त्याग कर परोपकार किया है! बेटा! तुम्हीं बताओ यदि मैं अब विचार बदल दूँ तो निन्दा करेंगे।'' पुरूषोत्तम ने राजेश से कहा। ''इस दहेज की प्रथा विवरण करके असंख्य गरीब बहनों का सोहाग अमर करना, क्या पाप होगा। दादा। यदि मेरा बस चले तो इन अन्यायिायों को उन अबलाओं की भाँति एक बार अवश्य तड़पा दूँ।'' राजेश ने क्रोध से कहा। ''बेटा! यह सब ठीक है। परन्तु मेरी बुढ़ापे के तुम ही सहारे हो। यदि तुम्हें मेरा कहना न मानोगे तो---।'' आगे पुरूषोत्तम बोल न सके। गला रूंध गया। आँखों से आँसू टपकने लगे। पिता के आँखों में आँसू देख राजेश का जोशीला हृदय भी क्षण भर के लिए अधिर हो उठा। उसके दृग से बिन्दु लुढ़क कर कपोलों से मिले।  
(6) संध्या का समय है, पुरूषोत्तम के गाँव में आज बड़ी चहल पहल है। आज किशोर की बारात आयेगी। सभी प्रसन्न हैं। बाजे की आवाज गाँव में गूँजने लगी। पुरूषोत्तम दादा द्वार पर बैठे अपने भाग्य पर रो रहे थे। बाजे की आवाज कान में पड़ते ही हृदय व्याकुल हो उठा। बोले 'हे देव! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था। मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था।'' भगवान अब तो दया करो। विमला से छोटी-छोटी लड़कियों की शादी हुयी जा रही है। दहेज वालों, कुछ तो रहम करो। मेरी बेटी की भी नैया पार करो।'' आँखों से आँसू निकलने लगे। खिसक कर कमरे में चले गये। मुँह ढक कर भाग्य पर रोते चारपाई पर बैठ गये धीरे-धीरे द्वार खुला विमला भीतर बोली ''दादा! उठो चलो खाना खालो।'' ''नहीं बेटी! अभी नहीं फिर खा लूँगा।'' ऐसा कर कर पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछे रोते पिता को देख विमला की जटरग्रि भभक उठी सोचा ''आह! मेरे कारण मेरे पिता की यह दशा?हाय! मैं कितनी अभागिनी हूँ। हाय रे समाज आज तूने मुझे अच्छा अवसर दिया। आज ही मैं पुनः भारतीय नारियों की कहानी दुहरा सकूँगी। चुपचाप किवाड़ा खोला और बाहर निकल गई। चलते-चलते जंगल में पहुँच गयी सोचा! आत्म समर्पण कर दूँ। संभव है इससे पिता को दुःख कम हो जाय।'' रात के 10 बज गये हैं। विमला चुपचाप चली जा रही है। एकाएक पीछे किसी की आहट सुनाई पड़ी। विमला ने पीछे देखकर कहा। कौन! तुम कौन हो।'' ''मेरा नाम बोश है।'' युवक ने उत्तर दिया। ''बोश आखीर तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो।'' विमला ने पूछा। ''सिर्फ इसलिए कि तुम्हारी आड़ में मैं उन दहेज वालों को दहेज का मजा चखा सकूँ।'' बोश ने क्रोध से कहा। जब मुझे उन दीन दुखियों की याद आती है। जिन्हें इसी दहेज की प्रथा के कारण आत्म हत्या तथा भ्रष्टाचार के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। बहन! मेरे इस दस्यु वेश ग्रहण करने का केवल यही एक कारण है। हाँ! यह बता कि तुम इतनी रात को यहाँ कैसे?'' ''विमला ने बात छिपाते हुये कहा ''भाई राजेश की खोज में।'' ''अच्छा तो चलो! राजेश दस्यु किले में हैं। वहीं मिलेगा।''
(7) ''अरे यह क्या! इसमें आदमी कैसे दिखाई दे रहा है।'' ''वही चोर! सिघाड़े तोड़ रहा है। परन्तु यह तो बेहोश पड़ा।''
दोनों युवक सरोवर में हिले और एक वृद्ध को खींचकर बाहर लाये। ''हाय! हाय! कैसी सोचनीय दशा है। शरीर पर साबित कपड़े भी नहीं हैं। बेचारा बुड्ढा जाने कहाँ का निवासी है। क्या मुसीबत हो। प्राणान्त की लालशा से सरोवर की शरण ली है'' कुछ अन्धेरा हो गया था। अन्धेरी रात थी साफ सुझता नहीं था। दोनों युवकों को बुड्ढे की दशा पर तरश आया उन्होंने उसे कन्धे में उठाया और घर ले आये।
''कहो राजेश! यह क्या है।''
''बेचारा गरीब वृद्ध। इसकी दसा पर मुझ दस्युओं का भी हृदय पिघल गया।''
''तुमने बहुत अच्छा किया। हमने विमला को मरने से बचाया। आप लोगों ने वृद्ध को। आज का दिन धन्य है। जन्म के पाप से मुक्त हो गये।'' --बोश! तुमने विमला की जान बचाई। कहां है यह विमला! कहां की रहने वाली है।'' बोस-''वही विमला। जिसे तुम अच्छी तरह जानते हो।'' राजेश-''बोश हमारा हृदय फटा जा रहा है। सच बताओ। कौन और कहाँ है।''
बोश-'वही राजेश। तुम्हारी ही बहन विमला।' राजेश-मेरी बहन विमला। कहां है। ''वृद्धा को जमीन पर लिटा दिया और विमला की ओर बढ़ा। विमला भी भाई राजेश को पहिचान गयी। उसे गले से लगा लिया। ''भैया राजेश! तुम धन्य हो। दस्युवेश में भी तुमने वृद्ध को बचाया धन्य। चलो उसकी चिकित्सा करनी चाहिए। बाद में मेरी कहानी। सभी वृद्ध को घेर कर बैठ गये दीपक उठा कर नजदीक लाया गया। विमला ने ही वृद्ध के मुख से कम्बल हटाया। मुख देखते ही चिल्ला उठी। ''दादा! दादा! दादा! आपके प्रस्ताव हेतु मैंने आत्म हत्या उचित समझी थी। आप पहले ही चल दिये हाँ दादा।'' विमला मूर्छित होकर गिर पड़ी।
(8) ''पुत्री विमला! क्या तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करोगी, मेरे वचन का पालन करोगी।'' पुरूषोत्तम ने कहा। विमला पुरूषोत्तम की बात सुनकर बोली ''दादा! मैं आपकी प्रत्येक बात मानने को तैयार हूँ। आप शीघ्र ही आज्ञा दीजिए।'' 
 ''पुत्री! मैं तुम्हें आज से बोष के हाथ सौंपता हूँ जिसका नाम सुनने मात्र से मुझे घृणा थी, समाज के द्वारा पंगु बना दिये जाने पर आज से बोश को दामाद के रूप में स्वीकार करने का निश्यच कर लिया है। क्या तुम मेरे अपराध को क्षमा करके मुझे पुत्रि-भार से मुक्त करोगी।'' पुरूषोत्तम ने आँसू पोंछते हुये करूण स्वर में विमला से कहा। ''दादा! मुझे आपकी प्रत्येक बाद मंजूर है।'' विमला ने उत्तर दिया। विमला ने इस उत्तर को सुनते ही पुरूषोत्तम का मुख कमल के समान खिल उठा। राजेश को बुलाया। उससे भी पूछा। राजेश ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब पुरूोत्तम ने वोश को बुलाया और अपनी पुत्री विमला का उसके साथ विवाह कर दिया। बोले ''पुत्री! मेरी अभिलाषा, पूर्ण करना। अपने संतान के बल पर समाज के अन्धकाल को दूर करना।''
हृदय और मस्तिष्क
डाॅ0 जगदीश शर्मा 'निर्मल', एम0 ए0 पी-एच0 डी0, प्रबन्ध ''भौतिक वादी युग ने मनुष्य को यंत्रवत बना दिया है। भौतिकता की अधिकता के कारण हृदय और मस्तिष्क का जो सुखद सम्बन्ध था वह विच्छिन्नहो गया है मानवता में स्वार्थ हिंसा और घृणा का अधिक्य हो रहा है। लेखक ने हृदय और मस्तिष्क के कल्याणकारी सम्बन्ध के विषय में अपने विचार प्रगट किये हैं।''
उत्थान-पतन जीवन-मरण दुःख-सुख एवं दिन-रात का जो शाश्वत सम्बन्ध है, वही सम्बन्ध हृदय और मस्तिष्क के मध्य है।
 शरीर में गर्दन के ऊपरी हिस्से को जिसमें आँख, नाक, मुंह, शिर आदि अंग शरीर के प्रहरी की भाँति खड़े हैं- इसी  भाग के अन्दर सोचने विचारने एवं अनुभव की सूक्ष्म तत्व रूपी शक्ति को मस्तिष्क कहते हैं। मानव के पास यही वह दैवी देन है कि जिसके बल पर वह श्रेश्ठतम प्राणी सिद्ध हुआ है। प्रगतिशील युग की सम्पूर्ण क्रियाओं का केन्द्र बिन्दु मस्तिष्क है! इसे शरीर का नायक कहो पालक कहो अथवा कर्ता कहो।
 बुद्धि मस्तिष्क की एक मात्र परामर्श दात्री है, किन्तु मस्तिष्क के आदेश की अवहेलना करना उसके सामाथ्र्य की बात नहीं! जिस प्रकार शरीर में आत्मा का वाश है उसी प्रकार मस्तिष्क में बुद्धि का! इसका रूप रंग देखने को न मिलेगेा, किन्तु इसके अस्त्वि को स्वीकार न करना किसी अविवेकी व्यक्ति के ही साहस के सम्भव है।
 मस्तिष्क के प्रत्येक आदेश पर बुद्धि अपना निर्णय देती है, बुद्धि के निर्णय में अतीत, वर्तमान, एवं भावी की झाकियों का समावेश होता है! अर्थात् किसी भी कार्य का क्या रूप रहा अथवा अमुक कार्य से मिलते जुलते कार्योे का क्या रूप होगा! तथा इस विशिष्ट कार्य का क्या रूप है एवं आगे चलकर इसकी क्या रूप रेखा बनेगी बुद्धि इन सब पर गम्भीरता पूर्वक चिार करती है!
 विषय-मंथन के बाद तत्व रूपी निर्णय मस्तिष्क के समक्ष प्रस्तुत करती है। मस्तिष्क निर्णय को स्वीकार भी कर लेता है किन्तु कभी विशेषाधिकार से निर्णय को ठुुकरा भी देता है! परिणाम अच्छे भी होते हैं बुरे भी! यह आवश्यक नहीं कि बुद्धि का पत्येक निर्णय अपने में पूर्ण एवं सही ही हो। हाँ अधिकार सही होते हैं। किन्तु जब बुद्धि स्वार्थ के सहयोग से किसी विषय पर विचार करती है तब व्यक्तिगत निष्ठा से पूर्ण मानवी धरातल पर उपहास के कारण अवश्य बनते हैं। इसके अतिरिक्त दैवी परिस्थितियों एवं आकस्मिक घटना मंे बुद्धि के निर्णय में परावर्तन ला देती है। यथा परिणाम भी निम्न दशा में होते हैं। अस्तु कभी-कभी बुद्धि की अवहेलना भी कल्याण कारी हो जाती है।
 मनुष्य की प्रवृत्तियों के अनुसार ही बुद्धि अपना आसन ग्रहण करती है। एक विवेकशील व्यक्ति चोरी करके अपनी इस विवेकशीलता पर लज्जा और ग्लानि का अनुभव करेगा वही कार्य एक अशिक्षित एवं संकीर्ण वृत्ति का व्यक्ति करेगा तो सम्भव है वह अपनी इस धृष्टता युत्त चातुरी पर प्रसन्न ही हो! प्रथम प्रकार के व्यक्ति के मस्तिष्क ने जब चोरी करने की घोषणा की होगी तब निश्चय ही बुद्धि ने सौ बार चोरी न करने का विरोध किया होगा और वही कार्य जब अशिक्षित जीव ने किया होगा तब इस बुद्धि ने दो एक बार ही विरोध किया हो सम्भव है न भी विरोध किया हो। 
 सुसंस्कृत व्यक्तियों की बुद्धि अनुचित कार्य करने का विरोध करती है! समाज में उनका स्थान! उन्हें अपने कृत्य पर सोचने की विशेष क्षमता देता है! यह भी सही है कि शक्ति एवं साधन के अभिमान में चूर श्रेष्ठतम व्यक्ति भी अमानवीय व्यक्तित्व कर परिचय देते हैं, किन्तु जब उनके जीवन में ऐसी घटनायें घटने लगे तो उनके अस्तित्व का अवसान समझना चाहिए!!
 मस्तिष्क कार्य के प्रति करना है- हृदय से करूण दया, क्रोध, भय, घृणा आदि भाव लेकर बुद्धि अच्छे और बुरे उचित और अनुचित विचार का परिणाम की ओर इंगित करती है।
 मस्तिष्क यदि विचारों की गहराई नापने का साधन है, तो बुद्धि विचारों का सागर है, जहाँ से भाव तरेंगे उठकर विचारत्मक नौका पर फल रूपी मल्लाह का स्वागत करती है। हृदय से जैसे-जैसे भाव उठेंगे बुद्धि वैसा ही विचार करेगी, अतः यदि कहा जाय कि बुद्धि हृदय की चेरी है तो अतिशयोक्ति न होगी।
 किसी के दुख से दुखी न होना, सुख से प्रसन्न न होना हृदय हीनता का प्रतीक है! हाँ यदि व्यक्तिगत किसी शत्रु के प्रति ऐसी भगवान बन जाय तो क्षम्य है, किन्तु यदि यह भावना प्रवृत्ति बन जाय तो अवश्वमेव ऐसा व्यक्ति स्त्री हो या पुरूष, बालक हो या वृद्ध, कठोर, पत्थर, निर्दयी अथवा जो कुछ भी इसी अर्थ में कहा जाय थोड़ा ही समझना चाहिए।
 अब प्रश्न उठता है कि हृदय पत्थर कठोर समान कठोर भी होता! जिसमें दया प्रेम सहानुभूति का अभाव होता है! जिसमें स्नेह, करूणा, परोपकार की भावना मिट जाती है ऐसा जीव कठोर से कठोर, पतित से पतित दानवी कुकृत्य को सरलता से कर लेता है! मनुष्यों की हत्या उसके लिए कीड़े मकोड़ो से भी कम महत्व रखती है! दूसरे की इज्जत से वह खिलवाड़ कर सकता है! समाज का भय आन्तिरिक ग्लानि एवं राजकीय आतंक उसके कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाते! समाज उन्हें हृदय से सम्मान नहीं देता-किन्तु 'बिन भय होय न प्रीत' तुलसी दास इन शब्दों का लाभ उठा कर यह लोग भी समाज से सम्मान करा लेते हैं! डाकू, चोर, व्यभिचारी कातिल आदि सब इसी पथ के पथिक हृदय कितना व निर्दयी हो सकता है इस पर हमने विचार किया अब हृदय के दूसरे पक्ष पर भी विचार करना आवश्यक है! यह हृदय का दूसरा पक्ष पहले पक्ष की विपरीत दिशा का नेतृत्व करता है! किसी को दुःखी देख कर घन्टों उस दुःख का अनुभव करना, किसी पीड़ा देख कर अपनी आँखों को सावन भादों की भाँति अश्रु वर्षा करना! हाय! यह कितना दुःखी है। भगवान ने इसे क्यों इतना कष्ट दिया! इसकी पीड़ा को मैं कैसे हरण कर पाऊँ! आदि भावों में स्वयं अपने को वैसा ही कष्टमय अनुभव करने लगा! तथा किसी को हर्षित, आनन्दित एवं सुखी देख कर स्वयं आनन्द का अनुभव करने लगा तथा तदाम्य की स्थापना कर लेना एक दयालु, सौहार्द एवं साधु हृदय की निशानी है।
 प्रश्न उठता है कि पत्थर अधिक कठोर मोम से अधिक तरल एक हृदय के यह दो भिन्न रूप हो जाते हैं?हृदयों की भिन्नता में वतावरण एवं परिस्थितियों तथा वंशानुक्रमिकता ही मूल कारण हैं! व्यक्ति विशेष का पालन पोषण जैसे वातावरण में होगा उसका हृदय वैसा ही बनेगा! किन्तु पुनः प्रश्न उठता है कि एक ही व्यक्ति कभी कठोंरता एवं कभी दयालुता का परिचय देता है। मनुष्य जाति हत्या करने वाला भी चीटियों को चीनी चुगाता देख जाता है क्यों?यह परिस्थितियाँ हैं जो व्यक्ति की मनोदशा एवं प्रवृत्तियों को बदल देती है जिससे हृदय परिवर्तन के लिए बाध्य हो जाता है!
 आज के वैज्ञानिक युग के प्रगतिशील मानव बुद्धि एवं मस्तिष्क के समन्वय से जो नवीन संस्कृति पर सृष्टि का झीना आवरण देता जा रहा है! उसका रूप निरन्तर कल्याणकारी होगा यह नहीं कहा जा सकता! हाँ अप्रा कृतिक एवं अमानवीय प्रवृत्तियों के पनपने की निरन्तर सम्भावना बढ़ती जा रही है! विश्व रंग मंच पर स्वार्थी का यह अभिनय खेला जा रहा है कि मानवता निशिवासर सशंकित क्षणों में जीवन व्यतीत कर रही है। ऐसा क्यों है?यदि कुछ समय के लिए ही सही भूल से अथवा उपेक्षा भावना से ही विचार कर लिया गया होता तो निश्चय ही यह पहेली न रह जाती!! वस्तुतः मस्तिष्क की कलाकारी में मानव ने हृदय के योग से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया। हृदय निरादर के साथ मस्तिष्क का प्रत्येक कृत्य अकल्याणकारी ही होगा। आधुनिक युग इसका प्रतीक है।
 अस्तु यदि भावी जीवन को तरह लचीली चीज और कोई नहीं है। बन्द की भाप की तरह जितना दबाव इस पर पड़ता है उतनी ही शक्ति से यह दबाव के साथ बढ़ती है, जितना अधिक का इस पर आ पड़ता है उतना ही अधिक यह उसे पूरा कर देती है। अज्ञात
मनुष्य का हृदय एक अथाह सागर है, जहाँ कमल के फूलों के साथ रत्क की प्यासी जोंकें भी उत्पन्न होती रहती हैं। अज्ञात
हाथ हाथ का अनुसरण करते हैं, नेत्र पर ठहरते हैं और इस प्रकार माहरे हृदय का कार्य प्रारम्भ होता है।