Tuesday, October 29, 2019

कम्यूनिकेशन स्किल की कला

 आज के भौतिक युग में रोजी, रोटी और मकान की आवश्यकताओं से परे इंसान की एक अन्य आवश्यकता भी है अनय लोगों से संवाद, यानी कैम्पू स्किल स्थापित करने की आवश्यकता-अब्राहम मोस्लो की यह प्रसिद्ध उक्ति मानव सभ्यता के जन्म से जुड़ी है, जहाँ एक व्यक्ति दूसरे से अपनी इच्छाओं, आशाओं, अपेक्षाओं तथा भावनाओं को एक दूसरे से शेयर करना चाहता है। दरअसल एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य तक अपने मनोभावो-उद्गारों और विचारों को विभिन्न माध्यमों, यथा-वाणी, लेखन या अन्य इलेक्ट्राॅनिक तकनीकों द्वारा पहुँचाता ही कैम्पू कहलाता है। इन तीनों में माउथ कॅम्यूनिकेशन सबसे पुराना होने के साथ-साथ सर्वाधिक प्रभावशाली भी है। क्योंकि इसमें वक्ता प्रवक्ता का संदेश श्रोता यानी सुनने वाले तक सीधे और तेजी से पहुँचाता है। हाँलकि डायरेक्टर कैम्पू में यह खतरा भी होता है कि कहीं वक्ता के विचार कठिन भाषा एवं प्रवाह ममी भाषा और आक्रामक प्रदर्शन श्रोता को भ्रमित करके उसको निष्प्रभावी न बना दें। अतः माउथ कॅम्यूनिकेशन में वक्ता को सरल भाषा स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण, आवाज में भापानुकूलता उतार-चढ़ाव चेहरे का भावपूर्ण प्रदर्शन आदि का ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि कॅम्यूनिकेशन का उद्देश्य है अपने विचारों की बिना किसी भ्रम के स्पष्टता के साथ श्रोता तक पहुँचाना। कॅम्यूनकेशन तभी सफल माना जाता है। जब वक्ता और श्रोता दोनों उसके अर्थ को ठीक-ठीक समझने का प्रयत्न करें।
 आज के दौर में चुनौतीपूर्ण जीवन में कसी भी क्षेत्र में सफलता पाने के लिए सशक्त व प्रभावशाली कैम्पू की जरूरत पड़ती है। क्योंकि इसमें व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व की झलक मिलती है। हर व्यक्ति को यह बात गाँठ-बाँध लेनी चाहिए कि कोई जन्म से ही प्रभावी कॅम्यूनिकेशन की क्षमता लेकर पैदा नहीं होता। वस्तुतः कॅम्यूनिकेशन एक कला है जिसे निरंतर अभ्यास द्वारा सीखा जा सकता है। जिसकी भाषा में सरलता, सुगमता विचार में गहनता व स्पष्टता, अभिव्यक्ति में ओज तेज व प्रवाह तथा वाणी में जादू होगा श्रोता मंत्र मुग्ध होकर उसकी बातों को ग्रहण करेगा। कैसे हासिल करें प्रभावी कॅम्यूनिकेशन इसके लिए निम्नलिखित तीन चरणों का ध्यान रखें।
 1.  बाधाओं को पहचाने व दूर करें।
 2.  कॅम्यूनिकेशन को बताए प्रभावशाली।
 3.  श्रोता का रखें पूर्ण ध्यान।
कला सीखने के लिए जरूरी है कि प्रभावशाली अभिव्यक्ति के रास्ते में आने वाली बाधाओं को पहचान कर उन्हें दूर करें। संवाद नहीं कर पाना विचारां की स्पष्टता और सारगर्भित तरीके से अभिव्यक्त न कर पाना अशुद्ध कठिन भाषाा का प्रयोग करना, विषय की अच्छी समझ न होना, आवेश में अपनी बात रखना, श्रोता की जरूरत समझे बिना अपनी बात करते रहना।
 प्रभावशाली व्यक्तित्व के लिए भाषा की अच्छी समझ जानकारी, तर्कपूर्ण शैली, आवाज में मधुरता और बुलंदी, सुगंठित विचार होना जरूरी है। लगातार प्रयास से इसे डिवलप किया जा सकता है।
 शैक्षणिक, सामाजिक-आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक परिवेश का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। यदि श्रोता प्रबुद्ध है तो समझदार की भाषा और विवेचना शैली प्रभावी होती है। यदि श्रोता वक्ता की अपनी स्थिति से भिन्न है तो उसके स्तर पर पहुँचकर उसके अनुकूल भाषा का प्रयोग कर कैम्प स्थापित करना चाहिए। इस कला के माध्यम से कला सीखकर कोई भी लक्ष्य हासिल करने में सफल हो सकते हैं।


कौन माँ

    माँ संक्षिप्त होते हुए भी कितना व्यापक और सारगर्भित शब्द है। इसीलिये तो माँ को जन्मभूमि के समान तथा स्वर्ग से महान बताया गया है। वस्तुतः माँ का स्थान जन्मभूमि से भी बढ़कर है क्योंकि वही तो मानव सृष्टि का मूल स्त्रोत है। वैदिक काल से ही माँ का सर्वोच्च स्थान रहा। सत्य कहा जाये तो माँ देवी के रूप में धरा पर अवतरित होकर सृष्टि में संचालन का गुरूतर भारत वहन करके अपने विराट स्वरूप का दर्शन कराती है।
 जन्म से लेकर सात वर्षो। तक बालक पूर्णतया माँ पर आश्रित होता है। इसी बीच माँ अपने बालक के भविष्य का निर्माण करती है। इसी बीच बालक की शिक्षा की नींव मजबूत होती है। किसी ने सत्य ही कहा है-
 ''यदि बालक की शिक्षा की नींव सुदृढ़ व सुन्दर होगी तो बालक उन्नति करेगा'' बालक अस्थिर चर्ममय वह आकृति है जिसे माॅ का स्नेह, त्याग, और तपस्या, उसे शारीरिक विकास प्रदान करती है। और पिता का अनुशासन, नैतिकता तथा गंगा का अमृत सिंचन करता है जिससे बालक संसार में पुष्पित तथा पल्लवित होता है। ''शिशु सुन्दर प्रभु का रूप है माँ कोमलता की खान पिता ज्ञान गंगा भरे, बालक बने महान्''।।


साष्टाँग दण्डवत् प्रणाम का महत्व

  आजकल स्कूल, कालेज के बड़े-बड़े शिक्षा शास्त्रियों की शिकायत है कि शिक्षकों के प्रति विद्यार्थियों का श्रद्धाभाव बिल्कुल घट गया है। अतएव देश में अनुशासनहीनता तेजी से बढ़ रही है। इसका कारण यह है कि हम ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट दण्डवत् प्रणाम की प्रथा को विदेशी अंधानुकरण के जोश में छोड़ने लगे है।।
 साष्टांग दण्डवत् प्रणाम का अर्थ है कि साधक और शिष्य का शरणागतभाव जितना प्रबल होगा, उतना ही वह ज्ञानी महापुरूष के आगे झुकेगा और जितना झुकेगा उतना पायेगा। शिष्य का समर्पण देखकर गुरू का हाथ स्वाभाविक ही उसके मस्तक पर जाता है।
 महापुरूषों की आध्यात्मिक शक्तियाँ समस्त शरीर की अपेक्षा शरीर के जो नोंक वाले अंग हैं उनके द्वारा अधिक बहती है। इसी प्रकार साधक के जो गोल अंग हैं उनके द्वारा तेजी से ग्रहण होती है। इसी कारण गुरू शिष्य के सिर पर हाथ रखते हैं ताकि हाथ की अंगुलियों द्वारा वह आध्यात्मिक शक्ति शिष्य में प्रवाहित हो जाये। दूसरी ओर शिष्य जब गुरू के चरणों में मस्तक रखता है तब गुरू के चरणों की अंगुलियाँ और विशेषकर अँगूठा द्वारा जो आध्यात्मिक शक्ति प्रवाहित होती है वह मस्तक द्वारा शिष्य अनायास ही ग्रहण करके आध्यात्मिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है।
 विदेश के बड़े-बड़े विद्वान एवं वैज्ञानिक भारत में प्रचलित गंुरू समक्ष साधक के साष्टाँग दण्डवत् प्रणाम की प्रथा को पहले समझ नहीं पाते थे। लेकिन अब बड़े-बड़े प्रयोगों के द्वारा उनकी समझ में आ रहा है कि यह सब युक्ति-युक्त है। इस श्रद्धा भाव से किये हुये प्रणाम आदि द्वारा ही शिष्य गुरू से लाभ ले सकता है अन्यथा आध्यात्मिक उत्थान के मार्ग पर वह कोरा ही रह जायेगा।
 एक बल्गेरियन डाॅ0 लोजानोव ने इंस्टीट्यूट आॅफ एजेस्टोलाजी की स्थापना की। एक अन्तर्राष्ट्रीय सभा में इस युक्ति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि भारतीय योग में जोशवासन प्रयोग है उसमें से मुझे इस पद्धति को विकसित करने की प्रेरणा मिली''।


औपचारिक शिक्षा और अभिभावक

 मनुष्य अपने जीवन में दो प्रकार की शिक्षा ग्रहण करता है-औपचारिक शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा। औपचारिक शिक्षा उसे शैक्षिक संस्थाओं से प्राप्त होती है जैसे कि विद्यालय, कालेज और तकनीकी संस्थान। इसके साथ ही अनौपचारिक शिक्षा उसे परिवार, समुदाय, समाज और धर्म जैसी संस्थाओं सें प्राप्त होती है। दोनो प्रकार की शिक्षाओं की हमारे जीवन के संवर्धन एवं परिमार्जन के लिये महती आवश्यकता होती है।
 आज के भौतिकवादी आधुनिक तापरस्त विश्व में औपचारिक शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। यह जीवन की आधार शिला होती है। समुचित दिशा निर्देशों के अभाव में यह मनुष्य को लक्ष्यहीन कर देती है। अतः औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में अभिभावकों की भूमिका बहुत कम अभिभावक ऐसे हैं जो अपने बच्चों की औपचारिक शिक्षा के विषय में चिन्तन-मन्थन करते है।
 सर्वप्रथम प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान देना आवश्यक होता है क्योंकि बच्चे कच्ची तैयार मिट्टी के समान होते हैं जिन्हें कोई भी रूप और आकार दिया जा सकता है। अतः यह अभिभावक का कर्तव्य है कि वे निश्चित करें कि अपने पाल्य को वे कैसा शैक्षिक परिवेश देने जा रहे हैं। शिशु या बालक के जीवन रूपी भवन की नींव जितनी सुदृढ़ और अटल होगी। उतना ही उसके जीवन का भवन स्थाई, महत्वपूर्ण और प्रभवशाली तथा समृद्ध होगा। इस अवस्था की शिक्षा भयमुक्त वातावरण में श्रवय एवं दृश्य सामग्री के माध्यम से प्रदान केी जानी चाहिये। बालक या बालिकाइस शिक्षा को स्वयं पर, लदा हुआ बोझ न समझे बल्कि इसके प्रति उसमें स्वयं रूचि उत्पन्न हो ऐसा इस शिक्षा का स्वरूप होना चाहिये।
 इसके पश्चात कक्षा-6 से 8 तक के छात्र उन पनपते हुये पादपों के रूप में होते हैं, जिन्हें जल, उर्वरक एवं प्रकाश की अत्यधिक आवश्यकता होती हैं। यदि उन्हें अनुकूल परिस्थितियाँ और संसाधन तथा मार्ग निर्देश प्राप्त होते रहते हैं तो वे अभीप्सित दिशा की ओर उन्नयन प्राप्त करते हैं। इस अवस्था में छात्र/छात्रायें जहाँ पादप के रूप में होते हैं वही अभिभावक माली की भूमिका का निर्वहन करते है। यही छात्र/छात्रायें भावी पीढ़ी की बगिया की पौध होते हैं।
 कक्षा-9 एवं 10 में छात्र/छात्राओं के कदम किशोरावस्था की ओर बढ़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि उनमें अनेक शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन आते हैं। अतः अभिभावकों को उनके प्रति सहज, सरल एवं मित्रवत होना चाहिये। इस अवस्था में स्पेयर द रोड एंड स्पोइल द चाइल्ड के सिद्धान्त को लागू नहीं करना चाहिए। अरस्तू के अनुसार  We should never be commanding to them instead of directiveand a true guide.'
 कक्षा-11 एवं 12 किशोरावस्था के उत्कर्ष काल हैं। यही है-बौद्धिक ऊर्जा का संग्रह काल। इसी काल में या तो यह ऊर्जा वृद्धि की ओर गमन करती अथवा भिन्न दिशाओं में फैलकर निरूद्देश्य हो जाती है। अतः अभिभावक को बहुत अधिक सावधान एवं सचेत रहना पड़ता है। उन्हें अपने पाल्य के दैनिक क्रिया-कलापों का ज्ञान अवश्य रखना चाहिये। यदि वे लक्ष्य से भटक रहे हों तो उन्हें अपने अनुभूत परिणामों से अवगत कराते हुये निश्चित दिशा एवं लक्ष्य केी ओर प्रोत्साहित करना चाहिये। यही वह अवस्था है जब छात्र/छात्रा को उसके द्वारा प्राप्त परिणाम एवं उसकी रूचि के आधार पर उसे व्यावसायिक शिक्षा की ओर मोड़ा जाता है। यही व्यावसायिक शिक्षा उसके जीवन में सुख और समृद्धि की जननी होती है।
 यदि इस अवस्था में विद्यार्थी भटक जाता है, तो वह देश एवं समाज के लिये अनुत्पादक सिद्ध होता है। वह सुयोग्य नागरिक बनने के बजाय अपराध जगत से जुड़ जाता है। इस प्रकार वह प्रशासन और कानून के लिये भी चुनौती बन जाता है। ऐसी परिस्थिति में वह अभिभावकों में चिन्ताजनित करता है और उनके शान्तिमय जीवन को अशान्त कर देता है।
 लेकिन यहीं यदि उसे उचित व्यावसायिक शिक्षा की दिशा की ओर मोड़ दिया जाता है तो वह सफल, सुयोग्य, सम्पन्न एवं सुशिक्षित नागरिक के रूप में परिणित हो जाता है। अतः अभिभावकों को कर्तव्य हैं कि वे अपने पालय की सभी सुविधाओं का ध्यान रखने के साथ-साथ समयानुसार उसका मार्गदर्शन करते रहें और उद्देश्य के पूर्णता के पथ पर आने वाले अवरोधों को हटाते रहें क्योंकि समय व्यतीत हो जाने के बाद प्रायश्चित के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रह जाता है-
 ''समय चूँकि पुनि का पछताने, का वर्षा जब कृषी सुखाने'' और ''अवसर चूँकि ग्वालिनें गावैं सारी रात'' वाली कहावतें हमारे जीवन में घटित हो जाती है।
 हम प्रायः अपने समाज में देखते हैं कि लोग (विशेषरूप से माध्यम वर्ग) फैशन और दिखावे पर तो पैसा पानी की तरह बहाते हैं। लेकिन और दिखावे पर तो पैसा पानी की तरह बहाते है।। लेकिन अपने पाल्यों की शिक्षा के मद पर ठीक से पैसा खर्च करने से कतराते हैं। यह शिक्षा ही है जो हमें जीवन जीने के सर्वथा उपयुक्त बनाती है और हमें उन्नति के शिखर तक पहुँचाती है। जिस प्रकार शरीर रीढ़ की हड्डी के बिना लचर और असमर्थ हो जाता है, उसी प्रका शिक्षा के बिना समाज और राष्ट्र रूपी शरीर की 'रीढ़ की हड्डी' होती है। अतः हम सभी अभिभावकों को शिक्षा का विशेष ध्यान रखते हुये, इस शिक्षा के मद को व्यय की सूची मेें सर्वोपरि रखना चाहिये। हम सभी अभिभावकों को अपने बच्चों को अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार समुचित शिक्षा अवश्य प्रदान करनी चाहिए जिससे कि वे अपने जीवन में कहीं भी किसी प्रकार के अभाव का अनुभव न करें। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चित ही हम उनके साथ शत्रुता का व्यवहार कर रहे हैं। क्योंकि-
''माता शत्रुः, पिता वैरी, येन बालो न पाठितः।
ते न शोभन्ते संभामध्ये, हंस मध्ये वको यथा।''
आज यद्यपि हमारे समाज में वैचारिक क्रांति आ चुकी है तथापि कतिपय परिवार लिंग-भेद करते हैं अर्थात् बालिकाओं की शिक्षा पर बालकों की अपेक्षा बहुत कम ध्यान देते है। इस विषय में उनका चिन्तन होता है कि बालिकायें विवाह के पश्चात अपना घर-बसा लेती हैं और उनसे पितृपक्ष को आर्थिक सहायता और संबल प्राप्त नहीं हो पाता है। वास्तविकता यह है कि यह ऋणात्मक चिन्तन हमारे समाज, राज्य एवं राष्ट्र को पतन की ओर ले जा रहा है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा सामाजिक शैक्षिक, आर्थिक  तथा राजनैतिक उन्नयन हो तो निश्चित रूप से हमें बालिकाओं की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान केन्द्रित करना होगा क्योंकि प्रसिद्ध शिक्षा-शास्त्री, दार्शनिक एवं हमारे स्वतंत्र भारत के द्वितीय राष्ट्रपति महोदय श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने कहा है-


“Give us good and well-educated mothers and I will give you a developed nation in all respects.”