''बूंद-बूंद से भरती है गागर
स्नेह और बाती से दिया जलता है
खून को पसीनें में बदलो
मेहनत से नसीब बदलता है।''
परिश्रम के पक्ष को प्रतिपादित करती ये प्रेरक पंक्तियां विकासशील समाज के लिए साहित्य का अनुपम उपहार हैं। विधाता की अनुपम सृष्टि-मनुष्य उर्वर मस्तिष्क वाला मनुष्य इन्हीं मस्तिष्कों से साहित्य का सृजन करता है। साहित्य और साहित्यकार की रचना संसार को सुनना समझना और देखना एक अत्यन्त सुखद अनुभव है।
इसी अनुभव का एहसास साहित्य को समाज से जोड़ता है और साहित्य में समाज प्रतिबिम्बित होता है। विद्यार्थी वर्ग अत्यन्त ही कल्पनाशील एवं भावुक हृदय वाला होता है। हर छोटी बड़ी घटना उनके मन पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है। हमने उनकी इसी शक्ति को प्रोत्साहित कर उसे निखरने के पूर्व अवसर प्रदान किए हैं।
साहित्य सामाजिक अभिव्यक्ति का एक स्वरूप है। इस अभिव्यक्ति का सुख सब सुखों से बड़ा होता है। क्योंकि यह पाकर नहीं वरन् देकर मिलता है। ये अभिव्यक्तियाँ कभी आपकी थकान मिटायेंगी, कभी मनोरंजन करेगी, कभी नीरस मन को सरस करेगी, कभी मानसिक पीड़ा के लिए मरहम बनेगी, तो कभी जीवन के झुलसे मौसम में बसंती बयार बनेगी।
अंत में मेरा यही कहना है-
आगे बढ़ना सृष्टि का नियम है
पीछे वे देखते हैं
जिनके आगे राह नहीं होती है
स्थिर वे रहते हैं
जो चेतना शून्य होते हैं।
Monday, October 21, 2019
एक बूँद
शारीरिक शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण शिक्षा का अंग
आधुनिक युग को यन्त्र युग कहा जाता है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि यन्त्रों ने मानव जीवन को इस प्रकार आच्छादित कर लिया है, जिस प्रकार सावन की घनघोर घटा आकाश को ढक लेती है। यदि मानव चाहे भी तो वह यन्त्रों से किसी भी अवस्था में छुटकारा नहीं पा सकता। उसने यन्त्रांे का अविष्कार किया था, जीवन को सुखमय बनाने के लिए परन्तु आज यन्त्र मानव के सेवक न रह कर उसके आश्रय-दाता बन गये हैं। इसी उथल-पुथल में मानव स्वयं भी एक यन्त्र बनकर रह गया है। जैविक खोजों ने इस बात के कई पुष्ट प्रमाण हमारे सामने प्रस्तुत किए हैं जिनमें हमें ज्ञात होता है कि जब से मानव ने यन्त्रों पर आश्रित रहना स्वीकार किया तभी से शारीरिक बल और शौर्य में कमी हुई है। आधुनिक मानव करोड़ों वर्ष पहले मानव की तुलना में तुच्छ अथवा हीन दिखाई पड़ता है। भले ही यन्त्र मानव के असंख्य, असाध्य कार्र्यांे को सम्पन्ना करने के येाग्य बन गये हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि मानव का इस सृष्टि में अस्तित्व बुनियादी तौर पर शारीरिक ही है। शरीर मानव की अमूल्य निधि है, तथा इसे खो कर मानव कहाँ तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकेगा, एक विचारणीय प्रश्न है। यदि मानव अपने शरीर का सदुपयोग नहीं कर सकता, वह अभिवृ(ि और विकास के शिखर को नहीं छू सकता।
यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा केवल मानसिक पहेलियों एवं अठ्खेलियांे का क्षेत्र न रह कर शारीरिक उन्नति का भी साधन समझी जाने लगी है और आज का शिक्षा शास्त्री इस बात पर अधिक जोर देता है कि एक अच्छा मनुष्य वही है जो शारीरिक दृष्टिकोण से हृष्ट-पुष्ट बलवान तथा सक्रिय, मानसिक दृष्टिकोण से तीव्र, संवेगात्मक दृष्टि कोण से सन्तुलित, बौ(िक दृष्टिकोण से प्रखर तथा सामाजिक दृष्टिकोण से सुव्यवस्थित हो। शिक्षा क्षेत्र की अभिनव खोजों तथा नए शिक्षा उपकरणों के अविष्कारों ने मानव कल्याण के लिए कई नए तथ्यों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। उनमें एक तथ्य यह भी है कि आज मानव को एक सुनियोजित खेल अथवा शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम की आवश्यकता है। हमें ज्ञात है कि सदैव परिवर्तित होता वातावरण मानव शरीर और मानव जीवन में असंख्य परिवर्तन लाता है। यह परिवर्तन अभी भी हो रहे हैं। जिनका प्रभाव अतिसूक्ष्म ढंग से मानव पर पड़ रहा है। बहुत से विद्वानों को इस बात का भी भय है कि यदि मानव ने अपने शरीर के उचित उपयोग के इस प्रबन्ध को समाप्त कर दिया तो एक दिन उसका शरीरिक अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।
शारीरिक शिक्षा एक बहुत पुराना विषय है परन्तु आजके युग ने इसे एक अनिवार्य अनुशासन की संज्ञा देकर क्रमब( और सुनियोजित किया है। इसे पाठशालाओं तथा उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका है। परन्तु इस संसार में अधिक संख्या उन्हीं व्यक्तियों की है जो इस विषय और अनुशासन के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते तथा न ही जानने का प्रयत्न करते हैं। वे स्वस्थ भी रहना चाहते हैं परन्तु इस अनुशासन को अपनाने के लिए तत्पर नहीं हैं। इस लिए यह आवश्यक है कि पुरातन अनुशासन के महत्व की जानकारी तथा प्रसार के लिए इससे सम्बन्धित परिभाषाओं, सि(ान्तों एवं तत्वज्ञान की व्याख्या की जाए।
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में छिपे हुए गुणों को अच्छी तरह से विकसित करना है, क्योंकि जन्मजात गुणों के विकास से व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास सम्भव है। एक व्यक्ति अगर तन और मन को एकाग्र न करे तो वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह दो ऐसे पक्ष हैं, जो एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। मानसिक स्तर पर थके हुए व्यक्ति को यदि बल पूर्वक शारीरिक प्रक्रियाएं कराएं तो हो सकता है कि वह इन्हें सन्तुलित एवं वंाछनीय ढंग से न कर सके। शारीरिक शिक्षा, क्योंकि शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शिक्षा है। अतः विद्यार्थी विभिन्न अनुभवों के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक शिक्षा का माध्यम निः संदेह दीर्घ पेशी प्रक्रियायें हैं किन्तु इसका उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्य से भिन्न नहीं है। भारतीय शारीरिक शिक्षा तथा मनोरंजन के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड ने अपनी परिभाषा में शारीरिक शिक्षा व शिक्षा को इस प्रकार स्पष्ट किया है - ”शारीरिक शिक्षा शिक्षा ही है“। यह वह शिक्षा है जो बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा उसकी शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शरीर मन एवं आत्मा के पूर्ण रूपेण विकास हेतु दी जाती है।
आर्कटिक-सागर ;उत्तरी ध्रुव
आर्कटिक यानि उत्तरी ध्रुव जिसे भौगोलिक भाषा में 900 उत्तरी अक्षांश, जो बिन्दु मात्र रह जाता है, के नाम से जाना जाता है। अगर उसे हम पृथ्वी की छत कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यहां विशाल बर्फ के अतिरिक्त आर्कटिक सागर भी शामिल है। यह सागर कई देशों जैसे- कनाडा, ग्रीन लैण्ड, रूस, अमेरिका, आइसलैण्ड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैण्ड की जमीनों को छूता हैै।
उत्तरी धु्रव पर पहुंचने का सबसे प्रथम सफल प्रयास राबर्ट पियरे ने किया। इसके पहले भी कई प्रयास हुए थे। लेकिन वे सफल नहीं हुए। यह व्यक्ति 1908 में इन अन्तरीप तक रूजवेल्ट नामक जहाज में गया। वहां से वह अपने दल के साथ पैदल ही आगे बढ़ा। बारह स्लेज गाड़ियों में उसका सामान लदा था जिसे 133 कुत्ते ;रेण्डियरद्ध खींच रहे थे।
6 अप्रैल 1909 को पियरे अपने साथी मैथ्यू हैनसन और चार एस्किमों के साथ पृथ्वी की उत्तरी-चोटी पर पहुंचा। आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ का विशाल सागर है जिसे अंध महासागर का उत्तरी छोर भी कहा जाता है इस क्षेत्र में वनस्पति कम मिलती है फिर भी लाइकेन, मांस तथा प्लैक्टन नामक पौधे पाये जाते हैं। इस जमीन पर धु्रवीय भालू और कुछ लोग भी रहते हैं। इस अनोखे भौगोलिक वातावरण के कारण यहां रहने वाले लोगों ने खुद को हालात के अनुसार ढाल लिया है यहां पर सर्दियां भीषण बर्फीली और अंधियारी होती है। गर्मियों में सूर्य 24 घण्टे निकला रहता है। यहां का मौसम सर्दियों में शून्य से 400ब् तक नीचे जा पहुंचता है। यहां का सबसे कम तापमान शून्य से 680ब् से नीचे तक रिकार्ड किया गया है।
यहां गर्मियों में भी ठण्ड बनी रहती है। ऐसा समुद्री हलचल के कारण होता है। कई तरह के पदार्थ भी इस क्षेत्र में मिलते हैं, जैसे-तेल, गैस, खनिज आदि। कई किस्म की जैव-विविधता, यहां प्राड्डतिक तौर पर संरक्षित हैं। कुछ समय से यह क्षेत्र पर्यटन उद्योग की दृष्टि में आया है। यहां विश्व के जल क्षेत्र का 1/5 प्रतिशत जल स्त्रोत है। इन्टरनेशनल आर्कटिक साईन्स कमेटी ने गत दस वर्षों में इस जटिल क्षेत्र के संदर्भ में कई नई जानकारियां जुटाई हैं तथा प्रयास भी कर रही हैं।
इस क्षेत्र का सबसे रोचक दृश्य मिडनाईंट-सन और पोलरनाईट है।
शिष्य, शिक्षक और सम्भावना
गुरु और शिष्य का पुरातन काल से अत्यन्त पवित्र, श्रद्धा एवं विश्वास से भरा विशु( निस्वार्थपूर्ण सम्बन्ध रहा है दोनो एक सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। समाज में यदि आज इन सम्बन्धों में कुछ कमी आई है तो इस सम्बन्ध में दोनों को ही विचार करने की आवश्यकता है।
सामान्यतयः हमें अपनी गलतियां ढूंढनी चाहिए न कि सामने वाले की। यदि हम ऐसा कर लेते हैं, तो समझो कि हमने उस पर विजय प्राप्त कर ली। हमें दूसरे के अनुकूल बनने की सोचना चाहिये, न कि हम दूसरे को अपने अनुकूल बनाने की सोचें।
यदि हमें किसी विद्यार्थी को दण्ड देना अनिवार्य लगता है तो हम उसे दण्ड तो दें, किन्तु बाद में उस घटना पर आत्मावलोकन भी करें। एक-दो दिन बाद उस दण्डित किये गये शिष्य को बुलाकर समझाए, कि उसे दण्ड क्यों दिया गया। उसे उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में समझाऐं और विश्वास दिलाऐं कि यदि उसने पूरे मनोयोग से पढ़ाई में मन लगाया तो उसका भविष्य संवर जायेगा और वह अच्छा विद्यार्थी एवं श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। ऐसा करने पर उस शिष्य के मन में यदि दण्ड पाने के समय क्षणिक द्वेष, गलत भावना पैदा हो गई होगी तो स्वतः आपके समझाने के कारण दूर हो जायेगी और वह यह समझने लगेगा कि जो आपने उसे दण्ड दिया, वह उसकी भलाई के लिये था, और उसके मन में आपके प्रति श्रद्धाभाव भी पैदा हो जायेगा। साथ ही स्वयं पर भी चिन्तन करके एक घटना पर विचार करें।
कल्पना करें कि आप से किसी ने बस स्टैण्ड तक पहुंचने का रास्ता पूंछा, और आपने उसे वहां तक पहुंचने का रास्ता समझाया, किन्तु आपके समझाने के बाद भी वह व्यक्ति बस स्टैण्ड तक नहीं पहुंच पाया, तो क्या कभी आपने विचार किया कि इसमें किसकी गलती है, आपकी या उस व्यक्ति की जो बस स्टैण्ड नहीं ढूंढ सका।
यदि आप अपना अहम छोड़कर विचार करें, तो आपकी समझ में आ जायेगा कि आप ही उसे ठीक से बस स्टैण्ड पहुंचने का रास्ता नहीं समझा पाये, जिससे वह अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच पाया।
हमें सदैव प्यार की ताली बजानी चाहिये। ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। एक व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति की ओर हाथ बढ़ाता है, और दोनों हाथ परस्पर पास पास आते हैं तभी प्यार भरी ताली की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है।
यही सिद्धांत गुरु एवं शिष्य के मध्य, मर्यादाओं का ध्यान रखते हुये होना चाहिये। हमें शिष्य की भावनाओं एवं उसके मानसिक स्तर को समझना चाहिये, तथा शिष्य को गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण, विश्वास का भाव अपने मन-मस्तिष्क में समाहित करना चाहिये। गुरु को अपने हृदय में ऊँचा स्थान देना चाहिये। गुरु से जिज्ञासु होकर प्रश्न करना चाहिये और अहंकार से दूर रहना चाहिए। एक अक्षर पढ़ाने वाला भी गुरु होता है। तर्क कभी नहीं करना चाहिए, तर्क तलवार जैसा है।
जब आप किसी से कुछ कहें तो विचार करना कि आपका हृदय अशान्त, दुखी तो नहीं है। सदैव शान्त भाव में ही बोलना चाहिए। क्रोध में शान्त रहना चाहिए। अपने दिल की बात कह, दूसरे के दिल की बात भी सुनें।
शिष्य को अपने शिक्षक के प्रति असीम श्र(ा एवं आस्था होती है। पठन-पाठन के संदर्भ में उसके हृदय में आपके प्रति अपने माता-पिता से भी अधिक विश्वास होता है।
उपरोक्त कथन के सम्बन्ध में हंसानुकरण को बताना समीचीन समझता हूँ। हंस को नीर-क्षीर विवेककारी कहा गया है। अर्थात जल व दूध को मिलाकर हंस को दिया जाय तो हंस दूध को तो पी लेता है, किन्तु जल को पात्र में ही छोड़ देता है। हमारे अन्दर भी ऐसा ही विवेक होना चाहिए कि हंस की भांति हम भी सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई आदि का ईमानदारी से बिना भेद - भाव किये विश्लेषण करें। हंस का यह विशिष्ट लक्षण सभी के लिये विशेष प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय होना चाहिए। यदि हम इस हंसानुकरण को आत्मसात कर ले तो हमारा जीवन तो सफल होगा ही, अपितु दूसरों के लिये भी अनुकरणीय होगा।
जिन्दगी में सम्भावना शब्द का अलग ही महत्व है। जो किसी को भी किन्हीं भी बुलन्दियों तक ले जाने में सक्षम है। इस शब्द को यदि गुरु और शिष्य के परिपेक्ष में समझे तो हमें चांदी और लोहा का उदाहरण लेना पड़ेगा।
यदि हम किसी से जानना चाहें कि चांदी और लोहा में कौन चमकदार है, तो उसका उत्तर होगा चांदी। अब यदि हम सम्भावना के संदर्भ में चंादी और लोहा की चमक की बात करें तो हम पायेंगे कि चांदी की चमक एक सीमित चमक है, किन्तु लोहा में चमक तो नहीं है अपितु सम्भावना है। इसको समझने के लिये हमें पारस का सहारा लेना पड़ेगा। चांदी को पारस के सम्पर्क में लाने पर चंादी की चमक में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। क्योंकि इसमें कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु लोहा को पारस के सम्पर्क में लायेंगे तो पारस उस चमकहीन लोहा को सोना बना देगा। अर्थात लोहा चांदी से अधिक चमकीला हो गया, या यूं कहें कि अभी तक चांदी मूल्यवान थी, किन्तु अब लोहा चांदी से भी बहुमूल्य धातु में बदल गया। ऐसा केवल इसलिये हुआ क्योंकि लोहा में संभावना है।
इसी सम्भावना को एक गुरु को तलाशना होता है अपने शिष्य में। शिक्षक की यही योग्यता है, कि वह अपने लोहा रूपी शिष्य की सम्भावना को पहचाने और उसकी प्रतिभा को बाहर निकालकर निखारे, सपना देखने की ललक पैदाकर आत्म विश्वास को जगाये और उसे एक योग्य, शिष्ट, शीलवान और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का इंसान बनाये यही कार्य कुरु क्षेत्र में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देकर किया, और समुद्र तट पर जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी शक्ति एहसास कराकर किया।
सम्भावना साधारण को भी महान बनाती है। बड़ा तो बड़ा बन ही जाता है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि समृ( होती है, जैसे टाटा, बिरला आदि किन्तु डा. अब्दुल कलाम, एकलव्य, लालबहादुर शास्त्री, सचिन तेंदुलकर आदि साधारण परिवार से होने के बावजूद भी महान हो गये, क्योंकि उनकी सम्भावनाओं को उनके गुरुओं नें पहचाना और शिष्यों को उसका बोध कराकर प्रतिभावान बनने के लिये प्रेरित किया।
अन्त में मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि गुरु अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से निर्वहन करते हुए अपने शिष्य की सम्भावनाओं को उजागर करे, तो शिष्य अवश्य ही प्रतिभावान एवं तेजस्वी बनकर अपना नाम तो रोशन करेगा ही, अपितु अपने गुरु के नाम को भी प्रकाशित करेगा, और उसके हृदय मन-मस्तिष्क में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊँचा होगा।
तभी तो कबीरदास जी ने ठीक ही कहा है-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।।
अतः सम्भावना में प्रयास छिपा है, और प्रयास सफलता एवं प्रगति का रास्ता दिखाती है।
सुरेश चन्द्र पाण्डेय