गुरु और शिष्य का पुरातन काल से अत्यन्त पवित्र, श्रद्धा एवं विश्वास से भरा विशु( निस्वार्थपूर्ण सम्बन्ध रहा है दोनो एक सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। समाज में यदि आज इन सम्बन्धों में कुछ कमी आई है तो इस सम्बन्ध में दोनों को ही विचार करने की आवश्यकता है।
सामान्यतयः हमें अपनी गलतियां ढूंढनी चाहिए न कि सामने वाले की। यदि हम ऐसा कर लेते हैं, तो समझो कि हमने उस पर विजय प्राप्त कर ली। हमें दूसरे के अनुकूल बनने की सोचना चाहिये, न कि हम दूसरे को अपने अनुकूल बनाने की सोचें।
यदि हमें किसी विद्यार्थी को दण्ड देना अनिवार्य लगता है तो हम उसे दण्ड तो दें, किन्तु बाद में उस घटना पर आत्मावलोकन भी करें। एक-दो दिन बाद उस दण्डित किये गये शिष्य को बुलाकर समझाए, कि उसे दण्ड क्यों दिया गया। उसे उसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में समझाऐं और विश्वास दिलाऐं कि यदि उसने पूरे मनोयोग से पढ़ाई में मन लगाया तो उसका भविष्य संवर जायेगा और वह अच्छा विद्यार्थी एवं श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। ऐसा करने पर उस शिष्य के मन में यदि दण्ड पाने के समय क्षणिक द्वेष, गलत भावना पैदा हो गई होगी तो स्वतः आपके समझाने के कारण दूर हो जायेगी और वह यह समझने लगेगा कि जो आपने उसे दण्ड दिया, वह उसकी भलाई के लिये था, और उसके मन में आपके प्रति श्रद्धाभाव भी पैदा हो जायेगा। साथ ही स्वयं पर भी चिन्तन करके एक घटना पर विचार करें।
कल्पना करें कि आप से किसी ने बस स्टैण्ड तक पहुंचने का रास्ता पूंछा, और आपने उसे वहां तक पहुंचने का रास्ता समझाया, किन्तु आपके समझाने के बाद भी वह व्यक्ति बस स्टैण्ड तक नहीं पहुंच पाया, तो क्या कभी आपने विचार किया कि इसमें किसकी गलती है, आपकी या उस व्यक्ति की जो बस स्टैण्ड नहीं ढूंढ सका।
यदि आप अपना अहम छोड़कर विचार करें, तो आपकी समझ में आ जायेगा कि आप ही उसे ठीक से बस स्टैण्ड पहुंचने का रास्ता नहीं समझा पाये, जिससे वह अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुंच पाया।
हमें सदैव प्यार की ताली बजानी चाहिये। ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। एक व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति की ओर हाथ बढ़ाता है, और दोनों हाथ परस्पर पास पास आते हैं तभी प्यार भरी ताली की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती है।
यही सिद्धांत गुरु एवं शिष्य के मध्य, मर्यादाओं का ध्यान रखते हुये होना चाहिये। हमें शिष्य की भावनाओं एवं उसके मानसिक स्तर को समझना चाहिये, तथा शिष्य को गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण, विश्वास का भाव अपने मन-मस्तिष्क में समाहित करना चाहिये। गुरु को अपने हृदय में ऊँचा स्थान देना चाहिये। गुरु से जिज्ञासु होकर प्रश्न करना चाहिये और अहंकार से दूर रहना चाहिए। एक अक्षर पढ़ाने वाला भी गुरु होता है। तर्क कभी नहीं करना चाहिए, तर्क तलवार जैसा है।
जब आप किसी से कुछ कहें तो विचार करना कि आपका हृदय अशान्त, दुखी तो नहीं है। सदैव शान्त भाव में ही बोलना चाहिए। क्रोध में शान्त रहना चाहिए। अपने दिल की बात कह, दूसरे के दिल की बात भी सुनें।
शिष्य को अपने शिक्षक के प्रति असीम श्र(ा एवं आस्था होती है। पठन-पाठन के संदर्भ में उसके हृदय में आपके प्रति अपने माता-पिता से भी अधिक विश्वास होता है।
उपरोक्त कथन के सम्बन्ध में हंसानुकरण को बताना समीचीन समझता हूँ। हंस को नीर-क्षीर विवेककारी कहा गया है। अर्थात जल व दूध को मिलाकर हंस को दिया जाय तो हंस दूध को तो पी लेता है, किन्तु जल को पात्र में ही छोड़ देता है। हमारे अन्दर भी ऐसा ही विवेक होना चाहिए कि हंस की भांति हम भी सत्य-असत्य, अच्छाई-बुराई आदि का ईमानदारी से बिना भेद - भाव किये विश्लेषण करें। हंस का यह विशिष्ट लक्षण सभी के लिये विशेष प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय होना चाहिए। यदि हम इस हंसानुकरण को आत्मसात कर ले तो हमारा जीवन तो सफल होगा ही, अपितु दूसरों के लिये भी अनुकरणीय होगा।
जिन्दगी में सम्भावना शब्द का अलग ही महत्व है। जो किसी को भी किन्हीं भी बुलन्दियों तक ले जाने में सक्षम है। इस शब्द को यदि गुरु और शिष्य के परिपेक्ष में समझे तो हमें चांदी और लोहा का उदाहरण लेना पड़ेगा।
यदि हम किसी से जानना चाहें कि चांदी और लोहा में कौन चमकदार है, तो उसका उत्तर होगा चांदी। अब यदि हम सम्भावना के संदर्भ में चंादी और लोहा की चमक की बात करें तो हम पायेंगे कि चांदी की चमक एक सीमित चमक है, किन्तु लोहा में चमक तो नहीं है अपितु सम्भावना है। इसको समझने के लिये हमें पारस का सहारा लेना पड़ेगा। चांदी को पारस के सम्पर्क में लाने पर चंादी की चमक में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा। क्योंकि इसमें कोई सम्भावना नहीं है। किन्तु लोहा को पारस के सम्पर्क में लायेंगे तो पारस उस चमकहीन लोहा को सोना बना देगा। अर्थात लोहा चांदी से अधिक चमकीला हो गया, या यूं कहें कि अभी तक चांदी मूल्यवान थी, किन्तु अब लोहा चांदी से भी बहुमूल्य धातु में बदल गया। ऐसा केवल इसलिये हुआ क्योंकि लोहा में संभावना है।
इसी सम्भावना को एक गुरु को तलाशना होता है अपने शिष्य में। शिक्षक की यही योग्यता है, कि वह अपने लोहा रूपी शिष्य की सम्भावना को पहचाने और उसकी प्रतिभा को बाहर निकालकर निखारे, सपना देखने की ललक पैदाकर आत्म विश्वास को जगाये और उसे एक योग्य, शिष्ट, शीलवान और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का इंसान बनाये यही कार्य कुरु क्षेत्र में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देकर किया, और समुद्र तट पर जामवंत जी ने हनुमान जी को उनकी शक्ति एहसास कराकर किया।
सम्भावना साधारण को भी महान बनाती है। बड़ा तो बड़ा बन ही जाता है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि समृ( होती है, जैसे टाटा, बिरला आदि किन्तु डा. अब्दुल कलाम, एकलव्य, लालबहादुर शास्त्री, सचिन तेंदुलकर आदि साधारण परिवार से होने के बावजूद भी महान हो गये, क्योंकि उनकी सम्भावनाओं को उनके गुरुओं नें पहचाना और शिष्यों को उसका बोध कराकर प्रतिभावान बनने के लिये प्रेरित किया।
अन्त में मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि गुरु अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से निर्वहन करते हुए अपने शिष्य की सम्भावनाओं को उजागर करे, तो शिष्य अवश्य ही प्रतिभावान एवं तेजस्वी बनकर अपना नाम तो रोशन करेगा ही, अपितु अपने गुरु के नाम को भी प्रकाशित करेगा, और उसके हृदय मन-मस्तिष्क में गुरु का स्थान भगवान से भी ऊँचा होगा।
तभी तो कबीरदास जी ने ठीक ही कहा है-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविन्द दियो बताय।।
अतः सम्भावना में प्रयास छिपा है, और प्रयास सफलता एवं प्रगति का रास्ता दिखाती है।
सुरेश चन्द्र पाण्डेय
Monday, October 21, 2019
शिष्य, शिक्षक और सम्भावना
सदाचरण
किसी व्यक्ति का सच्चा परिचय उसका आचरण है। शिष्टाचार मानव जीवन की सुगन्ध है। किसी का व्यक्तित्व कितना ही आकर्षक क्यों न हो, शिष्ट आचरण के बिना उसका कोई मूल्य नहीं है। शिष्टता की बड़ी बहन का नाम विनम्रता है। विनम्रता से सेवा, सरलता, शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि सभी गुण विकसित होते हैं। विनम्र सन्तान के माता पिता सदैव प्रसन्न रहते हैं।
'विद्या ददाति विनयम्' विनय से विद्या आती है। किसी शिष्य के लिये गुरु से बढ़ कर मार्ग दर्शक कौन हो सकता है? अतः गुरु के प्रति श्र(ा, विनम्रता एवं सेवा का भाव रखते हुये उनकी इच्छानुसार आचरण करना चाहिए। शिष्य की उद्दण्डता एवं अनुशासनहीनता गुरु के मन को खिन्न कर देती है। ऐसे शिष्यों को पढ़ने लिखने की चाहे जितनी व्यवस्था की जाय वे अज्ञानी ही रहेंगे। विनम्र व्यक्ति सदैव सर्वत्र आदर प्राप्त करते हैं गुरु का तथा अपने से बड़ों के साथ विनम्रता का व्यवहार करने से आयु, विद्या, यश तथा बल की प्राप्ति होती है।
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोपि सेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।
कोई ज्ञानार्थी तभी ज्ञान प्राप्त कर सकेगा जब उसके हृदय में विनम्रता होगी। अहंकारी व्यक्ति के अन्तःकरण में ज्ञान का प्रवेश नहीं हो सकता। गुरु का दिया गया ज्ञान उसके ऊपर से बह कर निकल जाएगा। आज के युग में कुछ लोग विनम्रता की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। ऐसे लोग विनम्रता को किसी व्यक्ति की कमजोरी मानते हैं वे यह मानते हैं कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति का कठोर होना आवश्यक है। यह सोचना पूर्णतया गलत है। श्री लालबहादुर शास्त्री हमारे देश के प्रधानमंत्री थे। व्यक्तिगत जीवन में अत्यन्त विनम्र एवं सरल होते हुये भी प्रशासनिक जीवन में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। 1965 के भारत-पाक यु( में उनके सफल संचालन से प्राप्त विजयश्री इसका उदाहरण है। उनके एक विनम्र अनुरोध से पूरे देशवासियों ने एक बार अन्न खाना छोड़ दिया। क्या कठोरता के चलते यह सम्भव था। विनय द्वारा मनुष्य दूसरों का हृदय जीत सकता है। विनम्रता से जो कार्य हो सकता है वह किसी प्रकार के बल प्रयोग द्वारा नहीं कराया जा सकता।
कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान हो, धनबल, जनशक्ति रखता हो। यदि अहंकार से युक्त है तो दूसरों की दृष्टि में अनादर और अवहेलना का पात्र बनता है। अहंकारी, दुष्ट स्वभाव वाला तथा प्रतिकूल आचरण करने वाला व्यक्ति सबसे तिरस्कृत होता है और अन्ततः विनाश को प्राप्त होता है। लंका के रावण की दुष्टता से कौन परिचित नहीं है।
विनम्रता आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों क्षेत्रों में लाभकारी है। जीवन में सफलताएँ प्राप्त करने के लिये इन्द्रियों को वश में करना पड़ता है। यह दुष्कर कार्य है। मानव शरीर एक मंदिर के समान है। इस मन्दिर में ईश्वर का निवास है। इस शरीर द्वारा विनम्रता पूर्वक सदाचरण करने वाला ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। निष्कर्ष यह है कि विनम्रतापूर्वक सदाचरण करते हुये रसवती वाणी से हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
वेदानन्द त्रिपाठी
बस पैसे से ही रिश्ता बता गए
लोग मुर्दे पर पैसे चढ़ा गए ,
कितना चाहते बता गए ,
दिल में दया भी है उनके ,
भिखारी को आज बता गए ,
भूख से बिलखते बच्चे को ,
जनसँख्या का दर्द बता गए ,
एक पल भी नही था पास में ,
बस पैसे से ही रिश्ता बता गए ,
खर्च तो करता हूँ सब कुछ ,
कितने खोखले है बता गए ,
एक अदद रोटी क्यों बनाये ,
लंगर में जाने को बता गए ,
आलोक को खरीदने का हौसला ,
असमान को जाने क्यों बता गए ,
मुट्ठी में बंद कौन कर पाया है ,
आलोक को बिकना बता गए ,
कितनी सिद्दत से सजाई दुनिया ,
दुकान का मतलब वो बता गए ,
रीता रीता सा रहा दिल आज फिर ,
खून बिकता है वो भी बता गए ,
आंसू भी बिकता है अब यहा पर,
सच को मेरे वो नाटक बता गए ,
इतनी लम्बी जिन्दगी में कौन अपना ,
बिकती साँसों का राज बता गए ,
कोई खरीद कर जला दो मुझको ,
शमशान में लकड़ी मुझे दिखा गए ,
जाना है उनको भी यहा से एक दिन ,
मुझको कफन खरीदना सीखा गए ...........................
पता नही इस दुनिया में हम मनुष्य बन कर किस मनुष्य को ढूंढते है ..........................
पर अब तो सब कुछ पैसा से तौला जा रहा है .................क्या हमें रुकना नही चाहिए
आलोक चान्टिया
एक किलो रिश्ता
आज एक किलो रिश्ता ,
खरीद कर लाया हूँ ,
पचास किलो शरीर में ,
किसी को रखने की ,
फुर्सत की नही मिलती ,
इसी लिए बाजार से ,
जीने के लिए उठा लाया हूँ ,
ये देखो एक किलो रिश्ता ,
तुम्हारे लिए भी ले आया हूँ ,
बात भी डालो कितना दूँ ,
क्या कुछ भी नही चाहते ,
फिर मानव क्यों हो बताते ,
सिर्फ जिस्म में गोश्त ही नही ,
एक भावना भी खेलती है ,
जो बनाती है मुझको यहाँ ,
पिता , चाचा , मामा , फूफा ,
दादा ,नाना और पति,प्रेमी भी ,
तुम भी तो बनती हो यहाँ ,
माँ , चाची. मामी , बुआ ,
दादी , नानी और पत्नी प्रेमिका भी ,
पर आज हम क्यों भाग रहे है ,
दिन रात जाग रहे है ,
कहा और कब खो गए रिश्ते ,
क्या मिल पाएंगे कभी रिश्ते ,
सुना है अब कंपनी भी बेचती है ,
कुछ रगीन दुनिया खिचती है ,
और हम फिर से बिकने लगे ,
आदमी में जानवर दिखने लगे ,
देखो आज मैं रिश्ते ताजे लाया हूँ ,
आओ जल्दी ले लो दौड़ो दौड़ो ,
बड़ी मुश्किल से एक किलो पाया हूँ ,
चाहो तो काट कर खा लो या ,
पी लो एक गिलास में भर कर ,
पर रिश्ते की खुराक लेना न छोडो ,
इस दुनिया को फिर न मोड़ो ,
वरना जानवर हम पर हसने लगेंगे ,
फब्तिय हम पर कसने लगेंगे ,
कैसे कहेंगे हम है इनसे बेहतर ,
जब पाएंगे हमको कमतर ,
तो लो अब मुह न मोड़ो रिश्तो से ,
जी लो थोडा अब रिश्तो से ,
कब तक चलोगे किश्तों से ,
आओ हमसे कुछ रिश्ते ले लो ,
रिश्ते को रिसने से तौबा कर लो ....
रिश्तो को दीमक क्यों लग रही है ....
हम रिश्ते से ज्यादा मैं में डूब कर बस एक शरीर से ज्यादा कुछ नही रह गए .
आलोक चांटिया