Wednesday, April 23, 2025

विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को ग्राम गंगामूल (जिला मंगलोर, कर्नाटक) में हुआ था। उस समय वहाँ लड़कियांे की उच्च शिक्षा को ठीक नहीं माना जाता था। बाल एवं अनमेल विवाह प्रचलित थे। रमा के विधुर पिता का नौ वर्षीय बालिका से पुनर्विवाह हुआ। उससे ही एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं। 


रमा के पिता ने अपनी पत्नी को भी संस्कृत पढ़ाकर विद्वान बनाया। इस पर स्थानीय पंडित उनसे नाराज हो गये। वे उन्हें जाति बहिष्कृत करने पर तुल गये। तब उन्होंने उडुपि में 400 विद्वानों के साथ दो महीने तक लिखित शास्त्रार्थ में सिद्ध किया कि महिलाओं को वेद पढ़ाना शास्त्रसम्मत है। इससे वे जाति बहिष्कार से तो बच गये; पर लोगों का द्वेष कम नहीं हुआ। 


उन्होंने अपने सब बच्चों को पढ़ाया। रमा जब नौ साल की थी, तो उनके पिता तीर्थयात्रा पर चले गये। रमा की माँ ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी। जब छह साल बाद रमा के पिता लौटकर आये, तब तक रमा हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बंगला तथा संस्कृत भाषाएँ जान गयी थी।


जब रमा 15 साल की ही थी, तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी। लोगों में द्वेष इतना था कि उनकी अंत्येष्टि के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। इस पर रमा के भाई ने उनके शव को धोती में बाँधकर गाँव से बाहर गाड़ दिया। 


कुछ समय बाद माँ की मृत्यु होने पर रमा एवं उसके भाई ने बड़ी कठिनाई से दो लोगों को तैयार किया, तब जाकर माँ का अन्तिम संस्कार हो सका।

इसके बाद रमा अपने छोटे भाई को लेकर कोलकाता आ गयी। वहाँ विद्वानों ने उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें ‘पंडिता रमाबाई’ की उपाधि दी। ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से रमा ने वेदों का और गहन अध्ययन किया। 


इसी दौरान उनके भाई की भी मृत्यु हो गयी। रमाबाई का पत्र व्यवहार एवं भेंट आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से भी हुई। महर्षि दयानन्द जी चाहते थे कि रमाबाई पूरी तरह वेद और धर्म प्रचार का कार्य करंे; पर वह इससे सहमत नहीं हुई। वे अभी और पढ़ना चाहती थीं।


22 वर्ष की अवस्था में विपिनबिहारी दास से उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ। एक साल बाद पुत्री मनोरमा के जन्म तथा उससे अगले साल पति के निधन से पुत्री की पूरी जिम्मेदारी रमाबाई पर आ गयी। आर्य समाज से निकटता के कारण ब्रह्मसमाज वाले भी अब उनकी आलोचना करने लगे।


इसके बाद भी रमाबाई नहीं घबराईं। वे पुत्री को लेकर पुणे आ गयीं और आर्य समाज की स्थापना कर समाजसेवा में लग गयीं। उन्होंने महाराष्ट्र के कई नगरों में आर्य समाज की स्थापना की। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें बहुत लोगों से मिलना पड़ता था। कुछ रूढि़वादियों ने इसका विरोधकर उनके चरित्र पर लांछन लगाये। इससे रमाबाई का मन बहुत दुखी हुआ।


1883 में वे चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने इंग्लैंड गयीं। वहाँ उनका सम्पर्क ईसाइयों से हुआ। रमा का मन अपने सम्बन्धियों और विद्वानों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार से दुखी था। अतः उन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार कर लिया।


अब उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखकर बाइबल का इन भाषाओं तथा मराठी में अनुवाद किया। इसके बाद वे अमरीका भी गयीं। वहाँ उन्होंने महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा। इससे वे बहुत प्रभावित हुईं। 


ईसाई बनने के बाद भी हिन्दुत्व और भारतीयता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ। 1889 में भारत लौटकर उन्होंने पुणे में ‘शारदा सदन’ नामक विधवाश्रम बनाया। पांच अप्रैल, 1922 को पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया।


समय का मोल

एक धन सम्पन्न व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ रहता था पर कालचक्र के प्रभाव से धीरे-धीरे वह कंगाल हो गया।उस की पत्नी ने कहा कि सम्पन्नता के दिनों में तो राजा के यहाँ आपका अच्छा आना जाना था। क्या विपन्नता में वे हमारी मदद नहीं करेंगे जैसे श्रीकृष्ण ने सुदामा की मदद की थी ? पत्नी के कहने से वह भी सुदामा की तरह राजा के पास गया।


द्वारपाल ने राजा को संदेश दिया कि एक निर्धन व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और स्वयं को आपका मित्र बताता है।राजा भी श्रीकृष्ण की तरह मित्र का नाम सुनते ही दौड़े चले आए और मित्र को इस हाल में देखकर द्रवित होकर बोले कि मित्र बताओ !! मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ ? मित्र ने सकुचाते हुए अपना हाल कह सुनाया।

चलो !! मै तुम्हें अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर अपनी जेब में रत्न भर कर ले जाना। पर तुम्हें केवल ३ घंटे का समय ही मिलेगा। यदि उससे अधिक समय लोगे तो तुम्हें खाली हाथ बाहर आना पड़ेगा।

ठीक है,चलो !! वह व्यक्ति रत्नों का भंडार और उनसे निकलने वाले प्रकाश की चकाचौंध देखकर हैरान हो गया। पर समय सीमा को देखते हुए उसने भरपूर रत्न अपनी जेब में भर लिए।वह बाहर आने लगा तो उसने देखा कि दरवाजे के पास रत्नों से बने छोटे छोटे खिलौने रखे थे जो बटन दबाने पर तरह तरह के खेल दिखाते थे।उसने सोचा कि अभी तो समय बाकी है,क्यों न थोड़ी देर इनसे खेल लिया जाए?

पर यह क्या? वह तो खिलौनों के साथ खेलने में इतना मग्न हो गया कि समय का भान ही नहीं रहा। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है। चलो ! मैं तुम्हें अपने स्वर्ण के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर सोना अपने थैले में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान रखना।

ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी सुनहरे प्रकाश से जगमगा रहा था।उसने शीघ्रता से अपने थैले में सोना भरना प्रारम्भ कर दिया।तभी उसकी नजर एक घोड़े पर पड़ी जिसे सोने की काठी से सजाया गया था। अरे !! यह तो वही घोड़ा है जिस पर बैठ कर मैं राजा साहब के साथ घूमने जाया करता था। वह उस घोड़े के निकट गया, उस पर हाथ फिराया और कुछ समय के लिए उस पर सवारी करने की इच्छा से उस पर बैठ गया। पर यह क्या? समय सीमा समाप्त हो गई और वह अभी तक सवारी का आनन्द ही ले रहा था। उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह घोर निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र !! निराश होने की आवश्यकता नहीं है।चलो ! मैं तुम्हें अपने रजत के खजाने में ले चलता हूँ।वहां से जी भरकर चाँदी अपने ढोल में भर कर ले जाना।

पर समय सीमा का ध्यान अवश्य रखना।ठीक है।उसने देखा कि वह कक्ष भी चाँदी की धवल आभा से शोभायमान था।उसने अपने ढोल में चाँदी भरनी आरम्भ कर दी।इस बार उसने तय किया कि वह समय सीमा से पहले कक्ष से बाहर आ जाएगा।पर समय तो अभी बहुत बाकी था।दरवाजे के पास चाँदी से बना एक छल्ला टंगा हुआ था। साथ ही एक नोटिस लिखा हुआ था कि इसे छूने पर उलझने का डर है।यदि उलझ भी जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने की चेष्टा बिल्कुल न करना।उसने सोचा कि ऐसी उलझने वाली बात तो कोई दिखाई नहीं देती।बहुत कीमती होगा तभी बचाव के लिए लिख दिया होगा।देखते हैं कि क्या माजरा है? बस! फिर क्या था।हाथ लगाते ही वह तो ऐसा उलझा कि पहले तो एक हाथ से सुलझाने की कोशिश करता रहा। जब सफलता न मिली तो दोनों हाथों से सुलझाने लगा।पर सुलझा न सका और उसी समय घंटी बजी जो समय सीमा समाप्त होने का संकेत था और वह निराश होकर खाली हाथ ही बाहर आ गया।

राजा ने कहा- मित्र, !!कोई बात नहीं।निराश होने की आवश्यकता नहीं है।अभी तांबे का खजाना बाकी है।चलो ! मैं तुम्हें अपने तांबे के खजाने में ले चलता हूँ।

वहां से जी भरकर तांबा अपने बोरे में भर कर ले जाना।पर समय सीमा का ध्यान रखना।ठीक है।

मैं तो जेब में रत्न भरने आया था और बोरे में तांबा भरने की नौबत आ गई।थोड़े तांबे से तो काम नहीं चलेगा।उसने कई बोरे तांबे के भर लिए।भरते भरते उसकी कमर दुखने लगी लेकिन फिर भी वह काम में लगा रहा।विवश होकर उसने आसपास सहायता के लिए देखा।एक पलंग बिछा हुआ दिखाई दिया।उस पर सुस्ताने के लिए थोड़ी देर लेटा तो नींद आ गई और अंत में वहाँ से भी खाली हाथ बाहर निकाल दिया गया।

दोस्तो !! परमपिता परमेश्वर हम सबका दयालु राजा है। वह बार-बार हमें सुख-समृद्धि हेतु अवसर देता है। हम आलस्य-प्रमाद में अथवा दुनिया के प्रलोभनों एवं आकर्षणों में ऐसे बंध जाते हैं कि जीवन-काल का ख्याल ही भूल जाते हैं आखिरी समय में रोते-कलपते,अशांति इस दुनिया से विदा होते हैं। क्या इसी प्रकार हम आप भी अपने जीवन में अपने साथ कुछ नहीं ले जा पाएंगे?

ग्रंथ और संत कहते हैं- सावधान! सावधान!!


यूँ ही आता रहा,यूँ ही जाता रहा,लख चौरासी के चक्कर लगाता रहा।

क्यों न पहचान पाया तू श्वासों का मोल,अपना हीरा जन्म यूँ ही समय गँवाता रहा।”

संन्यासी और युवती

एक पहुंचे हुए महात्मा थे। एक दिन महात्मा जी ने सोचा कि उनके बाद भी धर्मसभा चलती रहे इसलिए क्यों न अपने एक शिष्य को इस विद्या में पारंगत किया जाए। उन्होंने एक शिष्य को इसके लिए प्रशिक्षित किया। अब शिष्य प्रवचन करने लगा।

सभा में एक सुंदर युवती आने लगी। वह उपदेश सुनने के साथ प्रार्थना, कीर्तन, नृत्य आदि समारोह में भी सहयोग देती।

लोगों को उस युवती का युवक संन्यासी के प्रति लगाव खटकने लगा। एक दिन कुछ लोग महात्माजी के पास आकर बोले - 'प्रभु, आपका शिष्य भ्रष्ट हो गया है।'

महात्मा जी बोले - 'चलो हम स्वयं देखते हैं'। महात्मा जी आए, सभा आरंभ हुई। युवा संन्यासी ने उपदेश शुरू किया। युवती भी आई। उसने भी रोज की तरह सहयोग दिया। 

सभा के बाद महात्मा जी ने लोगों से पूछा - 'क्या युवक संन्यासी प्रतिदिन यही सब करता है। और कुछ तो नहीं करता? 

लोगों ने कहा - 'बस यही सब करता है।' 

महात्मा जी ने फिर पूछा - 'क्या उसने तुम्हें गलत रास्ते पर चलने का उपदेश दिया? कुछ अधार्मिक करने को कहा?'

सभी ने कहा - 'नहीं।'

महात्माजी बोले - 'तो फिर शिकायत क्या है?' कुछ धीमे स्वर उभरे कि 'इस युवती का इस संन्यासी के साथ मिलना- जुलना अनैतिक है'। 

महात्माजी ने कहा - 'मुझे दुख है कि तुम्हारे ऊपर उपदेशों का कोई असर नहीं पड़ा। तुमने ये जानने की कोशिश नहीं की वो युवती है कौन। वह इस युवक की बहन है। 

चूंकि तुम सबकी नीयत ही गलत है इसलिए तुमने उन्हें गलत माना। 

सभी लज्जित हो गए। 

जब नियत ही खोटी हो तो उपदेश का असर कैसे होगा?

Tuesday, April 22, 2025

परोपकार का फल

एक समय मोची का काम करने वाले व्यक्ति को रात में भगवान ने सपना दिया और कहा कि कल सुबह मैं तुझसे मिलने तेरी दुकान पर आऊंगा।

मोची की दुकान काफी छोटी थी और उसकी आमदनी भी काफी सीमित थी।

खाना खाने के बर्तन भी थोड़े से थे।

इसके बावजूद वह अपनी जिंदगी से खुश रहता था। 

एक सच्चा ईमानदार और परोपकार करने वाला इंसान था।

इसलिए ईश्वर ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया।

मोची ने सुबह उठते ही तैयारी शुरू कर दी।

भगवान को चाय पिलाने के लिए दूध चायपत्ती और नाश्ते के लिए मिठाई ले आया।

दुकान को साफ कर वह भगवान का इंतजार करने लगा।

उस दिन सुबह से भारी बारिश हो रही थी।

थोड़ी देर में उसने देखा कि एक सफाई करने वाली बारिश के पानी में भीगकर ठिठुर रही है।

मोची को उसके ऊपर बड़ी दया आई और भगवान के लिए लाए गये दूध से उसको चाय बनाकर पिलाई।

दिन गुजरने लगा।

दोपहर बारह बजे एक महिला बच्चे को लेकर आई और कहा कि मेरा बच्चा भूखा है इसलिए पीने के लिए दूध चाहिए।

मोची ने सारा दूध उस बच्चे को पीने के लिए दे दिया।

इस तरह से शाम के चार बज गए।

मोची दिन भर बड़ी बेसब्री से भगवान का इंतजार करता रहा।

तभी एक बूढ़ा आदमी जो चलने से लाचार था आया और कहा कि मै भूखा हूं और अगर कुछ खाने को मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी।

मोची ने उसकी बेबसी को समझते हुए मिठाई उसको दे दी।

इस प्रकार दिन बीत गया और रात हो गई।

रात होते ही मोची के सब्र का बांध टूट गया और वह भगवान को उलाहना देते हुए बोला कि वाह रे भगवान सुबह से रात कर दी मैंने तेरे इंतजार में।

लेकिन तू वादा करने के बाद भी नहीं आया।

क्या मैं गरीब ही तुझे बेवकूफ बनाने के लिए मिला था।

तभी आकाशवाणी हुई और भगवान ने कहा कि मैं आज तेरे पास एक बार नहीं तीन बार आया और तीनों बार तेरी सेवाओं से बहुत खुश हुआ और तू मेरी परीक्षा में भी पास हुआ है।

क्योंकि तेरे मन में परोपकार और त्याग का भाव सामान्य मानव की सीमाओं से परे हैं।

भगवान ना जाने किस रूप में हमसे मिल ले हम नही जान पाते हैं।


काशी की महिमा

 विश्वनाथ की नगरी काशी की महिमा  

काशी तो काशी है, काशी अविनाशी है

पंचकोशी काशी का अविमुक्त क्षेत्र ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्वयं भगवान विश्वनाथ हैं । ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से ब्रह्माण्ड की रचना की । तब दयालु शिव जी ने विचार किया कि कर्म-बंधन में बंधे हुए प्राणी मुझे किस प्रकार प्राप्त करेंगे ? इसलिए शिव जी ने काशी को ब्रह्माण्ड से पृथक् रखा और भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया ।

काशी को स्वयं भगवान शिव ने 'अविनाशी' और 'अविमुक्त क्षेत्र' कहा है । ज्योतिर्लिंग विश्वनाथ स्वरूप होने के कारण प्रलयकाल में भी काशी नष्ट नहीं होती है; क्योंकि प्रलय के समय जैसे-जैसे एकार्णव का जल बढ़ता है, वैसे-वैसे इस क्षेत्र को भगवान शंकर अपने त्रिशूल पर उठाते जाते हैं ।

स्कंद पुराण के अनुसार काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल के आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा कलियुग में शंख के आकार का होता है ।

संसार की सबसे प्राचीन नगरी है काशी!!!!!!

काशी को संसार की सबसे प्राचीन नगरी कहा जाता है; क्योंकि वेदों में भी इसका कई जगह उल्लेख है । पौराणिक मान्यता के अनुसार पहले यह भगवान माधव की पुरी थी, जहां श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से वह स्थान 'बिंदु सरोवर' बन गया और भगवान यहा 'बिंदुमाधव' के नाम से प्रतिष्ठित हुए ।

एक बार भगवान शंकर ने ब्रह्माजी का पांचवा सिर अपने नाखूनों से काट दिया । तब वह कटा सिर शंकर जी के हाथ से चिपक गया । वे १२ वर्षों तक बदरिकाश्रम, कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में घूमते रहे, परंतु वह सिर उनके हाथ से अलग नहीं हुआ । ब्रह्मदेव का सिर काटने से ब्रह्महत्या स्त्री रूप धारण करके उनका पीछा करने लगी ।

अंत में जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और स्नान करते ही उनके हाथ से चिपका हुआ कपाल भी अलग हो गया । जिस स्थान पर वह कपाल छूटा, वह 'कपालमोचन तीर्थ' कहलाया । तब शंकर जी ने भगवान विष्णु से प्रार्थना करके उस पुरी को अपने नित्य निवास के लिए मांग लिया ।

इस सम्बन्ध में एक पौराणिक प्रसंग है-

राजा मनु के वंश में उत्पन्न सम्राट दिवोदास ने गंगा तट पर वाराणसी नगर बसाया । एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को यह अच्छा नहीं लगता कि वे सदा पति के साथ पिता के घर (हिमालय) में रहें । अत: पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने हिमालय छोड़ कर किसी सिद्ध क्षेत्र में बसने का निर्णय किया । उन्हें वाराणसी नगरी अच्छी लगी ।

शंकर जी ने अपने निकुम्भ नामक गण को वाराणसी नगरी को निर्जन करने का आदेश दिया । निकुम्भ ने वैसा ही किया । नगर निर्जन हो जाने पर भगवान शंकर अपने गणों के साथ वहां आकर निवास करने लगे । भगवान शंकर के साथ रहने की इच्छा से देवता तथा नाग भी वहां आकर रहने लगे ।

सम्राट दिवोदास अपनी वाराणसी नगरी छिन जाने से बहुत दु:खी हुए । उन्होंने तपस्या करके ब्रह्माजी से यह वर मांगा कि 'देवता अपने दिव्य लोक में रहें और नाग पाताल लोक में रहें । पृथ्वी मनुष्यों के लिए रहे ।' ब्रह्माजी ने 'तथाऽस्तु' कह दिया । इसका परिणाम यह हुआ कि शंकर जी सहित सभी देवताओं को वाराणसी छोड़ देना पड़ी । किंतु भगवान शंकर ने यहां 'विश्वेश्वर' रूप से निवास किया और दूसरे देवता भी श्रीविग्रह रूप में स्थित हुए ।

भगवान शंकर काशी छोड़ कर मंदराचल चले तो गए; किंतु उन्हें अपनी यह पुरी बहुत प्रिय थी । वे यहीं रहना चाहते थे । उन्होंने राजा दिवोदास के शासन में दोष ढूंढ़ कर उनको वाराणसी से निकालने के लिए चौंसठ योगिनियाँ भेजी । वे योगिनियां बारह मास तक काशी में रह कर राजा और उनके शासन में दोष निकालने का प्रयत्न करती रहीं, परंतु सफल नहीं हुईं । राजा ने उन्हें एक घाट पर स्थापित कर दिया ।

शंकर जी ने सोचा सूर्य 'लोकचक्षु' कहलाते हैं अर्थात् वे समस्त संसार की आंखें है, उनसे कुछ भी छिपा नहीं है । अत: राजा दिवोदास के राज्य में दोष ढ़ूंढ़ने के कार्य के लिए उन्होंने सूर्यदेव को भेजा; किंतु वाराणसी पुरी का वैभव देख कर सूर्यदेव चंचल (लोल) बन गए और अपने बारह रूपों में यहीं बस गए ।

ये बारह सूर्यों के नाम इस प्रकार हैं-१. लोलार्क, २. उत्तरार्क, ३. साम्बादित्य, ४. द्रौपदादित्य, ५. मयूखादित्य, ६. खखोल्कादित्य, ७. अरुणादित्य, ८. वृद्धादित्य, ९. केशवादित्य, १०. विमलादित्य, ११. गंगादित्य और १२. यमादित्य ।

शंकर जी विचार करने लगे-'अभी तक काशी से लौट कर न तो योगनियां ही आईं हैं और न ही सूर्यदेव । अब काशी का समाचार जानने के लिए मैं वहां किसे भेजूं । वहां की बातों को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्माजी ही समर्थ हैं, अत: ब्रह्माजी को ही वहां भेजता हूँ ।'

शंकर जी के कहने पर ब्रह्माजी वाराणसी आए। उन्होंने राजा दिवोदास की सहायता से यहां दस अश्वमेध यज्ञ किए और यहीं बस गए। यह स्थान 'दशाश्वमेध घाट' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इसके बाद भगवान शंकर की आज्ञा से ढुण्ढिराज गणेश जी ज्योतिषी का रूप धारण कर काशी आए । उन्होंने राजा दिवोदास को उपदेश करते हुए कहा-'आज के अठारहवें दिन कोई ब्राह्मण आकर तुम्हें उपदेश करेगा । तुमको बिना बिचारे उसके वचनों का पालन करना चाहिए । ऐसा करने से तुम्हारा सभी मनोरथ पूर्ण होगा ।'

जब गणेश जी भी काशी जाकर देर तक नहीं लौटे तब भगवान शंकर ने विष्णु जी की ओर देखा।

शंकर जी की इच्छा पूर्ण करने के लिए भगवान विष्णु यहां ब्राह्मण वेश में पधारे और उन्होंने राजा दिवोदास को ज्ञानोपदेश किया । इससे वे विरक्त हो गए ।

राजा दिवोदास ने एक शिवलिंग की स्थापना की और जैसे ही स्तुति करना आरम्भ किया, आकाश से शिव-पार्षदों से घिरा हुआ एक दिव्य विमान उतरा । राजा दिवोदास विमान में बैठ कर शिव लोक चले गए ।

तब भगवान शंकर मंदराचल से आकर काशी में स्थित हो गए ।

काशी के देवता!!!!!!!!

द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक 'भगवान विश्वनाथ' काशी के सम्राट हैं । इन्हें मिला कर काशी में कुल ५९ मुख्य शिवलिंग हैं । १२ आदित्य हैं । ५६ विनायक हैं, ८ भैरव हैं, ९ दुर्गा हैं, १३ नृसिंह हैं, १६ केशव हैं । ५१ शक्तिपीठों में से एक 'विशालाक्षी शक्तिपीठ' भी काशी में है, जहां सती के दाहिने कान का कुण्डल गिरा था।

काशी बारह नामों से जानी जाती है-

१. काशी,

२. वाराणसी (मां गंगा के तट पर वरुणा और असी नामक नदियों के बीच में स्थित होने के कारण इसे वाराणसी कहते हैं)

३. अविमुक्त क्षेत्र (भगवान शिव और पार्वती ने कभी इस क्षेत्र का त्याग नहीं किया),

४. आनंदकानन (भगवान शिव के आनंद का कारण),

५. महाश्मशान (यहां मणिकर्णिका घाट पर हर समय चिता जलती रहती है)

६. रुद्रावास (भगवान विश्वनाथ ने समस्त लोकों के कल्याण के लिए काशीपुरी में निवास किया है ।)

७. काशिका,

८. तप:स्थली,

९. मुक्ति भूमि,

१०. मुक्ति-क्षेत्र,

११. मुक्ति-पुरी,

१२. श्रीशिवपुरी ।

परमेश्वर शिव का धाम काशी जीवों को मोक्ष प्रदान करने वाली, संसार के भंवर में फंसे हुए लोगों के लिए नौका के समान, चौरासी के चक्कर में पड़े लोगों के लिए विश्रामस्थल और जीव के जन्म-जन्मांतर के कर्मबंधनों को काटने के लिए छुरे के समान है । काशी ही वह पुरी है जो मनुष्य को साक्षात् मोक्ष देती है ।

माना जाता है कि यहां देह-त्याग के समय भगवान शंकर मरणोन्मुख प्राणी के कान में तारक-मंत्र सुनाते हैं, उससे जीव को तत्त्वज्ञान हो जाता है और उसके सामने शिवस्वरूप ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है । ब्रह्म में लीन होना ही अमृत पद प्राप्त कर लेना या मोक्ष है ।

जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान। सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान।। (विनय पत्रिका)

इसलिए यहां कैसा भी प्राणी मरे, वह मुक्त हो जाता है । इसी आस्था के कारण देश के कोने-कोने से सहस्त्रों वर्षों से लोग देहोत्सर्ग के लिए आते रहे हैं।

बुद्धिमानी

गाँव का नाम था ठगपुरा। गाँव का बच्चा-बच्चा जैसे माँ के पेट से ठगी सीख कर आया था । ठगी के काम से गाँव का कोई भी इन्सान खुद को बचा ना सका था। उसी गाँव में नन्दू के चाचा भी रहते थे। ठगपुरा में रहने कारण नन्दू के चाचा भी इस ठगी की संज्ञा से बच न सके थे। ठगी के बेमिसाल ज्ञाताओं में उनकी गिनती होती थी।

इसी कारण उन्हें गाँव वालों ने चाचा ठग का नाम दे दिया था। मगर सब उन्हें सिर्फ चाचा ही कहते थे। नन्दू आज पहली बार अपने चाचा के गाँव आया था, इसी कारण वह गाँव के लोगों के स्वभाव से परिचित न था।

शाम को चाचा ने उससे पूछा-“बेटा! तुम यहाँ कितने दिन रहने आये हो?”

अपने चाचा के इस प्रश्न पर नन्दू हड़बड़ा गया। वह बोला- “बस चाचा, तीन-चार दिन, फिर मुझे मामी के यहाँ जाना है।”

“ठीक है बेटे!” कहकर चाचा अपने काम में लग गये । मगर नन्दू की समझ में यह ना आया कि उसके चाचा ने उससे ऐसा प्रश्न क्यों किया था, इस बारे में वह काफी देर तक सोचता रहा, मगर उसकी समझ में ना आया। आखिरकार वह सो गया।

अगले दिन उसके चाचा ने कहा-बेटे मैं खेत पर जा रहा हूँ, मगर जाने से पहले एक बात बता देना उचित समझता हूँ। देखो बेटा, समय बहुत खराब है। वैसे भी यह गाँव बदनाम है और गाँव वाले भी कुछ ऐसे ही हैं। बाहर से आने वाले को यहाँ खास सावधानी बरतनी पड़ती है । अतः घर से ज्यादा दूर मत जाना।” कहकर चाचा खेत पर चले गये।

दोपहर के समय नन्दू ने सोचा कि क्यों ना गाँव की रौनक ही देख ली जाए। यह सोचकर वह घर से बाहर निकल गया। अभी वह कुछ दूर चला ही था कि अचानक उसके पास एक आदमी आया। नन्दू ने देखा कि वह एक आंख

से काना था। नन्दू के पास आते ही वह बोला।

“काहे भैया! का हाल है। मेरा नाम अच्छन है, तुम राघव हो ना ?”

“नहीं, मेरा नाम नन्दू है।” नन्दू ने कहा।

“ओहो” वह व्यक्ति अंगड़ाई तोड़ बोला-“अच्छा-अच्छा! नाम में कुछ गलती हो गयी। वैसे मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। तुम्हारे दादा से मेरे बड़े अच्छे सम्बन्ध थे। अच्छी बैठक रहती थी, हुक्का पानी रहता और भी साथ था वे मेरे मेरहबानों में से… ।”

नन्दू ने उसकी बात काटकर कहा-“उन्हें तो गुजरे हुए भी वर्षो हो गये। आपकी उम्र तो अभी बहुत कम है। इसीलिए आप उनके साथियों में से मालूम नहीं पड़ते।”

“ओह यह बात नहीं है बेटे! असल में मैं अपनी देखरेख बहुत ज्यादा रखता हूं। इसलिए मेरी उम्र का एहसास नहीं होता। खैर छोड़ो ! अब काम की बात पर आ जाओ।” वह व्यक्ति बोला।

“काम की बात? कौनसे काम की बात?” नन्दू ने हैरानी से उस व्यक्ति को घूरा। “मैं बताता हूँ बेटे! जरा कान खोल कर सुनो!” वह व्यक्ति बहुत ही प्यार से बोला-“वैसे तो तुम खुद ही देख रहे हो मेरी एक आँख नहीं है, जानते हो इसका क्या कारण है?”

“ना तो मैं जानता हू और ना जानना चाहता ।” नन्दू बिना वजह गले पड़ी इस मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाह रहा था। अत: इतना कहकर जैसे ही वह आगे बढ़ा, उस व्यक्ति ने उसका हाथ थाम लिया और बोला-

“सुनो बेटे! पहले मेरी सुनो! जानते हो मेरी एक आंख क्यों है, क्योंकि दूसरी आख तुम्हारे दादा पास गिरवी रखी है। उन्होंने वायदा किया था तुम उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी से भी ले लेना। संयोग से आज उनके पोते यानि तुमसे भेट हो गई। इसलिए लाओ, दे दो मेरी आँख” वह बहुत ही मीठे स्वर में बात कर रहा था।

यह सुनकर नन्दू घबरा गया- “यह तो अजीब मुसीबत है। उसने सोचा।”

नन्दू की खामोशी देखकर वह व्यक्ति गरमी अख्तियार करने लगा। बात बढ़ने लगी तो नन्दू को एक उपाय सूझा। वह उस व्यक्ति से बोला-“ठीक है। भाई! यदि तुम्हारी आँख हमारे यहाँ गिरवी रखी है तो तुम घर चलो। चाचा के पास रखी तो है, मगर वे मुझे हाथ नहीं लगाने देंगे। तुम्हीं चलकर ले लो।”

यह सुनकर अच्छन नामक वह व्यक्ति नन्दू के साथ चाचा के घर की ओर रवाना हो गया।

घर पहुंचकर उसने पाया कि चाचा उसी का इन्तजार कर रहे हैं, उसने जल्दी-जल्दी चाचा को सारी बातें बताईं। हालांकि चाचा उसके साथ अच्छन को देखते ही समझ गये थे कि मामला गड़बड़ है, फिर भी नन्दू से सारी बात सुनने के बाद उन्होंने अन्जान बनकर अच्छन से पूछा- “कहो भाई अच्छन! कैसे आना हुआ?”

“जी कुछ ऐसी वैसी बात नहीं है, वैसे आप तो जानते ही होंगे कि इनके दादा, यानि आपके पिताजी बड़े सज्जन पुरुष थे। सारे गाँव की देखभाल रखते थे और आड़े टैम मै सबकी मदद भी करते थे ।” अच्छन ने कहा।

“जी! वह तो ठीक है, मगर यह तो बताइये कि आज आपको हमारे पिताजी की याद कैसे आ गई?” चाचा ने मुस्कुराकर पूछा।

“अब काहै बताऊँ चाचा । याद तो बहुत दिनों से आ रही थी मगर अब तक दिल में ही छुपा रखी थी।” अच्छन अपनी बात पर खुद ही ठहाका लगा बैठा। मजबूरी वश चाचा को भी उसकी हंसी में हिस्सा लेना पड़ा।

“असल में चाचा बात ये है कि एक बार गाँव में बड़ी भयंकर बीमारी फैल गई थी, तो मैंने अपने बीवी-बच्चों और जमीन को बचाने के लिए आपके पिताजी के पास अपनी एक आँख गिरवी रख दी थी। अब यह रही उधार ली गई रकम और अब मैं नन्दू से अपनी आँख वापस मांग रहा हूं। यह इस बात के फैसले के लिए मुझे आपके पास ले आया ।”

तब चाचा ने अच्छन को समझा बुझाकर एक दिन की मोहलत ले ली।

अच्छन के जाने के बाद चाचा ने नन्दू से कहा-देखा! हो गया ना लफड़ा, इसीलिए तो मैं तुमसे पूछ रहा था कि कितने दिन रहोगे ।”

नन्दू चुप रहा। फिर चाचा पास के बूचड़खाने की ओर रवाना हुए। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कुछ भेड़ बकरियों की आँखें खरीदीं और वापस लौट आए। वापस आकर उन्होंने नन्दू को कुछ समझाया और दोनों सो गये।

अगले दिन अच्छन मियां चाचा के यहाँ पहुँचे। उन्होंने देखा कि चाचा घर पर नहीं हैं, उन्होंने नन्दू पर अपनी हेकड़ी जमानी शुरू कर दी । बोले- “देखो नन्दू भाई, जल्दी से मुझे मेरी आँख ला दो।” वह जानता था कि नन्दू के पास आँख होगी ही नहीं तो वह देगा कहां से?”

मगर नन्दू ने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया। वह तेजी से अन्दर गया और चाचा की योजना के तहत वह अन्दर से एक बकरी की आँख ले आया।

और अच्छन से बोला-“लो भाईतुम्हारी आँख”

अच्छन ने चौंक कर नन्दू की हथेली पर रखी आँख को देखा फिर उसे अपने हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखने लगा। वह मन ही मन परेशान भी हो रहा था, मगर आखिरकार ठगपुरा की इज्जत का प्रश्न था। उलट-पुलट कर देखने के बाद अच्छन ने मुंह बनाकर कहा।

यह तो बड़ी है, यह मेरी आँख नहीं है।” वह समझ रहा था कि नन्दू के पास वही एक आँख होगी।

मगर ऐसा तो था ही नहीं। नन्दू वापस अन्दर गया और दूसरी आँख ले आया और बोला- “तब यह वाली होगी?”

दूसरी आँख देखते ही अच्छन के होश-मन्तर होने को तैयार हो गये।

मगर जल्दी ही उसने खुद को सम्भाल लिया और बोला-“नहीं, यह भी मेरी आँख नहीं है

तब नन्दू ने योजनाबद्ध तरीके से एक-दो बार और आँखें दिखाईं, मगर जब अच्छन ने उन्हें अपनी आंखें ना बताई तो नन्दू झुझलाकर वह टोकरी जिसमें आंखें रखी थीं, उठा लाया और अच्छन के सामने पटक कर बोला-“इसमें से छाँट ले अपनी । तुम्हारे जैसे बहुत से गरीबों ने दादाजी के पास अपनी आँखें गिरवी रख दी थीं।”

यह सुन और देखकर अच्छन ने झेप उतारने के लिए सभी आँखों से अपनी आँख ढूंढ़ने का नाटक किया फिर कुछ देर बाद गुस्से में भरते हुए बोला-“यह क्या मजाक है?”

“क्यों, क्या हुआ?” नन्दू ने जल्दी से पूछा।

“देखो चुपचाप, शराफत से मुझे मेरी आँख वापस लौटा दो… ” वह आग-बबूला होने का भरसक प्रयास करते हुए बोला।

क्यों इसमें तुम्हारी आँख नहीं है क्या?” नन्दू ने उसकी बात काट कर पूछा।

“लड़के मुझे ज्यादा बकवास पसन्द नहीं है, शराफत से मेरी आंख दो वरना.दुगुनी रकम वसूल लुगा।” उसने नन्दू के आगे टोकने से पहले ही जल्दी-जल्दी सब कुछ कह डाला।

यह गरमा-गरमी सुनकर अन्दर खामोश बैठे, नन्दू से यह सब नाटक करवा रहे चाचा फुर्ती से बाहर आए -“बोले

अच्छन भाई! इस तरह तो तुम्हारी आँख मिलने से रही। ऐसा करो तुम अपनी आँख नन्दू को दे जाओ, ताकि कल वह तुम्हारी दूसरी आंख से मिलाकर वैसी ही आँख तलाश दे।”

“क्या?” अच्छन का मुंह खुला का खुला रह गया।

“अगर कहो तो मैं निकाल दें अच्छन भाई?” चाचा ने गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा।

इतना सुनते ही अच्छन मियाँ वहाँ से इस तरह भागे जैसे उनके पीछे यमदूत पड़े हों।

अच्छन मियाँ को इस तरह भागते देख चाचा-भतीजे खिल-खिलाकर हंस पड़े। इस तरह चाचा ने नन्दू की जान बचा कर बुद्धिमत्ता की नई मिसाल कायम कर दी।

मित्रों“ अवसर पड़ने पर जो युक्ति काम कर जाये, वही बुद्धिमत्ता कहलाती है, बुद्धिमान कभी मात नहीं खाता, अतः हमें बुद्धिमान बनने के लिए सतत् प्रयास करते रहना चाहिए। इसलिये अपनी बुद्धि का प्रयोग भी उसी जगह करना चाहिए जहाँ उसकी आवश्यकता हो।”

Friday, April 18, 2025

दस रुपये का चढ़ावा

गरमी का मौसम था, मैने सोचा पहले गन्ने का रस पीकर काम पर जाता हूँ। एक छोटे से गन्ने की रस की दुकान पर गया। वह काफी भीड-भाड का इलाका था, वहीं पर काफी छोटी-छोटी फूलो की, पूजा की सामग्री ऐसी और कुछ दुकानें थीं और सामने ही एक बडा मंदिर भी था, इसलिए उस इलाके में हमेशा भीड रहती है। मैंने रस का आर्डर दिया और मेरी नजर पास में ही फूलों की दुकान पे गयी , वहीं पर तकरीबन 37 वर्षीय एक सज्जन व्यक्ति ने 500 रूपयों वाले फूलों के हार बनाने का आर्डर दिया , तभी उस व्यक्ति के पिछे से एक 10 वर्षीय गरीब बालक ने आकर हाथ लगाकर उसे रस की पिलाने की गुजारिश की।

पहले उस व्यक्ति का बच्चे के तरफ ध्यान नहीं था , जब देखा तब उस व्यक्ति ने उसे अपने से दूर किया और अपना हाथ रूमाल से साफ करते हुए चल हट कहते हुए भगाने की कोशिश की।

उस बच्चे ने भूख और प्यास का वास्ता दिया !!

वो भीख नहीं मांग रहा था, लेकिन उस व्यक्ति के दिल में दया नहीं आयी। बच्चे की आँखें कुछ भरी और सहमी हुई थी, भूख और प्यास से लाचार दिख रहा था।

इतने में मेरा आर्डर दिया हुआ रस आ गया।

मैंने और एक रस का आर्डर दिया उस बच्चे को पास बुलाकर उसे भी रस पीला दिया। बच्चे ने रस पीया और मेरी तरफ बडे प्यार से देखा और मुस्कुराकर चला गया।

*उस की मुस्कान में मुझे भी खुशी और संतोष हुआ, लेकिन वह व्यक्ति मेरी तरफ देख रहा था। जैसे कि उसके अहम को चोट लगी हो।

फिर मेरे करीब आकर कहा:- आप जैसे लोग ही इन भिखारियों को सिर चढाते है

मैंने मुस्कराते हुए कहा:- आपको मंदिर के अंदर इंसान के द्वारा बनाई पत्थर की मूर्ति में ईश्वर नजर आता है, लेकिन ईश्वर द्वारा बनाए इंसान के अंदर ईश्वर नजर नहीं आता है! मुझे नहीं पता आपके 500 रूपये के हार से मंदिर में बैठा आपका भगवान मुस्करायेगा या नहीं, लेकिन मेरे 10 रूपये के चढावे से मैंने मेरे भगवान को मुस्कराते हुए देखा है।

मानव सेवा ही श्रेष्ठ सेवा है।

जीवन लक्ष्य

          ये  शरीर  कृष्ण कृपा से मिला है और केवल कृष्ण  की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इसलिये हम को चाहे कुछ भी त्यागना पडें, सब छोड़कर कृष्ण भक्ति   में तुरन्त लग जाना चाहिये।

         जैसे छोटा बालक कहता है कि माँ मेरी है। उससे कोई पूँछे कि माँ तेरी क्यों है तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है। उसके मन में यह शंका ही पैदा नहीं होती कि माँ मेरी क्यों है ? माँ मेरी है बस इसमें उसको कोई सन्देह नहीं होता। इसी तरह आप भी सन्देह मत करो और यह बात दृढता से मान लो कि कृष्ण  मेरे हैं। कृष्ण के सिवाय और कोई मेरा नहीं है क्योंकि वह  सब छूटने वाला है। जिनके प्रति आप बहुत आसक्त  रहते हैं, वे माँ-बाप, पति-पत्नी, बच्चे, रूपये, जमीन, मकान, रिश्ते-नाते आदि सब छूट जायेंगें। उनकी याद तक नहीं रहेगी।

           अगर याद रहने की रीत हो तो बतायें कि इस जन्म से पहले आप कहाँ थे। आपके माँ, बाप स्त्री, पुत्र कौन थे ? ‘

          आपका घर कौन सा था। जैसे पहले जन्म की याद नहीं है, ऐसे ही इस जन्म की भी याद नहीं रहेगी। जिसकी याद तक नही रहेगी उसके लिये आप अकारण परेशान हो रहे हो। यह सबके अनुभव की बात है कि हमारा कोई नहीं है सब मिले हैं और विछुड जायेगें, आज नहीं तो कल इसलिये- "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई", ऐसा मानकर मस्त हो जाओ।

           दुनियाँ सब की सब चली जाये तो परवाह नहीं है पर हम केवल कृष्ण के हैं, और केवल कृष्ण हमारे हैं। केवल एक मात्र यही सच है और बाकी सब झूठ। इसके सिवाय और किसी बात की ओर देखो ही मत, विचार ही मत करो।

          आज से कृष्ण  के होकर रहो, कोई क्या कर रहा है कृष्ण जानें, हमें मतलब नहीं है। सब संसार नाराज हो जाये तो परवाह नहीं पर कृष्ण तो मेरे हैं - इस बात को पकड़ कर रखो।


कॉमन सेंस

एक पंडितजी के घर में उनकी पहली संतान का जन्म होने वाला था। उनका नाम पंडित विष्णुदत्त शास्त्री था। पंडितजी ज्योतिष के प्रकांड विद्वान थे और उन्होंने दाई से कह रखा था कि जैसे ही बालक का जन्म हो नींबू प्रसूतिकक्ष से बाहर लुढ़का देना। 

बालक जन्मा लेकिन बालक रोया नहीं तो दाई ने हल्की सी चपत उसके तलवों में दी और पीठ को मला और अंततः बालक रोया। 

दाई ने नींबू बाहर लुढ़काया और बच्चे की नाल आदि काटने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गई।उधर पंडितजी ने गणना की तो उन्होंने पाया कि बालक की कुंडली में पितृहंता योग है अर्थात उनके ही पुत्र के हाथों ही उनकी मृत्यु का योग है। पंडितजी शोक में डूब गए और अपने पुत्र को इस लांछन से बचाने के लिए बिना कुछ कहे बताए घर छोड़कर चले गए। 

सोलह साल बीते।

बालक अपने पिता के विषय में पूछता लेकिन बेचारी पंडिताइन उसके जन्म की घटना के विषय में सबकुछ बताकर चुप हो जाती क्योंकि उसे इससे ज्यादा कुछ नहीं पता था। अस्तु! पंडितजी का बेटा अपने पिता के पग चिन्हों पर चलते हुये प्रकांड ज्योतिषी बना। उसी बरस राज्य में वर्षा नहीं हुई। राजा ने डौंडी पिटवाई जो भी वर्षा के विषय में सही भविष्यवाणी करेगा उसे मुंहमांगा इनाम मिलेगा लेकिन गलत साबित हुई तो उसे मृत्युदंड मिलेगा। 

बालक ने गणना की और निकल पड़ा। लेकिन जब वह राजदरबार में पहुंचा तो देखा एक वृद्ध ज्योतिषी पहले ही आसन जमाये बैठे हैं। राजन !! आज संध्याकाल में ठीक चार बजे वर्षा होगी।" वृद्ध ज्योतिषी ने कहा। 

बालक ने अपनी गणना से मिलान किया और आगे आकर बोला -  महाराज !! मैं भी कुछ कहना चाहूंगा। राजा ने अनुमति दे दी। 

राजन वर्षा आज ही होगी लेकिन चार बजे नहीं बल्कि चार बजे के कुछ पलों के बाद होगी।

वृद्ध ज्योतिषी का मुँह अपमान से लाल हो गया और उन्होंने दूसरी भविष्यवाणी भी कर डाली। 

महाराज !! वर्षा के साथ ओले भी गिरेंगे और ओले पचास ग्राम के होंगे।

बालक ने फिर गणना की। 

महाराज !! ओले गिरेंगे लेकिन कोई भी ओला पैंतालीस से अडतालीस ग्राम से ज्यादा का नहीं होगा।

अब बात ठन चुकी थी। लोग बड़ी उत्सुकता से शाम का इंतजार करने लगे। 

साढ़े तीन तक आसमान पर बादल का एक कतरा नहीं था लेकिन अगले बीस मिनट में क्षितिज से मानो बादलों की सेना उमड़ पड़ी। 

अंधेरा सा छा गया। बिजली कड़कने लगी लेकिन चार बजने पर भी पानी की एक बूंद न गिरी।लेकिन जैसे ही चार बजकर दो मिनट हुये धरासार वर्षा होने लगी। वृद्ध ज्योतिषी ने सिर झुका लिया।आधे घण्टे की बारिश के बाद ओले गिरने शुरू हुए। राजा ने ओले मंगवाकर तुलवाये। कोई भी ओला पचास ग्राम का नहीं निकला।

शर्त के अनुसार सैनिकों ने वृद्ध ज्योतिषी को सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया और राजा ने बालक से इनाम मांगने को कहा - महाराज !! इन्हें छोड़ दिया जाये। बालक ने कहा। राजा के संकेत पर वृद्ध ज्योतिषी को मुक्त कर दिया गया। 

बजाय धन संपत्ति मांगने के तुम इस अपरिचित वृद्ध को क्यों मुक्त करवा रहे हो।बालक ने सिर झुका लिया और कुछ क्षणों बाद सिर उठाया तो उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। क्योंकि ये सोलह साल पहले मुझे छोड़कर गये मेरे पिता श्री विष्णुदत्त शास्त्री हैं। वृद्ध ज्योतिषी चौंक पड़ा। 

दोनों महल के बाहर चुपचाप आये लेकिन अंततः पिता का वात्सल्य छलक पड़ा और फफक कर रोते हुए बालक को गले लगा लिया। आखिर तुझे कैसे पता लगा कि मैं ही तेरा पिता विष्णुदत्त हूँ।

क्योंकि आप आज भी गणना तो सही करते हैं लेकिन कॉमन सेंस का प्रयोग नहीं करते।" बालक ने आंसुओं के मध्य मुस्कुराते हुए कहा।

"मतलब"? पिता हैरान था। 

वर्षा का योग चार बजे का ही था लेकिन वर्षा की बूंदों को पृथ्वी की सतह तक आने में कुछ समय लगेगा कि नहीं?ओले पचास ग्राम के ही बने थे लेकिन धरती तक आते आते कुछ पिघलेंगे कि नहीं?              और... 

दाई माँ बालक को जन्म लेते ही नींबू थोड़े फैंक देगी,उसे कुछ समय बालक को संभालने में लगेगा कि नहीं और उस समय में ग्रहसंयोग बदल भी तो सकते हैं और पितृहंता योग पितृरक्षक योग में भी तो बदल सकता है न?

पंडितजी के समक्ष जीवन भर की त्रुटियों की श्रंखला जीवित हो उठी और वह समझ गए कि केवल दो शब्दों के गुण के अभाव के कारण वह जीवन भर पीड़ित रहे और वह थे-- कॉमन सेंस

तस्मै श्री गुरुवे नमः

हम बदलेंगे,युग बदलेगा।आपका हर पल मंगलमय हो।

कामनाओं को नियंत्रित रखे सदैव

बंधुओ, शिथिल एवं अधूरी कामनाएँ भी अशांति का एक कारण होती हैं। शिथिल कामना वाला व्यक्ति थोड़ा सा प्रयत्न करके बड़ी उपलब्धि चाहने लगता है और जब उसको नहीं पा सकता तो समाज अथवा परिस्थितियों को दोष देकर जीवनभर असफलता के साथ बँधा रहता है।

अपनी स्थिति से परे की कामनाएँ करना, अपने को एक बड़ा दण्ड देने के बराबर है। मोटा सा सिद्धांत है कि अपनी शक्ति के बाहर की गई कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकती और अपूर्ण कामनाएँ हृदय में काँटे की तरह चुभा करती हैं।

मनुष्य को अपने अनुरूप, अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार ही कामना करते हुए अपने पूरे पुरुषार्थ को उस पर लगा देना चाहिए।

इस प्रकार एक सिद्धि के बाद दूसरी सिद्धि के लिए पूर्व सिद्धि और उपलब्धियों का समावेश कर आगे प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस प्रकार एक दिन वह कोई बड़ी कामना की पूर्ति भी कर लेगा। 

"निःसन्देह कामनाएँ मनुष्य का स्वभाव ही नहीं, आवश्यकता भी है, किंतु इनका औचित्य, नियंत्रण, दृढ़ और प्रयत्नपूर्ण होना भी वांछनीय है। तभी ये जीवन में अपनी पूर्ति के साथ सुख-शान्ति का अनुभव दे सकती हैं "अन्यथा "अनियंत्रित" एवं "अनुपयुक्त" कामनाओं से बड़ा शत्रु मानव-जीवन की सुख-शान्ति के लिए दूसरा कोई नहीं है।"


आहार के प्रकार एवं उनका प्रभाव

 

आहार सदा सात्विक होना चाहिए

      भोजन शरीर तथा मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव डालता है, आयुर्वेद में आहार को अपने चरित्र एवं प्रभाव के अनुसार सात्विक, राजसिक या तामसिक रूपों में वर्गीकृत किया गया है, कोई कैसा भोजन पसंद करता है यह जानकर उसकी प्रकृति व स्वाभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

सात्विक भोजन

      सात्विक भोजन सदा ही ताज़ा पका हुआ, सादा, रसीला, शीघ्र पचने वाला, पोषक, चिकना, मीठा एवं स्वादिष्ट होता है यह मस्तिष्क की उर्जा में वृद्धि करता है और मन को प्रफुल्लित एवं शांत रखता है, सोचने-समझने की शक्ति को और भी स्पष्ट बनाता है सात्विक भोजन शरीर और मन को पूर्ण रूप से स्वस्थ रखने में बहुत अधिक सहायक है।

       देसी गाय का दूध, घी, पके हुए ताजे फल, बादाम, खजूर, सभी अंकुरित अन्न व दालें, टमाटर, परवल, तोरई, करेला जैसी सब्जियां, पत्तेदार साग सात्विक मानी गयीं हैं घर में सामान्यतः प्रयोग किये जाने वाले मसाले जैसे हल्दी, अदरक, इलाइची, धनिया, सौंफ और दालचीनी सात्विक होते हैं।

सात्विक व्यक्तित्व

       जो व्यक्ति सात्विक आहार लेते हैं उनमें शांत व सहज व्यवहार, स्पष्ट सोच, संतुलन एवं आध्यात्मिक रुझान जैसे गुण देखे जाते हैं. ईश्वर भक्ति, जीव प्रेम, दया , करुणा जैसे गुण से समृद्ध होते है।

       सात्विक व्यक्ति आमतौर पर शराब जैसे व्यसनों, चाय-कॉफी, तम्बाकू और मांसाहारी भोजन जैसे उत्तेजक पदार्थों नही ग्रहण करते हैं।

राजसिक भोजन

        राजसिक आहार भी ताजा परन्तु भारी होता है. इसमें मांसाहारी पदार्थ जैसे मांस, मछली, अंडे, अंकुरित न किये गए अन्न व दालें, मिर्च-हींग जैसे तेज़ मसाले, लहसुन, प्याज और मसालेदार सब्जियां आती हैं. राजसिक भोजन का गुण है की यह तुंरत पकाया गया और पोषक होता है।

        इसमें सात्विक भोजन की अपेक्षा कुछ अधिक तेल व मसाले हो सकते हैं। राजसिक आहार उन लोगों के लिए हितकर होता है जो जीवन में संतुलित आक्रामकता में विश्वास रखते हैं जैसे सैनिक, व्यापारी, राजनेता एवं खिलाड़ी।

       राजसिक आहार सामान्यतः कड़वा, खट्टा, नमकीन, तेज़, चरपरा और सूखा होता है. पूरी, पापड़, बिजौड़ी जैसे तले हुए पदार्थ , तेज़ स्वाद वाले मसाले, मिठाइयाँ, दही, बैंगन, गाजर-मूली, उड़द, नीबू, मसूर, चाय-कॉफी, पान राजसिक भोजन के अर्न्तगत आते हैं।

राजसिक व्यक्तित्व

       राजसिक आहार भोग की प्रवृत्ति, कामुकता, लालच, ईर्ष्या, क्रोध, कपट, कल्पना, अभिमान और अधर्म की भावना पैदा करता है. राजसिक व्यक्तित्व वाले लोग शक्ति, सम्मान, पद और संपन्नता जैसी चीज़ों में रूचि रखते हैं। इनका अपने जीवन पर बहुत हद तक नियंत्रण होता है; ये अपने स्वार्थों को सनक की हद तक नहीं बढ़ने देते। राजसिक व्यक्ति दृढ़ निश्चयी होते हैं और अपने जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, राजसिक व्यक्ति अक्सर ही अपनी जीभ को संतुष्ट करने के लिए अलग अलग मसाले दार चटपटा व्यंजनों में रुचि रखते है।

तामसिक भोजन

        तामसिक आहार में ऐसे खाद्य पदार्थ आते हैं जो ताजा न हों वासी हो, जिनमे जीवन शेष न रह रह गया हो , ज़रूरत से ज्यादा पकाए गए हों, बुसे हुए पदार्थ या प्रसंस्कृत भोजन अथवा प्रोसेस्ड फ़ूड ।

         मांस, मछली और अन्य सी-फ़ूड, वाइन, लहसुन, प्याज और तम्बाकू परंपरागत रूप से तामसिक माने जाते रहे हैं.

तामसिक व्यक्तित्व

        तमस हमारी जीवनी शक्ति में अवरोध पैदा करता है जिससे की धीरे धीरे स्वस्थ्य और शरीर कमज़ोर पड़ने लग जाता है. तामसिक आहार लेने वाले व्यक्ति बहुत ही मूडी किस्म के हो जाते हैं, उनमें असुरक्षा की भावना, अतृप्त इच्छाएं, वासनाएं एवं भोग की इच्छा हावी हो जाती है; जिसके कारण वे दूसरों से संतुलित तरीके से व्यवहार नहीं कर पाते इनमे दूसरों को उपयोग की वस्तु की तरह देखने, और किसी के नुकसान से कोई सहानुभूति न रखने की भावना आ जाती है. यानि की ऐसे लोग स्वार्थी और खुद में ही सिमट कर रह जाते हैं. इनका केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और ह्रदय पूरी शक्ति से काम नहीं कर पाता और इनमें समय से काफी पहले ही बुढापे के लक्षण दिखने में आने लगते हैं. ये सामान्यतः कैंसर, ह्रदय रोग, डाईबीटीज़, आर्थराईटिस और लगातार थकान जैसी जीवनशैली सम्बन्धी समस्याओं से ग्रस्त पाए जाते हैं।

     सात्विक, राजसिक और तामसिक यह केवल खाद्य पदार्थों के ही गुण नहीं है, बल्कि जीवन जीने व उसे दिशा देने का मार्ग भी हैं।

Thursday, April 17, 2025

एक ऐसा नेता जिसे श्राप लगा हुआ है

शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मध्यप्रदेश सरकार अशासकीय विद्यालयों को कुछ अनुदान देती थी। कुछ प्रबन्ध समितियों की अनियमितताओं के चलते सरकार द्वारा दिए जाने वाले इस अनुदान को "वेतन संदाय अधिनियम 1978" में बदल दिया गया था। इस अधिनियम के तहत अनुदान प्राप्त सभी शिक्षकों को शासन की ओर से अनुदान की जगह 100 % वेतन दिया जाने लगा। इसलिए इस अधिनियम का नाम अनुदान न होकर वेतन संदाय कर दिया गया। अतः शासकीय शिक्षकों के समान इन शिक्षकों को भी सभी लाभ दिए जाने लगे। रिक्त पदों पर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्ती के लिए बाकायदा विज्ञापन दिए जाने लगे। शासकीय शिक्षा विभाग द्वारा आदेशित  अधिकारियों या उनके द्वारा नियुक्त विषय विशेषज्ञों सहित अधिकृत चयन

कमेटियों द्वारा साक्षात्कार लेकर शिक्षकों कर्मचारियों की भर्तियांँ हुईं। शिक्षा विभाग द्वारा उनके अनुमोदन हुए। तब भर्ती परीक्षाएँ नहीं होती थीं किन्तु यह सब विधि सम्मत था।

उक्त अधिनियम में पेंशन का प्रावधान नहीं था किन्तु इसके बदले में इन शिक्षकों को दो वर्ष की अतिरिक्त आवश्यक सेवा अवधि के लाभ का प्रावधान किया गया। यदि शासकीय शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 60 वर्ष की आयु में होती थी तो इन विद्यालयों के शिक्षकों की सेवानिवृत्ति 62 वर्ष पूर्ण होने पर होती थी। इसके साथ ही हर विद्यालय की प्रबन्ध समिति  शिक्षक की सहमति और उपयोगिता के आधार पर सरकार से प्रति वर्ष एक वर्ष की वृद्धि की स्वीकृति लेकर 65 वर्ष तक के लिए इनकी सेवाएँ बढ़ा सकती थी इस तरह सेवा की अधिकतम आयु 65 वर्ष तक थी।

शिक्षकों ने इसे राष्ट्रीय और शासकीय सेवा समझकर इस नौकरी को सहर्ष स्वीकार कर लिया था। सन् 2000 तक इन शिक्षकों को आने वाली हर सरकार भी पूरा वेतन व सुविधाएँ देती रही, शिक्षकों ने भी जी भर कर परिश्रम किया और अन्यों की तुलना में अच्छे से अच्छे परिणाम दिए। इस कारण इन विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या सीमा से अधिक ही रहा करती थी। एडमिशन के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। सरकारों ने इन शिक्षकों से भी जनगणना, मकान गणना, मतदाता सूची, चुनाव आदि राष्ट्रीय और राजकीय कार्यों हेतु ड्यूटी लगाकर खूब काम लिया।

दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! नेकी के‌ परिणाम ही बदी में बदल गए। एक ही घटना ने मध्यप्रदेश की पूरी शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त कर दी। दिग्विजय सिंह की सरकार ने सन् 2000 में नया अध्यादेश लाकर फिर उसे विधानसभा में विधेयक के रूप में प्रस्तुत कर पारित करवा लिया। कानून बन गया जिसमें हिन्दुओं के विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में प्रति वर्ष 20% कटौती करते हुए पाँच वर्ष में पूरा वेतन खत्म कर देने की कार्यवाही कर दी वहीं अल्प संख्यकों द्वारा संचालित विद्यालयों के शिक्षकों के वेतन में कभी कोई कटौती नहीं की जाने का भी प्रावधान किया गया। इस अवसर पर माननीय कैलाश विजयवर्गीय जैसे विपक्ष के समर्थ कई विधायकों ने क्रोधित होकर विधेयक का विरोध करते हुए हंगामें के साथ विधानसभा में इस विधेयक की प्रतियाँ फाड़ीं थीं।

कानून पास होते ही न जाने कितने शिक्षकों ने नौकरियाँ छोड़ दीं। कई शिक्षकों की हृदय गति रुकने से‌ मृत्यु हो गई। कइयों को  अन्य अनेक कारणों से अल्पायु में ही मरना पड़ा। कई पागल हो गए।धन के अभाव में अवसादग्रस्त कई शिक्षकों के बच्चों की उच्च शिक्षा रुक गई, वे फिर कभी अपना समुचित विकास न कर पाए। कुछ के बेटे शराबी और अपराधी हो गए। एक ऐसी मानसिक अराजकता में छात्रों की शिक्षा में प्रगति रुक गई, उसी में राष्ट्र निर्माता शिक्षक उलझ गया। कइयों की बेटियों को क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ा? शिक्षिकाओं की आँखें हमेशा के लिए गीली हो उठीं। तत्कालीन सत्ताधारी मन्त्रियों विधायकों में किसी को भी दया नहीं आई। तथाकथित सम्मान के धनी इन शिक्षकों के अपमान को जगह-जगह लेखक ने भी खूब अनुभूत किया है।

उस समय सत्ता ऐसे दुष्टों के हाथ में कैद हो गई थी, जिनमें नैतिकता और मानवता के लिए सुखकारी लकीरें ही नहीं थीं। उस शासन में बिजली की इतनी किल्लत थी कि किसान मजदूर शहरी ग्रामीण सभी दुखी हो गए। सड़कों की दुर्दशा, सभी दैनिक वेतनभोगियों की एक ही दिन में अकारण बर्खास्तगी, रोडवेज कर्मचारियों की नौकरी ख़त्म करने के आदेश आदि अनेक जनविरोधी निर्णयों को याद करते हैं तो उस समय की दुर्दशा पर रूह काँप उठती है। हाय रे क्रूरता की पराकाष्ठा राम!राम! अगर कुछ सुखी थे तो मात्र सत्ता से जुड़े हुए लोग। सत्ता के मद में चूर केवल यही लोग समझ रहे थे कि अभी तक के शासन कालों में जनता सबसे अधिक खुशहाल और प्रसन्न है।

ऐसे में बेचारे इन शिक्षकों के परिवारों ने तब हमेशा के लिए दृढ़ होकर संकल्प लिया था कि जिस दल की सरकार ने हमारे परिवारों को भूखों मारा है, उसे सत्ता में अब नहीं आने देंगे। ऐसा हुआ भी। इसीलिए इन शिक्षकों के परिवार आज तक काँग्रेस और विशेषकर दिग्विजय सिंह का बिल्कुल समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि अन्तरात्मा से श्राप दे चुके हैं। सभी शिक्षकों को तभी से उनसे एक घृणा सी हो गई है। शापित होने के कारण ही अब वह दल और दिग्विजय सिंह दोनों बुरी तरह अपना जनाधार खो चुके हैं। हाँ, पार्टी में सक्षम नेतृत्व के अभाव और अपने राजनीतिक छल-बल से वे राज्य सभा के लिए
चुन लिए जाते हैं किन्तु सत्य तो यह है कि उनकी पार्टी में मन से उन्हें कोई भी पसन्द नहीं करता। ऐसे नेता पर मध्य प्रदेश क्या समूचा देश गर्वित न हो कर अत्यधिक लज्जित होता है।

दूसरी सरकारें आईं उन्होंने भी चुनाव के समय झूठे आश्वासन दिए किन्तु किया कुछ नहीं। भला हो उस सुप्रीम कोर्ट का जिसने 2014 में वेतन संदाय अधिनियम 1978 को पुनर्जीवित कर दिया। तब जाकर कुछ न्याय मिल सका। 100% वेतन फिर मिलने लगा लेकिन सन् 2000 से 2014 तक क्या-क्या नहीं बीती इन शिक्षकों पर ईश्वर ही जानता है। इतने पर भी इन शिक्षकों को अभी पूरा लाभ नहीं मिला है।

वर्तमान सरकार ने भी अभी तक सातवाँ वेतनमान नहीं दिया क्रमोन्नति लाभ भी नहीं दिये। यहाँ तक कि सेवानिवृत्त शिक्षकों को आधिकारिक रूप से मिलने वाली ग्रेच्युटी तक नहीं दी पेंशन तो बहुत दूर की बात है। दो साल सेवा का लाभ भी नहीं दिया है। 2016 से सेवानिवृत्त शिक्षकों को कुछ भी नहीं मिला न सातवाँ वेतनमान न क्रमोन्नति,न ग्रेच्युटी, न पेंशन, न दो साल की सेवा का अतिरिक्त लाभ, न समयमान वेतनमान।
देश के दूसरे प्रान्तों में अनुदान प्राप्त शिक्षकों को उक्त सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। कितना अमानवीय व्यवहार हुआ है शिक्षकों के साथ , कल्पना से परे है।

सांसद विधायक आदि पाँच साल तक उच्च वेतन भत्ते व सेवा के बाद पेंशन प्राप्त करते हैं किन्तु 40 साल सेवा करने के बाद भी बेचारे इन शिक्षकों को कोई पेंशन क्यों नहीं मिलती? जब ग्रेच्युटी हर कर्मचारी का अधिकार है तो ग्रेच्युटी क्यों नहीं दे रही सरकार। सत्ता के मद में हमारे नेता क्यों नहीं समझते? समय बढ़ाने के लिए कोर्ट चले जाते हैं। समझ से परे है। गम्भीर विचार करना चाहिए। बुढ़ापा इनको भी सताता है। इनको भी बीमारी घेरती है। दवाइयों की जरूरत इनको भी है। वाह रे संवेदनशील सरकारी तन्त्र! न जाने कितने शिक्षक उचित न्याय अभाव में अपनी जान गँवा रहे हैं।

अब केवल न्यायालय का सहारा है उसमें भी सरकार तारीखों पर तारीखें बढ़वाती रहती है, समय पर न्याय भी नहीं मिलने देती। न्यायालय भी इन प्रकरणों पर ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षक है। क्या करेगा? यह सोच कर काँग्रेस अब अपनी बहुत बड़ी भूल को सुधारने की बात कह रही है जबकि सत्ता में रहते मदमाते नेताओं को सोचना चाहिए था कि इस जगह हम होते तो क्या करते, लेकिन इन सभी की संवेदनशीलता मात्र घड़ियाली आंँसू सिद्ध होती रही है।

राष्ट्रनिर्माता कह देना और मानना दोनों बातों में बहुत बड़ा अन्तर होता है। वर्तमान सरकार से भी पूरी तरह हताश ये शिक्षक घर के रहे न घाट के। इन शिक्षकों के परिवारों में यह भावना घर कर गई है कि सरकारें हमें कुछ नहीं देंगीं जो भी हक मिलेगा वह माननीय कोर्ट के द्वारा ही मिलेगा। अब ये सोच रहे हैं कि मध्यप्रदेश में एक बार फिर सामूहिक प्रण किया जाए। ये शिक्षक संख्या में भले ही कम हों किन्तु किसी एक जाति या किसी एक वर्ग के नहीं होने से इन शिक्षकों को विभिन्न समाजों में पसरे शिष्यों से गहरा सम्मान प्राप्त होता है। जी में आता है कि इस प्रकरण की हर पहलू और उसके परिणाम पर विचार करते हुए ईमानदारी से एक ऐसी पुस्तक लिखी जाए जो काल-पात्र की संज्ञा को प्राप्त हो।

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर

मृत्यु के साथ मिट जाते हैं रिश्ते

       एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ मृत्युलोक का भ्रमण कर रहे थे। गर्मियों के दिन थे। गर्मी की वजह से वह पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से २५/३० बकरों को लेकर गुजरा।

    उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था - 'शगालचंद सेठ।' दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये। बकरा 'मैंऽऽऽ.... मैैंऽऽऽ...' करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर गये।

     फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः "जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है।" देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।

       तब तुम्बरू ने पूछाः "गुरुदेव! आप क्यों हँस रहे हैं? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इस हँसी का क्या रहस्य है?"

नारद जी ने कहाः 

"छोड़ो भी.... यह तो सब अपने अपने कर्मों का फल है, छोड़ो।"

"नहीं गुरुदेव! कृपा करके बताऐं।"

अच्छा सुनो: "इस दुकान पर जो नाम लिखा है 'शगालचंद सेठ' - वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरे की योनि में जन्म लेकर आया है; और यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। सेठ मरकर बकरा बना और इस दुकान से अपना पुराना सम्बन्ध समझकर इस पर मोठ खाने गया। 

      उसके पूर्व जन्म के बेटे ने उसको मारकर भगा दिया। मैंने देखा कि ३० बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह क्यों गया कमबख्त? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका दुकान से पुराना सम्बंध था। 

      जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतनी महेनत की थी, इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और खा भी लिये हैं तो कसाई से मुंडी माँग रहा है "अपने ही बाप की"! 

     नारदजी कहते हैं; इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही है। अपने-अपने कर्मों के फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगने ही पड़ते हैं और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता, काम आता है तो वह है केवल भगवान का नाम।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

अपने पापों ओर पुण्यों का हिसाब मनुष्य को स्वंय ही भोगना है...

_शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर

सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो मगर हज़ारों हाथों से बांटो।

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

Wednesday, April 16, 2025

फिजां ने कैसा रंग दिखलाया

 कविता

रचना ॥ उदय किशोर साह ॥
मो० पो० जयपुर जिला बांका बिहार

बागों की कलियाँ हमें देख मुस्कराई
छू मंतर हो गई मेरी गम व      तन्हाई
फिजां ने कैसा ये रंग आज दिखलाया
जीवन जीने की नई आस ये   जगाया

पहाड़ो की तन पे छाई है जवां हरियाली
अँबर पे डोल रही है मेघा   काली काली
वन में मोरनी ने ओढ़ चुनरी है       नाचे
बादलों की गड़गड़ाहट जैसे दुन्दभि बाजे

आरे वरसा तुँ प्यार की बूँद  बरसा     जा
प्यासे धरती की अब तुम   प्यास बुझा जा
खेत खलिहान के तन पे सजा जा हरियाली
नदी ताल तलैया अब भी है यहाँ       खाली

पुरवाई ले आई है प्यार का एक      संदेशा
मिलन में ना लगता है अब कछु भी अंदेशा
दीदार अक्स अपनी इस पल करा कर जाना
अब और ना मेरे  बेबस दिल को।     तड़पाना

दो दिल मिल कर समझौता अब  कर।   लें
गिले शिकवे सारे आज हम दोनों भुला    दें
तन मन में जीवन की आस जगा           दो
हमराही बन कर आ हमें गले लगा        लो


बुराई का अंत

एक सांप को एक बाज़ आसमान पे ले कर उड राहा था..

अचानक पंजे से सांप छूट गया और कुवें मे गिर गया बाज़ ने बहुत कोशिश की अखिर थक हार कर चला गया..

सांप ने देखा कुवें मे बड़े किंग साईज़ के बड़े बड़े मेढक मौजूद थे.. 

पहले तो डरा फिर एक सूखे चबूतरे पर जा बैठा और मेढकों के प्रधान को लगा खोजने.. 

अखिर उसने एक मेढक को बुलाया और कहा मैं सांप हूँ मेरा ज़हर तुम सब को पानी मे मार देगा.. 

ऐसा करो रोज़ एक मेढक तुम मेरे पास भेजा करो, वह मेरी सेवा करेगा और तुम सब बहुत आराम से रह सकते हो.. 

पर याद रखना एक मेढक रोज़ रोज़ आना चाहिए.. एक एक कर के सारे मेढक सांप खा गया.. 

जब अकेले प्रधान मेढक बचा तब सांप चबूतरे से उतर कर पानी मे आया और बोला प्रधान जी आज आप की बारी है 

प्रधान मेढक ने कहा मेरे साथ विश्वास घात ? सांप बोला जो अपनो के साथ विश्वास घात करता है उसका यही अंजाम होता है।

फिर उसने प्रधान जी को गटक लिया।

कुछ देर के बाद साँप आहिस्ता आहिस्ता कुवें के ऊपर आ कर चबूतरे पर लेट गया.. 

तभी एक बाज़ ने आ कर साँप को दबोच लिया.. 

पहचान साँप मुझे मैं वही बाज़ हूँ जिसके बच्चे तूने पिछले साल खा लिये थे.. 

और जब तुझे पकड़ कर ले जा रहा था तब तू मेरे पंजे से छूट कर कुवें मे जा गिरा था.. 

तब से मैं रोज़ तेरी हरकत पर नज़र रखता था.. आज तू सारे मेढक खा कर काफी मोटा हो गया.. 

मेरे फिर से बच्चे बड़े हो रहे है वह तुझे ज़िंदा नोच नोच कर अपने भाई बहनो का बदला लेंगे.. 

फिर बाज़ साँप को लेकर उड़ गया अपने घोसले की तरफ..

बुराई एक दिन हार जाती है वह चाहे कितनी भी ताक़त वर हो..!

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

बड़ा सोचो

अत्यंत गरीब परिवार का एक  बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में  किसी दूसरे शहर जाने के लिए  रेलगाड़ी से  सफ़र कर रहा था | घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटीयां ही रखी थी | आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगने लगी, और वह टिफिन में से रोटीयां निकाल कर खाने लगा | उसके खाने का तरीका कुछ अजीब था , वह रोटी का  एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटीयां थीं।


उसकी इस हरकत को आस पास के और दूसरे यात्री देख कर हैरान हो रहे थे | वह युवक हर बार रोटी का एक टुकड़ा लेता और झूठमूठ का टिफिन में डालता और खाता | सभी सोच रहे थे कि आखिर वह युवक ऐसा क्यों कर रहा था | आखिरकार  एक व्यक्ति से रहा नहीं गया और उसने उससे पूछ ही लिया की भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमे सब्जी हो |


तब उस युवक  ने जवाब दिया, “भैया , इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है लेकिन मै अपने मन में यह सोच कर खा रहा हू की इसमें बहुत सारा आचार है,  मै आचार के साथ रोटी खा रहा हू  |”  फिर व्यक्ति ने पूछा , “खाली ढक्कन में आचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो तो क्या तुम्हे आचार का स्वाद आ रहा है ?” “हाँ, बिलकुल आ रहा है , मै रोटी  के साथ अचार सोचकर खा रहा हूँ और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है |”, युवक ने जवाब दिया|


उसके इस बात को आसपास के यात्रियों ने भी सुना, और उन्ही में से एक व्यक्ति बोला , “जब सोचना ही था तो तुम आचार की जगह पर मटर-पनीर सोचते, शाही गोभी सोचते….तुम्हे इनका स्वाद मिल जाता | तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने आचार सोचा तो आचार का स्वाद आया तो और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता | सोचना ही था तो भला  छोटा क्यों सोचे तुम्हे तो बड़ा सोचना चाहिए था |”


Monday, April 14, 2025

रखी लोकतंत्र की मर्यादा

 संविधान का निर्माण करके,

बने जो आधुनिक संविधान निर्माता,

आज़ादी की परिभाषा समझाई,

रखी  लोकतंत्र की मर्यादा।

कर सके हर भारतीय,

अपने हकों का उपयोग,

ऐसे महान थे भारत रत्न भीमराव,

सिखाई सबको राजनीति की परिभाषा।

बचपन का नाम था इनका भीम,

14अप्रैल को जन्म लिया धरा पर,

सबकी कसौटी पर उतरे खरे,

रखी मजबूत संविधान की नींव।

कहते सब इनको संविधान निर्माता,

थे समान अधिकारों के संरक्षक,

पढ़ाई ऐसी थी इनकी,

थे कानून के प्रख्यात ज्ञाता।

गरीबों शोषितों के थे वो मसीहा,

समानता का था जो अधिकार,

उन्होंने संविधान में था दिया,

तभी बनी थी फिर  आम जनता की सरकार।

खुद रहे थे बचपन से ही शोषित,

पाया था फिर भी शिक्षा को अपार,

अस्पृश्यता और जातिप्रथा पर किया था कड़ा प्रहार,

हमेशा रहे लोगों की सहायता को तत्पर,

ऐसे थे भारत रत्न डॉक्टर भीम राव अंबेडकर।


स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना 

कैप्टन (डॉo) जय महलवाल (अनजान)


मेरे नैन

गुपचुप करते वो सारी बतिया,

जगाते भी जो पूरी ही रतिया,
मौन की भाषा ही बोलते हैं,
राज दिल के सारे खोलते हैं ।

अपनों की चिंता में हो जाते बेचैन,
रात-दिन थके-हारे अश्रुपूरित नैन,
चिंतित हो बहुत कुछ सोचते हैं,
खत्म हुए "आनंद" को खोजते हैं ।

दर्द छुपाना इनको आता ही नहीं,
कशमकश अन्तर्मन की हॉं यहीं,
टुटे दिल के तारों को टटोलते हैं,
अन्तर्मन को बेहद कचोटते है ।

एकटक आस लगाएं तकते ये राह,
अश्रु छलकाते निकलती जब आह,
टुटे हुए रिश्तों के अक्स से जोड़ते हैं,
बीती यादों की तरफ़ ये मोड़ते हैं ।

ख्वाब दिखा मीलों ले जाते ये दूर,
थम न पाते सपने जब हो जाते चूर,
साथी बन दिल का दर्द बॉंटते हैं,
 परछाइयों से मन को यूँ बॉंधते हैं ।
-  मोनिका डागा

सीमित साधनों में निर्वाह की आदत बनायें

    प्रकृति उतना ही धन वैभव उत्पन्न करती है, जिसमें धरती पर रहने वाले सभी प्राणी अपना जीवनयापन सुविधापूर्वक कर सकें। व्यक्ति अधिक धनी बनने की चेष्टा करते हैं, तो इसका सीधा परिणाम होगा कि दूसरों का हक, हिस्सा कटने लगेगा। ऊंँची दीवार उठाने के लिए लिए किसी दूसरी जगह गड्ढा बनाना पड़ता है। कुछ अमीर बनना चाहें, तो यह तभी सम्भव हो सकेगा जब अन्य अनेकों को अभावग्रस्त गरीबी की  स्थिति में रहना पड़े। इस प्रकार की विषमता जब भी जहाँ भी उत्पन्न होगी, वहाँ विग्रह खड़ा करेगी।अनावश्यक धन दुर्व्यसनों में,ठाट-बाट में,  विलास-व्यभिचार में खर्च होता है, फलतः उनके दुष्परिणाम सामने आते हैं। नशेबाजी, आवारागर्दी, आलस्य, प्रमाद, सम्पन्नता का प्रदर्शन, निरर्थक अपव्यय ऐसे ही कृत्य हैं, जो अनावश्यक धन जमा करने वाले के पीछे पड़ते हैं। यह दुर्व्यसन अधिक धन की मांँग करते हैं और एक व्यक्तित्व को गिराने का दुश्चक्र चल दौड़ता है।एक अमीरी भोगे और दूसरा गरीबी में तड़फे, इस विषमता का सीधा परिणाम ईर्ष्या के रूप में सामने आता है।चोरी, डकैती और कुकृत्य भी प्रायः इसी आधार पर बढ़ते देखे जाते हैं। बड़ों की नकल करने की छोटों में ललक उपजती है, वे भी वैसी ही अमीरी के लिए लालायित होते हैं और तरीका बन नहीं पड़ता, तो गलत मार्ग अपनाते हैं। अनेकों विकृतियाँ प्रायः इसीलिए पनपती हैं कि बुराइयों का वातावरण बनने पर सामान्य लोग भी उसी प्रवाह में बहने लगते हैं। धन का अनावश्यक संग्रह एक प्रकार से समाज में अनेक दुष्प्रवृत्तियों का, अवांछनीयताओं का सृजन करता है।सीमित साधनों में निर्वाह करने की आदत मनुष्य को वह लाभ प्रदान करती है, जो सादगी अपनाने वाले सज्जनो को मिलता रहता है । समता ही एकता बनाए रहने में समर्थ है। एकता में मिल-जुलकर रहने की, मिल-बांटकर खाने की प्रवृत्ति पनपती है। उसी आधार पर हँसते - हंसाते, प्रसन्न एवं सन्तुष्ट जीवन जी सकना सम्भव होता है। परिवार में, मित्र संबंधियों में स‌द्भाव बनाए रखना उन्हें उनका चिन्तन और चरित्र मानवी गरिमा के ढाँचे में ढला रखना हो तो उसका प्रधान उपाय यही है कि आर्थिक पवित्रता बनाए रखने के लिए अपना आदर्श प्रस्तुत किया जाए और परिवार में आदर्शवादी वातावरण बनाए रखा जाए। इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता आर्थिक शुचिता की है।   


Saturday, April 12, 2025

रामचरित मानस के सिद्ध मंत्र

१- विपत्ति-नाश के लिये

“राजिव नयन धरें धनु सायक। भगत बिपतिभंजनसुखदायक।।”

२-संकट-नाश के लिये

“जौं प्रभु दीन दयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा।।

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिंसुखारी।।

दीन दयाल बिरिदु संभारी। 

हरहु नाथ मम संकट भारी।।”

३-कठिन क्लेश नाश के लिये

“हरन कठिन कलि कलुषकलेसू। महामोह निसि दलन दिनेसू॥”

४-विघ्न शांति के लिये“

"सकल विघ्न व्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥”

५-खेद नाश के लिये

"जब तें राम ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए॥"

६-चिन्ता की समाप्ति के लिये

"जय रघुवंश बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृशानू॥”

७-विविध रोगों तथा उपद्रवों की शान्ति के लिये

"दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज काहूहिं नहिब्यापा॥”

८-मस्तिष्क की पीड़ा दूर करने के लिये

"हनूमान अंगद रन गाजे। 

हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।”

९-विष नाश के लिये

"नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।” १०-अकाल मृत्यु निवारण के लिये

"नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।”

११-सभी तरह की आपत्ति के विनाश के लिये / भूत भगाने के लिये

"प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।

जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥”

१२-नजर झाड़ने के लिये

"स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।”

१३-खोयी हुई वस्तु पुनः प्राप्त करने के लिएे

“गई बहोर गरीब नेवाजू। 

सरल सबल साहिब रघुराजू।।”

१४-जीविका प्राप्ति केलिये

“बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।”

१५-दरिद्रता मिटाने के लिये

"अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारिके।

कामद धन दारिद दवारि के।।”

१६-लक्ष्मी प्राप्ति के लिये

"जिमि सरिता सागर महुँ जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।

तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।।”

१७-पुत्र प्राप्ति के लिये

"प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।

सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।’

१८-सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये“

"जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।

सुख संपत्ति नाना विधिपावहि।।”

१९-ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के लिये

"साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ।।”

२०-सर्व-सुख-प्राप्ति के लिये

"सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई"।।

२१-मनोरथ-सिद्धि के लिये“

"भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारि।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।”

२२-कुशल-क्षेम के लिये

"भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू।।”

२३-मुकदमा जीतने के लिये

"पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।”

२४-शत्रु के सामने जाने केलिये

"कर सारंग साजि कटि भाथा। अरिदल दलन चले रघुनाथा॥”

२५-शत्रु को मित्र बनाने के लिये

"गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।”

२६-शत्रुतानाश के लिये

"बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥”

२७॰ वार्तालाप में सफ़लता के लिये

"तेहि अवसर सुनि सिवधनुभंगा।

आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥”

२८-विवाह के लिये

"तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि सँवारि कै।

मांडवी श्रुतकीरति उरमिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥”

२९-यात्रा सफ़ल होने के लिये

"प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥”

३०-परीक्षा / शिक्षा की सफ़लता के लिये“

जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥”

३१-आकर्षण के लिये

"जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥”

३२-स्नान से पुण्य-लाभ के लिये

"सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।”

३३-निन्दा की निवृत्ति के लिये

"राम कृपाँ अवरेब सुधारी। बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी।।"

३४-विद्या प्राप्ति के लिये

"गुरु गृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई॥"

३५-उत्सव होने के लिये

"सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।

तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।”

३६-यज्ञोपवीत धारण करके उसे सुरक्षित रखने के लिये

"जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।”

३७-प्रेम बढाने के लिये

"सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती॥"

३८-कातर की रक्षा के लिये

"मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहिं अवसर सहाय सोइ होऊ।।”

३९-भगवत्स्मरण करते हुए आराम से मरने के लिये

"रामचरन दृढ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।

सुमन माल जिमि कंठ तें गिरत न जानइ नाग ॥"

४०-विचार शुद्ध करने के लिये

"ताके जुग पद कमल मनाउँ। जासु कृपाँ निरमल मतिपावउँ।।”

४१-संशय-निवृत्ति के लिये

"राम कथा सुंदर करतारी। 

संसय बिहग उड़ावनिहारी।।”

४२-ईश्वर से अपराध क्षमा कराने के लिये

"अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता।।”

४३-विरक्ति के लिये

"भरत चरित करि नेमु तुलसी जे सादर सुनहिं।

सीय राम पद प्रेमु अवसि होइ भव रस बिरति।।”

४४-ज्ञान-प्राप्ति के लिये

"छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।”

४५-भक्ति की प्राप्ति के लिये

"भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपासिंधु सुखधाम।

सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम।।”

४६-श्रीहनुमान् जी को प्रसन्न करने के लिये

"सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।”

४७-मोक्ष-प्राप्ति के लिये“

"सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। 

काल सर्प जनु चले सपच्छा।।”

४८-श्री सीताराम के दर्शन के लिये“

"नील सरोरुह नील मनि नील नीलधर श्याम ।

लाजहि तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥”

४९-श्रीजानकीजी के दर्शन के लिये

"जनकसुता जगजननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।”

५०-श्रीरामचन्द्रजी को वश में करने के लिये

"केहरि कटि पट पीतधर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकुल भूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान।।”

५१-सहज स्वरुप दर्शन के लिये

"भगत बछल प्रभु कृपा निधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।”


चोंच दी, वह चुगा भी देगा

उन्नीसवीं शताब्दी की बात है, राजस्थान के किसी शहर में एक करोड़पति सेठ था,, सब तरह  से भरा पूरा परिवार,, सुंदरी पति परायणा पत्नी, और दो आज्ञाकारी स्वस्थ पुत्र,,, व्यापार के लाभ और ब्याज से प्रतिवर्ष संपत्ति बढ़ती रहती,, खर्च में वह बहुत मितव्ययी था,, साल के अंत में आय-व्यय का मिलान करता और देख लेता कि पिछले वर्ष की अपेक्षा कितनी बढ़ोतरी हुई है,,, व्यय  कितना रहा,,,,

 एक दिन शहर में एक प्रसिद्ध महात्मा आए,, सेठ ने उनकी प्रसिद्धि की बात सुन रखी थी,, आदर सत्कार के साथ अपने घर लिवा लाया,, सेवा से उन्हें प्रसन्न कर दिया,, महात्मा जी ने जन्मपत्री देखी---- उन्होंने बताया बृहस्पति उच्च है,, सब प्रकार  के सुखों में जीवन व्यतीत होगा,, यश भी भाग्य में खूब लिखा है,, आप साधु महात्माओं और दीन दुखियों को प्रतिदिन अन्न भेंट किया करें,,, इससे आपके वंश में पांच पीढ़ी तक धन,, वैभव और यश बना रहेगा,,,,

महात्मा जी यह सब बता कर चले गए, सेठ उनके कहे अनुसार दूसरे दिन से अन्न वितरण करने लगा ,,,, परंतु उसके मन में एक चिंता रहने लगी,,---- मेरी छठी पीढ़ी कैसे रहेगी,, उसका क्या हाल होगा ,,उसके लिए क्या किया जाए,,,,? इत्यादि,,,,

सेठानी और मुनीम गुमास्तो ने बहुतेरा समझाया,, कि छठी पीढ़ी की अभी चिंता  क्या है,,,? इतनी संपत्ति है, जमा हुआ कारोबार,,,, पांच पीढ़ी तक तो चलेगा ही ,,,आगे भी कोई न कोई उनमें समर्थ होगा,,, जो संभाल लेगा,,, मगर सेठ जी का मन मानता नहीं था,,, बे चिंता में दुबले होते गए ,कुछ बीमार भी रहने लगे,,,,

एक दिन अन्न- वितरण के लिए अपनी कोठी की ड्योढी  पर बैठे थे कि एक गरीब ब्राह्मण भगवत भजन करते हुए सामने से गुजरा,,,, सेठ ने कहा--- महाराज अन्न की भेंट लेते जाइए,,, उसने विनम्रता से उत्तर दिया--- सेठ जी इस समय के लिए मुझे पर्याप्त अन्न की प्राप्ति हो गई है,,,, सांय काल के लिए भी संभवत: किसी दाता ने घर पर सीधा भेज दिया होगा,,,, न होगा तो मैं पूछ कर बता दूंगा,,,,

कुछ देर बाद ब्राह्मण वापस आया उसने बतलाया कि घर पर भी कहीं से सीधा आ गया है,,, इसलिए आज के लिए अब और नहीं चाहिए,,,

सेठ जी कुछ चकित--से  रह गए,,,,कहने लगे--- महाराज आप जैसे सात्विक ब्राह्मण की कुछ सेवा मुझसे हो जाए,,, कम से कम एक तौल  अन्न अपने आदमियों से पहुंचा देता हूं,,,,बहुत दिनों तक काम चल जाएगा,,,,

ब्राह्मण ने  सरल भावना से कहा--- दया निधान! शास्त्रों में लिखा है कि परिग्रह पाप का मूल है,,,, विशेषत:  हम ब्राह्मणों के लिए ,,,, आप किसी और जरूरतमंद को वह अन्न  देने की कृपा करें,,,, दयालु प्रभु ने हमारे लिए आज की व्यवस्था कर दी है,,, कल के लिए फिर अपने आप ही भेज देंगे,,," जिसने चोंच दी है,  वह चुगा भी  देगा"----

सेठ जी उस गरीब ब्राह्मण की बात सुन रहे थे,,, मन ही मन विस्मित भी थे----" इसे तो कल की भी चिंता नहीं,,, जो आसानी से मिल रहा है,, उसे भी लेना नहीं चाहता,, एक मैं हूं,,, जो छठी पीढ़ी की चिंता में घुला जा रहा हूं " ---

दूसरे दिन से वे स्वस्थ और प्रसन्न दिखाई देने लगे,,,, दान धर्म की मात्रा भी बढ़ गई,,, उनके चेहरे पर शांति की आभा विराजने लगी,,,,


प्रभु की गोद

एक व्यक्ति बहुत नास्तिक था,उसको भगवान पर विश्वास नहीं था,एक बार उसका एक्सीडेंट हो गया वह सड़क किनारे पड़ा हुआ लोगो को मदद के लिए पुकार रहा था!पर कलयुग का इन्सान किसी इन्सान की जल्दी से मदद नहीं करता वह लोगों को बुला-बुला कर थक गया लेकिन कोई मदद के लिए नहीं आया ! तभी उसके नास्तिक मन ने कृष्ण को गुहार लगाई उसी समय एक सब्जी वाला गुजरा और उसको गोद में उठाया और अस्पताल पहुंचा दिया,और उसके परिवार वालों को फ़ोन कर अस्पताल बुलाया सभी परिवार वालो ने उस सब्जी वाले को धन्यवाद दिया और उसका नाम पूछा ! तो उसने अपना नाम बांके बिहारी बताया और उसके घर का पता भी लिखवा लिया और बोले जब यह ठीक हो जाएगा तब आपसे मिलने आएंगे ! वह व्यक्ति कुछ समय बाद ठीक हो गया फिर कुछ दिनों बाद वह अपने परिवार के साथ सब्जी वाले से मिलने निकला और बांके बिहारी जी का नाम पूछते हुए उस पते पर पहुंचा लेकिन उसको वहां पर प्रभु का मन्दिर मिलता है वह अचंभित हो जाता है और अपने परिवार के साथ मन्दिर के अन्दर जाता है फिर भी वह पुजारी से नाम लेकर पूछता है कि बांके बिहारी कहा मिलेंगे,पुजारी हाथ जोड़कर मुर्ति की और इशारा करके कहता है,कि यहां यही एक बांके बिहारी है उसके आंखों में आंसू आ जाते हैं और अपनी नास्तिक गलती पर क्षमा मांगता है और बांके बिहारी जी के दर्शन कर जब लोटने लगता है तभी उसकी निगाह एक बोर्ड पर पड़ती है जिस पर एक वाक्य लिखा था कि... "इन्सान ही इन्सान के काम आता है उससे प्रेम करते रहो" मैं तो स्वयं तुम्हें मिल जाऊंगा..!!


Sunday, April 6, 2025

पराई बेटी

 सुजाता जी थोड़ी सी मायूस हो गयी, अभी बेटी को भेज कर । 

यूँ तो खुश भी बहुत थी, आज कल। अभी बेटे की शादी जो हुई है बहू भी उनकी पसन्द की है, और बेटी अपने परिवार में खुश है। 

अब तो उनकी जिम्मेदारियां लगभग खत्म हो गयी है, पर फिर भी बेटी एक बार घर रहकर जाए तो दिल पर जोर तो पड़ता ही है इसीलिए न चाहते हुए भी.. कभी कभी आंखें छलछला रही थी । 

अचानक उन्हें एक याद आया, एक लिफाफा जो अंजू उन्हें जाते हुए थमा गयी थी कि मम्मी इसे फुर्सत में बैठकर पढ़ना, और विचार करना । 

ऐसे भागदौड़ में नही । लेकिन सब्र कहां था उन्हें..??? जल्दी से उसे खोला देखा तो एक खत था उसे खोला औऱ पढ़ने बैठ गयी ।

माँ !! बहुत खुश हूँ ... कि आप अब माँ से एक सास भी बन गयी।

यूँ तो मेरी शादी के बाद ही आप सास बन गयी थी लेकिन फिर भी सास बहू के रिश्ते की अलग बात है । 

मैं जानती हूँ, आप एक अच्छी माँ होने के साथ साथ अच्छी सास भी बनेंगी । पर फिर भी कुछ बातें है जो मैं आपसे कहना चाहती हूँ , जो मैंने खुद देखी और महसूस की है।

बहुत कोशिश की. आपसे खुद कहूँ , पर हिम्मत नही जुटा पायी तो इस खत में लिख दिया ।

जानती हूँ, मैं आपकी एकलौती बेटी हूँ . जिसके कारण आप मुझे बहुत प्यार करती है, आपकी हर चीज मेरी पसन्द से ही होती है.. 

फिर चाहे वो घर के पर्दे ,चादर , पेंट हो या आपकी साड़ियां, ज्वैलरी कुछ भी , आज तक आपने मेरे बिना नही लिया । शादी के बाद भी हम हमेशा साथ साथ ही बाजार गए । 

पर अब मैं चाहती हूँ कि आप ये मौका भाभी को दें. उनकी पसन्द न पसन्द का मान रखे । 

आप चाहे तो मैं उनके साथ हर समय मौजूद रहूँगी । पर उनके साथ या उनके पीछे, उनसे पहले या उनके विरोध में कभी नही । जब तक उनकी कोई बहुत बड़ी गलती न हो.

क्योंकि ..... अब इस घर पर उनका हक है , मैं जानती हूँ आपको ये सब जानकर तकलीफ होगी. और शायद आश्चर्य भी ! 

क्योंकि..!!! मैंने आपको बहुत कुछ है जो कभी नही बताया । 

पर ... माँ , मैं पिछले 5 सालों से ये सब देखती आ रही हूँ , मेरे ही ससुराल में मेरी बातों , मेरी भावनाओं , या पसन्द का कोई महत्व नही है. 

सिर्फ और सिर्फ मेरी दोनो नन्दो को इसका हक़ है , मैं वहां तो कुछ नही कर पाती पर मैंने ये पहले ही से सोच लिया था कि अपनी भाभी के साथ ये सब नही होने दूंगी , 

मैं कभी भी उनके जैसी नन्द नही बनूंगी न ही खुद जैसी अपनी भाभी को बनने दूंगी । 

अब वो घर उनका है , उससे जुड़े फैसले लेने का हक़ भी उनका. चाहे वो छोटी बातें हो या बड़ी. उनकी सहमति सर्वोपरि है । 

मैं भुगत चुकी हूँ , आप जानती है , माँ मैं जब अपने ही कमरे में कुछ बदलाव करती हूँ , तो दीदी मुझसे कैसे बात करती है । 

या घर में मैं कोई भी नई चीज ले आऊं तो उसके लिए मुझे कैसे सुनाया जाता है...

हमारे यहां ये सब नही चलता , आपके मायके में होगा..!!! ये शब्द तो हर दिन लगभग मैं 3-4 बार सुनती हूँ । 

जब मैं उन्हें अपने साथ चलने को बोलती हूँ, तब भी उनके अलग अलग नखरे होते है । 

कभी ..... आज नही भाभी. या आप अपनी पसंद से ही ले आइए न !! साथ न जाने के ढेरों बहाने होते है । इसीलिए अब मैं खुद सब करने लगी हूँ , किसी की परवाह किये बिना ।

आप जानती है , जब भैया मुझसे मिलने आते है न तो घर में सबका मुंह देखने लायक होता है । 

अगर उसके हाथ में कोई बड़ा सा गिफ्ट या सामान देख ले तो सब खुश हो जाते है खाली हाथ उनका आना किसी को गंवारा नही. 

कहते है अभी पिछले हफ्ते ही तो आया था , कोई खास काम था क्या ....??? मैं जानती हूँ इसीलिए उन्होंने अब घर आना भी कम कर दिया । 

मुझे यकीन है कि भैया ने ये बात आपको नही बताई होगी । इसीलिए आप प्लीज भाभी के मायके से किसी के आने पर तानाकशी न करिएगा । 

क्योंकि मैं इसका दर्द जानती हूँ , और घरवालों से मिलने की खुशी भी । 

कभी उन्हें ये मत कहिएगा कि घर से क्या सीख कर आई है ?? जो भी नही आता प्यार से सिखाइयेगा , जैसे आपने मुझे सिखाया था ।।

बस यही कहना था आपसे कि माँ !! अब मैं पराई होना चाहती हूँ  !!  आपकी अंजू 

सुजाता जी की आंखें भर आयी , गला रुंध गया, मुंह से एक शब्द नही निकल रहा था । 

उनकी छोटी सी अंजू आज इतनी बड़ी हो गयी कि अपनी माँ को ही उसने इतनी सारी सीख दे डाली । और खुद सालों से क्या क्या सहन कर रही है, इसकी भनक भी कभी नही लगने दी ।

सुजाता जी ने अंजू से बात करने के लिए फ़ोन उठाया, उधर से हेल्लो की जवाब में सन्नाटा था तो इधर एक कंपकपी थी।


सेवा का सौभाग्य

 यदि जीवन में सेवा का सौभाग्य मिलता हो तो सेवा सभी की करना लेकिन आशा किसी से भी ना रखना क्योंकि सेवा का वास्तविक मूल्य भगवान ही दे सकते हैं इंसान नहीं। जगत से अपेक्षा रखकर कोई सेवा की गई है तो वो एक ना एक दिन निराशा का कारण जरूर बनेगी। 


श्रेष्ठ तो यही है कि अपेक्षा रहित होकर सेवा की जाए। यदि सेवा का मूल्य ये दुनिया अदा कर दे, तो समझ जाना वो सेवा नहीं हो सकती। सेवा कोई वस्तु थोड़ी है जिसे खरीदा-बेचा जा सके। सेवा पुण्य कमाने का साधन है प्रसिद्धि कमाने का नहीं।


दुनिया की नजरों में सम्मानित होना बड़ी बात नहीं, गोविन्द की नजरों में सम्मानित होना बड़ी बात है। श्री सुदामा जी के जीवन की सेवा-समर्पण का इससे ज्यादा और श्रेष्ठ फल क्या होता, दुनिया जिन ठाकुर के लिए दौड़ती है वो उनके लिए दौड़े हैं। प्रभु के हाथों से एक ना एक दिन सेवा का फल अवश्य मिलेगा।


Tuesday, April 1, 2025

सत्संग की महिमा

 एक चोर ने राजा के महल में चोरी की। सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया। पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये। पास में एक गाँव था। उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे। गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक संत सत्संग कर रहे हैं और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं। चोर के पदचिह्न भी उसी ओर जा रहे थे।सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा। वे वहीं खड़े रह कर उसका इंतजार करने लगे। 

 सत्संग में संत कह रहे थे- जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं। 

 गीता में भगवान ने कहा हैः 

  सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को  त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। 


 वाल्मीकि रामायण में आता हैः 

 जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कह कर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है। 


 इसकी व्याख्या करते हुए संतश्री ने कहा : जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया। अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया। 


 अगर कोई दुराचारी सेदुराचारी  भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए। कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। 


 चोर वहीं बैठा सब सुन रहा था। उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा। उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। मैं भगवान का हो गया। सत्संग समाप्त हुआ। लोग उठकर बाहर जाने लगे। बाहर राजा के सिपाही चोर की तलाश में थे। चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़ के राजा के सामने पेश किया। 


 राजा ने चोर से पूछाः इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न? सच-सच बताओ, तुमने चुराया धन कहाँ रखा है? चोर ने दृढ़ता पूर्वक कहाः "महाराज ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की।" 


 सिपाही बोलाः "महाराज ! यह झूठ बोलता है। हम इसके पदचिह्नों को पहचानते हैं। इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्नों से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है।" राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा। 


 चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया। फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, सूत और पत्ते भी नहीं जले। लोहा नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी। राजा ने सोचा कि 'वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष है।' 

 अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि "तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है। तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा।" यह सुन कर चोर बोलाः "नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें। इनका कोई दोष नहीं है। चोरी मैंने ही की थी।" राजा ने सोचा कि यह साधु पुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है। राजा बोलाः तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा। 

 चोर बोलाः "महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी। अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे पास भेजो। मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा।" राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा। चोर उनको वहाँ ले गया जहाँ उसने धन छिपा रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया। यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। 


 राजा बोलाः अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला? तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है।

   ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ? चोर बोलाः महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन को जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया। वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था। मैं वहाँ जा कर लोगों के बीच बैठ गया। सत्संग में मैंने सुना कि ''जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं। उसका नया जन्म हो जाता है।'' इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि 

" अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। "

अब मैं भगवान का हो लिया कि 'अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। अब मैं भगवान का हो गया। इसीलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया। इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला। आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी। 

 कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया। उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया। चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया। राजा उससे प्रभावित हुआ, प्रजा से भी वह सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभु कृपा से उसने परम पद को भी पा लिया।

 सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। 

जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा। 

 कुसंग व्यक्ति से कुकर्म करवा कर व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है। ऐसी दिव्य शक्ति है सत्संग में !

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।🙏