जनेऊ,यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कार क्या होता है??????
रामचरितमानस में एक चौपाई प्रभुश्रीराम के यज्ञोपवीत के संस्कार से संबंधित बाबा तुलसीदास जी ने भी लिखी है,,,,,,,
*भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
भावार्थ:-ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढ़ने गए और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥
यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया जाता था | वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है | मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं | सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है।
यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है | इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं | ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है | तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है |
तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं | अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है | बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता | शास्त्रों में जहां यज्धातु को देवताओं की पूजा, दान आदि से संबंधित बताया गया है, वहीं उपवीत का अर्थ समीप या नजदीक होना होता है | इस प्रकार यज्ञोपवीत का अर्थ हुआ-यज्ञ के समीप यानी ऐसी वस्तु, जिसे धारण करने पर हम देवताओं के समीप हो जाते हैं |
कर्तव्य के आधार पर चुनाव :- शास्त्रों के अनुसार, छह प्रकार के यज्ञोपवीत ऐसे हैं, जिन्हें धारण किया जा सकता है कपास, रेशम-धागा, सन से बना हुआ, स्वर्ण के धागों से मढा हुआ, चांदी के तार से पिरोया गया एवं कुश और घास से तैयार यज्ञोपवीत |
कर्तव्य के आधार पर माता-पिता इनका चुनाव करते हैं | जो माता-पिता अपनी संतान को पठन-पाठन (पंडित/ब्राह्मण) से जोडना चाहते हैं, उनके लिए शास्त्रों में सूत और रेशम का यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है | यदि व्यक्ति देश-समाज के रक्षा कार्यो (क्षत्रिय) से जुडा हो, तो उसे सोने से तैयार जनेऊ धारण करना चाहिए | व्यापार (वैश्य) एवं सेवा कार्य (शूद्र) करने वालों के लिए चांदी या सूत से तैयार उपनयनका विधान है |
रंगों का महत्व : अब प्रश्न उठता है कि हम किस रंग का जनेऊ धारण करें? पढने-पढाने वालों को सफेद रंग का, रक्षा संबंधी कार्यो से जुडे व्यक्ति को लाल रंग का और व्यापार एवं सेवा कार्य से जुडे लोगों के लिए चांदी की जनेऊ धारण करने का प्रावधान है | यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है :
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् |
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ||
शास्त्रों के अभिवचन यज्ञोपवीत द्विजत्व का चिन्ह है। कहा भी है :- मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयम् मौञ्जि बन्धनम् |
अर्थात् :- पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है |
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्त: |
त रात्रीस्तिस्र उदरे विभत्ति तं जातंद्रष्टुमभि संयन्ति देवाः || अथर्व 11/3/5/3
श्लोकार्थ :- गर्भ में रहकर माता और पिता के संबंध से मनुष्य का पहला जन्म होता है | दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है |
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं | ओउमकार, अग्नि, अनन्त, चन्द्र, पितृ, प्रजापति, वायु, सूर्य, सब देवताओं का समूह |
वेद मंत्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में नौ शक्तियों का निवास होता है | जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधना ही समझना चाहिए |
‘‘सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र’’ में यज्ञोपवीत के संबंध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है :-
ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम् |
कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम् ||
श्लोकार्थ :- ब्रह्मा जी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया | विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिव जी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसे ब्रह्म गाँठ लगा दी | इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रंथियों समेत बनकर तैयार हुआ |
यज्ञोपवीत के लाभों का वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है :-
येनेन्द्राय वृहस्पतिवृर्व्यस्त: पर्यद धाद मृतं नेनत्वा |
परिदधाम्यायुष्ये दीर्घायुत्वाय वलायि वर्चसे || पारस्कर गृह सूत्र 2/2/7
श्लोकार्थ :- जिस प्रकार इन्द्र को वृहस्पति ने यज्ञोपवीत दिया था उसी तरह आयु, बल, बुद्धि और सम्पत्ति की वृद्धि के लिए यज्ञोपवीत पहना जाय |
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्रपृषयस्तपसे ये निषेदुः |
भीमा जन्या ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधति परमे व्योमन् || ऋग्वेद 10/101/4
श्लोकार्थ :- तपस्वी ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है | यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देती है | इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं |
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् |
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः || ब्रह्मोपनिषद्
श्लोकार्थ :- यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति भगवान ने इसे सबके लिए सहज बनाया है | यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है |
त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्यार्हा देवस्य जनि मान्यग्नेः |
अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्थो रोरुचानः ||
श्लोकार्थ :- इस यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण है | सत्य व्यवहार की आकांक्षा, अग्नि जैसी तेजस्विता, दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है |
नौ धागों में नौ गुणों के प्रतीक हैं |
अहिंसा (हृदय से प्रेम), सत्य ( वाणी में माधुर्य), अस्तेय (व्यवहार में सरलता), तितिक्षा (नारी मात्र में मातृत्व की भावना), अपरिग्रह (कर्म में कला और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति), संयम (सबके प्रति उदारता और सेवा भावना ), आस्तिकता (गुरुजनों का सम्मान एवं अनुशासन), शान्ति (सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय एवं सत्संग), पवित्रता (स्वच्छता, व्यवस्था और निरालस्यता का स्वभाव) |
यह भी नौ गुण बताये गये हैं | अभिनव संस्कार पद्धति में श्लोक भी दिये गये हैं | यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है :- नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना | अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरुप ही खड़ा करना |
इस उत्तरदायित्व के अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सत्र धारण किये रहने प्रत्येक हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है | इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है |
जनेऊ पहनने से क्या लाभ :- मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है | इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है | आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है |
जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है | जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते | जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है |
वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता | जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले | अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है | यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है | जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है |
आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि यज्ञोपवीत धारण करने से न तो हृदयरोग होता है और न ही गले और मुख का रोग सताता है | मान्यता है कि सन से तैयार यज्ञोपवीत पित्त रोगों से बचाव करने में सक्षम है | जो व्यक्ति स्वर्ण के तारों से तैयार यज्ञोपवीत धारण करते हैं, उन्हें आंखों की बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है |
इससे बुद्धि और स्मरण शक्ति बढ जाती है और बुढापा भी देर से आता है | रेशम का जनेऊ पहनने से वाणी पर नियंत्रण रहता है | मान्यता है कि चांदी के तार से तैयार यज्ञोपवीत धारण करने से शरीर पुष्ट होता है एवं आयु में भी वृद्धि होती है | यज्ञोपवीत धारण करने से आयु वृद्धि, उत्तम विचार और धर्म मार्ग पर चलने वाली श्रेष्ठ संतान प्राप्त होती है |
ध्यान रखें कि जनेऊ शरीर पर बायें कंधे से हृदय को छूता हुआ कमर तक होना चाहिए।
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