घर से कल ये बथुआ और उड़द आया था तो सगपहिता न बने भला कैसे हो सकता था।
ध्यान से इस उड़द का रंग देखिए! न काला रंग है न ही हरा है बल्कि भूरा है।
वर्षों से घर से दूर रहने के कारण घर की दाल के स्वाद और सुगंध को तरस जाया करते थे तो रंग भला कहाँ याद रहता।
हालांकि मैं भोजन बनाते समय पूरी मेहनत और कोशिश करती थी कि मेरे बनाये भोजन में सुगंध और स्वाद गांव का आ सके परन्तु नजदीक मात्र पहुंचती थी पूरी कामयाब नहीं हो पाती थी।
यही कारण है कि गांव जाने पर मानों भूख दस गुना बढ़ जाती थी क्योंकि भोजन बनते समय ही आती हुई मनपसंद, चिरपरिचित सुगंध उदर क्षुधा को मानों भड़का देती थी। भोजन सामने आते ही टूट पड़ते हैं और पेट से अधिक खा लिया करते थे परन्तु ये ओवरईटिंग हमे कभी नुकसान नहीं पहुँचाता था क्योंकि भोजन करने के बाद हमारी सक्रियता इतनी होती थी कि खाया हुआ भोजन किधर गया कब पच गया पता ही नहीं चलता था।
हाँ जी! तो हम गांव से वापस आते हैं और उड़द के रंग की बात करते हैं । हमने पंजाब में एकदम काले रंग के उड़द या उड़द दाल खरीदा था जिसे धोने पर इतना काला रंग निकलता था कि समझ में नहीं आता था कि भला खेत में उगे उड़द की फलियों के अंदर रंग कैसे डाल आता है क्योंकि प्रकृति के रंग तो इतने कच्चे नहीं होते कि पानी पड़ते ही उतर जाए।
खैर ! लखनऊ आयी तब पता चला कि हरी मतलब मूंग ही नहीं होती बल्कि उड़द भी हरी होती है जो खाने में काली उड़द से ज्यादा स्वादिष्ट होती है तबसे मेरे घर पर हरी रंग वाली उड़द ही आने लगी है।
कल घर से ये जो भूरे रंग की उड़द आयी देखने में तो ये भी हरी लग रही है परन्तु हम जो बाजार से हरे रंग की उड़द लाते हैं वो एकदम हरे रंग की होती है और गांव से आयी इस उड़द का रंग मुझे भूरा लग रहा है इसलिए हम तो भूरा ही नाम दे दिया है।
तो फिर कल घर से आया बथुआ और भूरे रंग वालीं उड़द की सगपहिता दाल बनवाई पता नहीं भूरे रंग के उड़द और घर के बथुआ का कमाल था या माँ के प्रेम का कमाल था परन्तु दाल बहुत स्वादिष्ट बनी थी उपर से घर का बढ़िया खुशबुदार जम्भीरी प्रजाति का संतरे के आकार वाला नींबू भी था अहा!भोजन करने का तो आनंद ही आ गया था।
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