जेठ के घर में एक गरीब आदमी काम करता है, नाम है प्रेम। जैसे ही प्रेम के फ़ोन की घंटी बजी, वह डर सा गया।
जेठ जी ने एक दिन पूछ ही लिया ?
"प्रेम तुम अपनी पत्नी से इतना क्यों डरते हो ?"
मैं डरता नही बाबूजी, उसकी कद्र करता हूँ उसका सम्मान करता हूँ। उसने जबाव दिया।
जेठजी हँसे और बोले-"ऐसा क्या है उसमें। ना बहुत सुन्दर है, ना पढी लिखी।"
"जेठ जी उसे छेड़ रहे थे मुँह से निकला - जोरू का गुलाम।" और सारे रिश्ते कोई मायने नही रखते तेरे लिये ? उन्होंने पूछा।
उसने बहुत इत्मिनान से जबाव दिया- बाबू जी माँ बाप रिश्तेदार नहीं होते। वे भगवान होते हैं।
उनसे रिश्ता नहीं निभाते, उनकी पूजा करते हैं। भाई-बहन के रिश्ते जन्मजात होते हैं, दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का ही होता है। आपका मेरा रिश्ता भी जरूरत और पैसे का है पर, पत्नी बिना किसी करीबी रिश्ते के होते हुए भी हमेशा के लिये हमारी हो जाती है, अपने सारे रिश्तों को पीछे छोड़कर और हमारे हर सुख-दुख की सहभागी बन जाती है आखिरी सांसों तक।"
मैं अचरज से उसकी बातें सुन रही थी। वह आगे बोला-"बाबू जी, पत्नी अकेली रिश्ता नहीं है, बल्कि वह पूरा रिश्तों की भण्डार है। जब वह हमारी सेवा करती है, हमारी देखभाल करती है, हमसे दुलार करती है तो एक माँ जैसी होती है। वह हमें जमाने के उतार-चढाव से आगाह करती है और मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ क्योंकि जानता हूँ वह हर हाल मे मेरे घर का भला करेगी तब पिता जैसी होती है। जब हमारा ख्याल रखती है, हमसे लाड़ करती है, हमारी गलती पर डाँटती है, हमारे लिये खरीदारी करती है तब बहन जैसी होती है। जब हमसे नयी-नयी फरमाईश करती है,
नखरे करती है, रूठती है, अपनी बात मनवाने की जिद करती है तब बेटी जैसी होती है। जब हमसे सलाह करती है, मशवरा देती है,
परिवार चलाने के लिये नसीहतें देती है, झगड़े करती है तब एक दोस्त जैसी होती है। जब वह सारे घर का लेन-देन, खरीददारी, घर चलाने की जिम्मेदारी उठाती है तो एक मालकिन जैसी होती है और जब वही सारी दुनिमा को यहां तक
कि अपने बच्चों को भी छोड़कर हमारे पास में आती है तब वह पत्नी, प्रेमिका, प्रेयसी, अर्धांगिनी, हमारी प्राण और आत्मा होती है जो अपना सब कुछ सिर्फ हम पर न्योछावर करती है।"
नौकर प्रेम के अंतिम शब्द हमेशा-हमेशा याद रहेंगे कि केवल पत्नी के साथ के रिश्ते को ही सात जन्मों का बंधन माना जाता है और किसी दूसरे रिश्ते को नहीं।
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