बिक रहा पानी, पवन बिक न जाए,
बिक गयी धरती, गगन बिक न जाए !
अब तो चाँद पर भी बिकने लगी है ज़मीं
डर है कि सूरज की तपन बिक न जाए !
देकर दहेज खरीदा गया है दुल्हे को
कहीं उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए !
धर्म लाचार है ठेकेदारों के पैरों तले,
डर है कि कहीं ये अमन बिक न जाए !
हर काम की रिश्वत ले रहे हैं नेता.
उनके हाथों कहीं ये वतन बिक न जाए !
सरेआम बिकने लगे हैं अब तो सांसद,
डर है कि संसद भवन बिक न जाए !
आदमी मरा तो भी आखें खुली हुई है,
डरता है मुर्दा, कहीं कफ़न बिक न जाए !!
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