नहीं दिखता इन्हें,
मिट्टी के गोले का अंतहीन,
आकार रहित बस्तर,
बस्तर का महुआ,सागौन,
साल, बुलाते हैं,
लोग बस कविता कर जाते हैं,
घूम जाते हैं तीरथगढ़
कुटुमसर, चित्रकूट,
दो शब्द लिख जाते हैं कटाक्ष की तरह,
गंगालूर की घाटियों में,
लोदे सा मरता आदमी नहीं दिखता,
महुआ से टपकती मौत की आवाज,
नाले का कीचड़ पिता मारिया,
चरोटा भाजी से ओंटता पेट,
पेचिश की खुनीं रफ्तार,
बाल की खाल खाता लगोंटी धारी,
मिर्च और इमली के पानी से भरता पेट,
नहीं दिखती विलासी कविता को
नहीं दिखती एठती आदिवासी सुप्रिया की नसे,
नहीं दिखती मिट जाती कीचड़ सनी
आंखों में मौत की नींद,
नहीं गंदा थी तपते धूप से जलते,
आदिवासी मांस की,
वही पलाश, टेसू और गुलर
जो कैनवास देते हैं,
इन विलासी कविताओं को,
मौत देते हैं वही पतझड़ में,
लंगोटी को,
नहीं दिखता भूख से जंगल में मौत का तांडव,
इन्हें दिखती है राजधानी से आदी बालाओं के,
नग्न शरीर के लुभावने कटाव,
दिखती है उन्हें खुली जिंदगी,
मस्त व्यसन कारी,
महुआ बीनती,
मदहोश आदी बालाएं,
यूएसए हुई अंत जिंदगियां नहीं दिखती,
कीचड़ से पानी के कतरे तलाश थी
गरीब मोरिया नहीं दिखती,
अंतहीन पसीने की बूंदे ,
मौत का अनवरत आदिवासी सिलसिला
नहीं दिखता इन्हें,
इन्हें दिखती हैं कविताएं,
अपने बस्तर प्रेम की
बुद्धिजीवी छाप, और
घड़ियाली आंसुओं का सैलाब|
संजीव ठाकुर, रायपुर छ.ग.
No comments:
Post a Comment