डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
न जाने क्यों मुझे रह-रहकर मूर्धन्य 'ष' की चिंता सताती रहती है। प्रदूषण से भरा ‘श’ हर जगह हावी है। लगता है कभी-कभी 'ङ्’ अपने लुप्त होते उच्चारण की चिंता में आत्मदाह कर लेगा। न जाने कौन धीरे-धीरे शिरोरेखा को मिटाता जा रहा है। मौके-बेमौके खड़ी पाई को चुराता चला जा रहा है। नागरी के सारे अंक अपनी विलुप्तता का रोना अकेले में रोए जा रहे हैं। उन्हें कोई पूछने वाला नहीं है। मानो विदेशज के शब्दों ने देशज शब्दों को अंतरिक्ष में फेंक दिया है। यौगिक धातुओं के जमाने में हम स्टील, फाइबर सोडियम क्लोराइड के आदि हो चुके हैं। शुद्धता अब हमें कतई नहीं भाती। मिक्स्ड प्रवृत्ति को अपना स्वभाव बनाने के आदी हो चुके हैं।
दूरदर्शन के रामायण वाले हनुमान से नजर हटी तो बैटरी वाले हनुमान दिखाई दिए जो प्लास्टिक का पहाड़ उठाए पौराणिक ज्ञान को बाँचने का काम कर रहे हैं। बच्चों के हाथों में ‘चल छैंया छैंया वाले प्लास्टिक के बने खिलौने वाले मोबाइलों’ की जगह असली मोबाइलों ने ले ली है, जो बड़ों की कद्र तो दूर उनके कहे को ‘सो बोरिंग पकाऊ पिपुल’ कहकर आदर्श उवाचों को कचरे की पेटी में डालना अपना स्टेटस समझ रही है। अब किसी भी घर में पुरानी नानियों के पहियों वाला काठ का नीला-पीला घोड़ा नहीं दिखता। हाइब्रिड अमरूदों ने असली अमरूदों का गला ऐसे घोंटा जैसे उसकी कोई पुरानी दुश्मनी हो। उस असली अमरूद की तरह असली धरती कब की लुप्त हो चुकी है। लोग डुप्लीकेट और धरती डुप्लीकेट हो चली है। सिर्फ छलावा ईमानदारी से किया जाता है।
आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते उड़ रहे हैं। अब घऱ में दादा की मिरजई टाँगने की कोई जगह नहीं बची है। न कोई ऐसा संग्रहालय है जहाँ पिता का वसूला माँ का करधन और बहन के बिछुए छिपाये जा सके। अब तो खिचड़ी, ठठेरा, मदारी, लुहार, किताब सब सपने में आते हैं। वास्तविकता में इनका सामना किए अरसा बीत गया। अब न खड़ाऊ की टप-टप है न दातुन की खिच-खिच। और पीतल के लोटे का पीतल तो पिरॉडिक टेबल में बंधकर रह गया है, जिसे केवल एलिमेंट के नाम से पहचानना पड़ रहा है। अब गाँव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा, पेड़ों पर घोंसले, अखबारों में सच्चाई, राजनीति में नैतिकता, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी खोजने पड़ते हैं। पहले की पीढ़ी लुप्तता की पीड़ा से मरी तो आज की पीड़ा वर्तमान पीढ़ी से मर रही है।
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