डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
उजाले में भी अंधेरा बसता है। ‘किसी-किसी’ को दिखता है। ‘किसी-किसी’ को नहीं दिखता है। ‘किसी-किसी’ को दिखकर भी नहीं दिखता है तो ‘किसी-किसी’ को नहीं दिखकर भी दिखता है। यह ‘किसी-किसी’ कहलाने वाले लोग गुफाओं या आदिम युग में नहीं रहते। हमीं में से कोई ‘किसी-किसी’ का पात्र निभाता रहता है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ‘किसी’ दूसरे ‘किसी’ को ‘किसी-किसी’ का किस्सा बताकर अपनी किसियाने की खुसखुसी करता रहता है। कोई ‘किसी’ के दुख में किसी सुख को तलाशने की कोशिश करता है। कोई ‘किसी’ की आग में ‘किसी’ की रोटी सेंकने का काम करता है। । कोई ‘किसी’ के गिरने में ‘किसी’ के उठने की राह जोहता है। यह ‘किसकिसाने’ का फसाना बहुत पुराना है। हमसे-तुमसे-सबसे पुराना है। ‘किसी’ की बात में ‘किसी’ की चुप्पी, ‘किसी’ के लिखे में ‘किसी’ के मिटने और ‘किसी’ की ताजगी में ‘किसी’ के बासीपन की याद हो आना ‘किस्साहट’ नहीं तो और क्या है!
यह ‘किसी-किसी’ कहलाने वाले प्राणी बड़े विचित्र होते हैं। एक ‘किसी’ दूसरे ‘किसी’ के शव को छूना नहीं चाहता है। यह ‘किसी’ कभी ‘किसी’ का बेटा बनकर ‘किसी’ पिता को अंतिम दर्शन करने के सौभाग्य से वंचित कर देता है। ‘किसी’ का पति बनकर ‘किसी’ पत्नी का सुहाग उजाड़ देता है। ‘किसी’ का भैया बनकर ‘किसी’ भाई का सहारा छीन लेता है। ऐसा ‘किसी’ ‘किसी-किसी’ का नहीं होता। ‘किसी’ ने खूब कमाया, कोठियाँ खड़ी कीं, घोड़ा-गाड़ी का ऐशो आराम देखा। किंतु यह केवल ‘किसी-किसी’ तक सीमित रहा। आगे उसी ‘किसी’ के ‘किसी-किसी’ ने उसे भोगा। यह ‘किसी-किसी’ का किस्सा युगों से चला आ रहा है।
‘किसी-किसी’ ने ‘किसी-किसी’ के साथ मिलकर जिंदगी के चार दिन बिताए थे। ‘किसी’ के सामने किसी ने सिर उठाकर अपनी गुमानी दिखायी थी। दुर्भाग्य से एक ‘किसी’ के मरने पर कोई ‘किसी’ के साथ नहीं गया। सब के सब यहीं रह गये। उसका बंगला, घोड़ा, नौकर-चाकर सब के सब यहीं रह गए। ‘किसी’ कहलाने वाला चार ‘किसी’ कहलाने वाले कंधों के लिए तरसकर रह गया। न जाने कैसे उस ‘किसी’ को ‘किसी’ ने ‘किसी’ तरह ‘किसी’ ऐसी जगह पहुँचाया जहाँ ‘किसी-किसी’ को मुक्ति मिलती है। ‘किसी-किसी’ की बातें, ‘किसी-किसी’ की यादें, और ‘किसी-किसी’ के किस्से तब तक हैं जब तक कोई ‘किसी’ को ‘किसी’ तरह यह आपबीती सुनाता है। एक ‘किसी’ को जीने के लिए ‘किसी’ चीज़ की जरूरत पड़े न पड़े, लेकिन जाते समय ‘किसी’ कहलाने वाले चार कंधों की जरूरत अवश्य पड़ती है। सच है, चार कंधे भी ‘किसी-किसी’ को किस्मत से ही मिलते हैं।
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