आप 'अर्थ' का अर्थ निश्चय ही जानते होंगे। दुनिया अर्थ के पीछे ही भागती रहती हैं। सारी गतिविधियों की धुरी अर्थ ही है।भगवान न करे हमारे मुँह से कभी उल्टी-सीधी बातें निकल जाए और सुननेवाला कुछ ज़्यादा ही समझ लें। वह अपना ही 'अर्थ' निकाल ले तो बड़ा अनर्थ हो जाता है। कई बार तो बात इतनी बिगड़ जाती है कि संभाले नहीं संभलती है। रुपये-पैसे भी तो 'अर्थ' ही हैं।यही रुपये आदमी को समर्थ भी बनाते हैं। इसके बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। अर्थ का प्रभाव होता ही है बड़ा विस्मयकारी। उलझे रहते हैं इसके माया-जाल में सारे संसारी।
हम सब सुनते आए हैं-"बाप बड़ा न भैया,सबसे बड़ा रुपैया।"आपके पास रुपये हैं तो नाते-रिश्ते बनते चले जाते हैं। जेब खाली है तो यार-दोस्त भी मुँह मोड़ लेते हैं।पैसे में है बड़ा दम,पास नहीं फटकने देगा कभी कोई ग़म। पैसे के न होते हैं हाथ और न ही होते हैं पैर। मगर पैसा ही करता है सकल काम और फिर पैसा ही चलता है सर्वत्र।
अक्सर देखा गया है,जब दो दोस्तों के मध्य पैसों का 'आयात-निर्यात' होने लगता है तो संबंधों का समीकरण असंतुलित हो जाता है। कहा जाता है कि 'करो मित्र की मदद हमेशा तन से मन से खुश होकर' एक बात मैं भी जोड़ देता हूँ इसमें। आप बुरा न मानना।कभी भी मित्र की मदद धन से मत करिये। आप अपने मित्र को सदा ही मित्र बनाए रखना चाहते हैं न ? इसलिए जब कभी वह पैसा माँगें तो अपने दोनों हाथों को जोड़ लेना।ज़्यादा से ज़्यादा आपका मित्र आपको खुदगर्ज ही समझेगा न। यारी तो बनी रहेगी।
हमारे महान देश के कार्यालयों में 'उत्कोच' का अच्छा-खासा प्रचलन है। कुछ लोग इसे 'सेवा-शुल्क' भी कहते हैं।कोई आपको 'सेवा' दे रहा है तो बदले में 'मेवा' लेगा ही ।लोग कहते हैं कि कर्मचारियों को तनख़ा मिलती है।हाँ भाई! इसलिए तो वे सरकार के हुक्म बजाते हैं।वे आपका नहीं हैं ग़ुलाम।जब आप अपना काम उनसे निकलना चाह रहे हैं तब आपको अपनी जेब ढीली करनी ही पड़ेगी।
संतों का कहना है -"जो जल बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम/दोनों हाथ उलीचिए यही सयानों काम।"अर्थात् जैसे बाढ़ के समय नाव में पानी भर जाने पर उसे दोनों हाथों से बाहर फेंकते हैं उसी तरह घर में पैसा बढ़ जाने पर दान करते चाहिए।मगर यह होता है कहाँ ?हाय पैसा! हाय पैसा!! इसी में सारी ज़िंदगी गुजर जाती है।कुछ लोगों को तो जान से प्यारी लगती है दमड़ी ।तब न यह कहावत बनी है कि चमड़ी जाए तो जाए मगर दमड़ी न जाए।
हम जानते हैं, पैसा ही पैसा बनाता है।पैसे-पैसे आपस में जुड़कर रुपये बनते हैं। फिर दहाई ,सैकड़ा,हजार लाख,करोड़ और आगे जहाँ तक आप चाहें इस पैसे को खींचकर ले जा सकते हैं।इसकी कोई सीमा रेखा नहीं है।कामना अनंत है।जो सहस्रों-सहस्र मुखों की अतृप्त क्षुधा के समान है। इसलिए भगवान न करें आपको पैसे बनाने की लत लग जाए।फिर आप पैसों के पीछे पागल हो जाएँगे। आप 'टका' को ही टक-टकी लगाए देखते रहेंगे।फिर आप प्रेत से पाए 'स्वर्ण-कलश' को भरने का निरर्थक प्रयत्न करते रहेंगे। सारे नाते-रिश्ते धरे के धरे रह जाएँगे।
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
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