उधर महँगा हुआ आलू, बना पर्याय चर्चा का,
विषय जिनको नहीं आता, वही नीतिज्ञ शिक्षा का,
बताते है धरा एकड़ में हमने छोड़ रखी है ...
वो आलू बो नही सकते, सिवाय चाय चर्चा का,
पती पूँजी के जो मालिक, वही किसान असली है,
जो भड़का दें किसानों को, वही इंसान असली है,
चला सकते नही जो घर वो भाई - भाई कहते है...
अरे खुद को सँवाचो गर अगर ईमान असली है,
टमाटर चल पड़ा बे -पैर तो सरकार दोषी है,
दोषियों को करे बे- सिर तो फिर सरकार दोषी है,
मुफत में दे चना और दाल तो सरकार की खा ले..
डकारों तक रहे सीमित पुनः सरकार दोषी है,
ठिठुरती माँ पड़ी बाहर, न सोई रात भर रोई,
तुम्हारे गर्म कमरे में जवानी रात भर सोई,
पड़ोसी हो गए भाई, वो जिनके साथ खेले तुम...
सभ्यता भारत की घायल,अमित बन फूट कर रोई,
रचना :- अमित पाठक / बहराइच
No comments:
Post a Comment