वो चिलचिलाती धूप और किटकिटाती ठंड,
ओह! सावन की वर्षात में राहें बनती पंक।
गाँव के बीते ऐसे ही दिन करते रहते तंग ,
चकाचौंध शहर में भी बजते नहीं मृदंग।
खेतों में लतरे हरे मटर की मीठी- मीठी गंध,
मदमाती गेहूँ ,मक्के के भरे भरे हैं अंक।
पीली नीली,सरसों, तीसी से भरे भरे वसंत,
मन को यों लुभाते रहते जैसे कोई पतंग।
मुक्तेश्वर सिंह मुकेश
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