एक दूसरे के हर आदतों को,
बनारस के कण कण में महसूस किया था।
बनारस की विविधता ने हमे,
साथ बिताने को कितने खूबसूरत लम्हे दिया था।
उन लम्हों को हमने भी क्या खूब जिया था।
सच में हमने इश्क़ नही बनारस किया था।
मै काशी विश्वनाथ के पुरानी दीवारों सा था,
और वह उन दीवारों से टकराती आस्था की खुशबू।
मै संकटमोचन और दुर्गा मन्दिर के बंदरों सा,
और वह शान्त सारनाथ के बुद्ध की उपदेश।
मै सदियों पुराना ऐतिहासिक रामनगर का किला,
और वह आधुनिकता की पर्याय नया विश्वनाथ मंदिर।
मैं अस्सी घाट पर सुबह का योग सा,
और वह उसी घाट की चमकती आरती।
मै तंग टेढ़ी पतली उलझी बनारस की गलियाँ,
और वह विश्व प्रसिद्ध बीएचयू की खूबसूरत कैंपस।
मै सर रविशंकर का सितार सा,
तो वह बिस्मिल्लाह खान की मधुर शहनाई।
मै किशन महाराज का तबला सा बजता,
तो वह बिरजू महाराज की तरह थिरकती कत्थक।
मै भारतेन्दु और प्रेमचन्द के साहित्य सा,
तो वह तुलसीदास और कबीर की अमर दोहे।
मै मस्तमौला बनारस के मशहूर पान सा,
और वह अत्यंत खूबसूरत बनारसी साड़ी।
मै अल्हड़ मजेदार कुल्हड़ की चाय सा,
और वह सभ्य मीठी प्यारी ठंढी सी लस्सी।
मै सुबह के नास्ते का गर्मागरम पूड़ी सब्जी,
और वह रसभरी मीठी जलेबी और लौंगलता।
मै गंगा किनारे बिकता रुद्राक्षो का माला,
और वह डिब्बे में बन्द पवित्र पावन गंगाजल।
मै दुकानो पर रखा लकड़ी का खिलौना सा,
और वह उन्ही दुकानों पर सजी काँच की मोती।
मै शाँत स्थिर खड़ा काठ की नाव सा,
और वह लहरों से टकराकर मुझे रफ्तार देती एक पतवार।
मै मणिकर्णिका घाट पर जलते चिता की धुआँ सा,
और वह दशाश्वमेध घाट की खूबसूरत आरती की रौशनी।
और आखिर में आज भी,
वह गंगा की तरह निरन्तर बहती हुयी सी,
और मै घाट से उड़ कर
गंगा के प्रवाह के साथ बहता राख का अवशेष मात्र।
आखिरी यात्रा मे भी अपना इश्क़ निभा ही दिया
राख होने पर भी बनारस ने हमे मिला ही दिया।।
सोचता हूँ हमने बनारस मे, या बनारस से, इश्क़ किया था।
पर सच तो यह है कि हमने इश्क़ नही बनारस किया था।
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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