नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो ?
बिन पेंदे के लौटे सा लुढ़क रहे हो
तुम थाली के बैगन से दिख रहे हो
हर चुनाव मे दल क्यो बदल रहे हो?
नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो?
गिरगिट सा रंग रोज बदल रहे हो
चुनाव मे किये सारे वादे भुलाकर
तुम क्यो अपनी ढ़पली बजा रहे हो?
नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो?
जनता को मूर्ख क्यो समझ रहे हो?
जाति,धर्म और मानवता की बलिवेदी पर
तुम तो राजनीति की रोटी सेक रहे हो।
नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो?
वोट के लिए धर्म भी बदल रहे हो
एक दूजे पर तंज भी कस रहे हो
वोट पाने का ताना बाना बुन रहे हो।
नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो?
रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य और विकास भूलकर
तुम कैसी ये राजनीति अब कर रहे हो?
बोलो सपनो का भारत तुम कैसा रच रहे हो?
रचनाकार:-
अभिषेक कुमार शुक्ला
सीतापुर, उत्तर प्रदेश
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