दो जून की रोटी मिल रही है हमें,
देखो जरा हम हैं कितने किस्मत वाले ।
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
हाथ से ठेला चलाते धूप में,गोलगप्पे,सब्जीवाला,आम वाला चिल्लाए ,
तब जाकर वह बेचारा अपने परिवार को,
रोते-रोते आधा पेट खिलाए ।
सिर्फ दो जून की रोटी की खातिर बेचे,
चाट,पापड़ी, गुपचुप चने मसाले,
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
देखो तो वो फूल बेचने वाले बच्चे, ढूंढे दृष्टि आस की,
आधा तन कपड़ा पहने जो, खेती करें कपास की ।
जूते बेचने वालों के, पैरों में ही पड़ते है छाले
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
जिन किसानों के कांधे पे हल है, उनके भी हैं आंसू झलके,
हलधर की हल-आशा जिनसे, वो हैं कितने हल्के ।
अन्नदाता करे फाँके चाहे, कितनी फसल उगाले,
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
कितना लाचार कर देती है ये, दो जून की रोटी ,
और इन लाचार बिचारों का वे हैं लाभ उठाते, नीयत जिनकी है खोटी ।
तन भी कर देना पड़ता तब, औरों के हवाले,
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
कवि तो भरे पेट मे कहता है कविता, बात ये तो है कड़वी सच्ची ,
जितनी व्यथा हो कविता में ,रचना समझी जाती उतनी अच्छी ।
भूख पे कविता लिखके मैंने,लो पहन लिए मंचों पर माले,
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
शुक्रगुजार हूं उस ईश्वर की,मुझे दो जून की रोटी मिलती, देखो जरा हम हैं किस्मत वाले ।
जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,
जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥
रीमा मिश्रा"नव्या"
आसनसोल(पश्चिम बंगाल)
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