Monday, June 1, 2020

2 जून की रोटी





दो जून की रोटी मिल रही है हमें, 

देखो जरा हम हैं कितने किस्मत वाले । 

जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 

हाथ से ठेला चलाते धूप में,गोलगप्पे,सब्जीवाला,आम वाला चिल्लाए ,

तब जाकर वह  बेचारा अपने परिवार को,

रोते-रोते आधा पेट खिलाए ।

 

सिर्फ दो जून की रोटी की खातिर बेचे,

चाट,पापड़ी, गुपचुप चने मसाले,


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


देखो तो वो फूल बेचने वाले बच्चे, ढूंढे दृष्टि आस की,

आधा तन कपड़ा पहने जो, खेती करें कपास की ।

जूते बेचने वालों के, पैरों में ही पड़ते है छाले 


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


जिन किसानों के कांधे पे हल है, उनके भी हैं आंसू झलके,

हलधर की हल-आशा जिनसे, वो हैं कितने हल्के ।

अन्नदाता करे फाँके चाहे, कितनी फसल उगाले,


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


 

कितना लाचार  कर देती है ये, दो जून की रोटी ,

और इन लाचार बिचारों का वे हैं लाभ उठाते, नीयत जिनकी है खोटी ।

तन भी कर देना पड़ता तब, औरों के हवाले,


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


कवि तो भरे पेट मे कहता है कविता, बात ये तो है कड़वी सच्ची ,

जितनी व्यथा हो कविता में ,रचना समझी जाती उतनी अच्छी ।

भूख पे कविता लिखके मैंने,लो पहन लिए मंचों पर माले,


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


 

शुक्रगुजार हूं उस ईश्वर की,मुझे दो जून की रोटी मिलती, देखो जरा हम हैं किस्मत वाले  ।


जाने कितने लोग भूखे हैं हमारे देश में,

जिन्हें नसीब नहीं होते निवाले ॥

 


    रीमा मिश्रा"नव्या"

आसनसोल(पश्चिम बंगाल) 




 

 


 

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