क्या सोचते हो ,
तुम बात नहीं करोगे तो,
यह शाम ना ढलेगी ,
अगर हँस के गले नहीं लगाओगे तो,
यह रात ना कटेगी।
गलत !बहुत गलत सोचते हो तुम !
वक़्त का काम चलना है, तो चलेगा ही....
शाम भी ढलेगी और रात भी ।
सुबह खुशनुमा बयार भी चलेगी ,
मगर हाँ, मेरे लिए वक्त
ठहरा-ठहरा सा होगा ।
शाम मुद्दतों में और
रात सदियों सी कटेगी ,
सुबह की ताज़ी हवा भी
तुम बिन भली कैसे लगेगी ।
पर अब मैं ना तुमको मनाऊंगी ,
तुम पुरुषत्व के अहं में डूब ,
हर बार मुझे ही दोषी ठहराते हो ।
प्रेम तो साझा होता है ,
तो गलतियों की ज़वाबदेही
साझा क्यों नहीं ।
नहीं चाहती तुम को अपने
समक्ष झुकाना ,
पर झूठे अहं के आगे नतमस्तक ,
मैं कब तक और क्यों होती रहूँ ।
इसलिए कि
मैं स्त्री हूँ !कमजोर हूँ !
भावुक हूँ !
तुमसे असीम प्रेम करती हूं !
नहीं ऐसा करना अपमान होगा !
स्त्रीत्व का ! प्रेम का !
और शायद तुम्हारे पुरुषत्व का भी....!
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