Wednesday, April 1, 2020

यदि घर में भात-दाल होता, तो मजदूरों का क्यों ऐसा हाल होता .डॉ.कुमार राकेश रंजन




मोतिहारी।लक्ष्मी नारायण दुबे महाविद्यालय, मोतिहारी में राजनीति विज्ञान के सहायक प्राध्यापक डॉ.कुमार राकेश रंजन के अनुसार राष्ट्रव्यापी लॉक डॉउन की स्थिति में दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी, काहे को दुनिया बनायी - यह गीत शत-प्रतिशत सार्थक प्रतीत हो रही है। सूचना व प्रसारण मंत्रालय के सौजन्य से जहां एक ओर घरों में रामायण का प्रसारण शुरू किया गया है वहीं दूसरी ओर भारत की सड़कों पर भूख से महाभारत की स्थिति कायम है। एक ओर जहां कोरोना का कहर है तो दूसरी ओर सड़कों पर गांवों का शहर है। अपनी मातृभूमि से रोजगार की तलाश में कोसों दूर गए बिहारी दिहाड़ी/रेहड़ी मजदूर वतन वापसी हेतु व्याकुल दिख रहे हैं। विभिन्न दूरदर्शन चैनलों पर दिखाई जा रही तस्वीरों से पुन: भारत-पाक विभाजन की याद ताजी हो गई है। लौटते श्रमिकों के अनुसार यदि उनकी अपनी माटी मे ही अपेक्षित रोजगार मिल जाती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता। होगा भी क्यों नहीं यदि किसी के घर में सब्जी-रोटी व भात-दाल उपलब्ध हो जाए तो यह हाल पैदा नहीं होगा। पहले अमूमन प्रवासी मजदूर दशहरा, छठ व होली जैसे त्योहारों में ही वतन लौटते रहे हैं। इतिहास में कभी भी ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हुई कि सभी मजदूरों को एक साथ ही अपना वतन लौटने को मजबूर होना पड़ा हो। अचानक राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन की स्थिति ने लोगों को अपने माटी की याद दिला दी। उनके मकान मालिकों ने घर का पानी और बिजली का कनेक्शन काट दिया था। पानी के बिना एक दिन भी गुजारना मुश्किल था। परदेस से मोहभंग होना स्वाभाविक था। उन लोगों ने मकान खाली कर मातृभूमि की ओर कूच करना ही उचित समझा। आनंद विहार व लाल कुआं बस अड्डे पर दिहाड़ियों की भीड़ लॉक डाउन में सांस्कृतिक रूप से खूबसूरत भारत की बदसूरत तस्वीर लग रही है।दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा से बसों में लदकर बिहार के चारों ओर मजबूर होकर मजदूर पहुंच रहे हैं। यदि उस भीड़ में  2-4 संक्रमित भी होंगे तो विपदा का दायरा अप्रत्याशित हो जाएगा। हजारों जिंदगियां काल के गाल में समा सकती है। ऐसे में दिल्ली व उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लोगों को बसों में लादकर भेजने का फैसला उनकी जान से खिलवाड़ है। लॉक डाउन का उल्लंघन होने पर किसी भी अनहोनी के लिए इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। भोजन तथा आश्रय के अभाव से जूझ रहे मजदूर मजबूरी में सड़कों पर ही दम तोड़ सकते हैं। देश के विभिन्न राज्यों में बिहार के लोग अब भी भूख से परेशान हैं एक छोटे से कमरे में 12-15 लोगों तक बंद हैं, जो पैदल निकले हैं उन्हें भी रास्ते में कोई राहत नहीं मिल पा रही है। सरकार के उच्चाधिकारी स्थिति के पूर्वानुमान में फेल हो गए, प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से संबंधित प्रतिष्ठान के नियोजकों द्वारा अपेक्षित प्रबंध करवानी चाहिए थी। विश्वव्यापी संक्रमण को देखते हुए देश में लॉक डाउन के सिवाय कोई उपाय भी नहीं बचा था। प्रतिष्ठानों से पैदल गंतव्य की ओर प्रस्थान करते मजदूर बुलंद भारत की बदनसीब तस्वीर हैं। यहां यह यक्ष प्रश्न है कि क्या लाखों लोगों के सुख के लिए करोड़ों लोगों के जीवन को खतरे में डाला जा सकता है? इन प्रवासी मजदूरों की नियति में क्या लिखा हुआ है? अपनी माटी में ही इन्हें पौष्टिक आहार सब्जी-रोटी व भात-दाल कब उपलब्ध हो जाएगा? क्या ऐतिहासिक रूप से समृद्ध बिहार के सर पर पलायन का कलंक सदा बनी रहेगी? उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत व सर्वाधिक विकास दर का ढोल बजाने वाली सरकार अपने दायित्वों से कहां मुकर गई है? यद्यपि प्रशासनिक रूप से सख्त बिहार के मुख्यमंत्री माननीय नीतीश कुमार द्वारा स्थिति को भांपते हुए अपेक्षित कदम उठाया गया। नेपाल की सीमा व राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में फंसी प्रवासियों के राहत हेतु आपदा सीमा राहत शिविर की व्यवस्था की गई है। पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, सीतामढ़ी, मधुबनी, सुपौल, अररिया,6 किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, बांका, जमुई, गया, नवादा, औरंगाबाद, भोजपुर, कैमूर, बक्सर, छपरा, सीवान व गोपालगंज के जिलाधिकारियों को सतत् निगरानी हेतु निर्देशित किया गया है।आपदा सीमा राहत केंद्र पर स्क्रीनिंग उपरांत ही संबंधित जिलों में क्वॉरेंटाइन किया जा रहा है। बिहार भवन, नई दिल्ली के स्थानिक आयुक्त द्वारा भी देश के विभिन्न राज्यों में फंसे प्रवासी श्रमिकों को भोजन, आवासन व चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई जा रही है। बिहार सरकार के सूचना व जनसंपर्क विभाग की मानें तो 285888 व्यक्तियों के भोजन व आवासन का प्रबंध करवा दिया गया है। प्रवासी श्रमिकों का सहयोग बिहार सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में है, इसके लिए वह सदैव तत्पर है,संपूर्ण तंत्र सक्रिय एवं प्रतिबद्ध है। सीमाई क्षेत्रों में अभी भी प्रवासियों में छिपकर कर मातृभूमि पहुंचने की असीम आकांक्षाएं छिपी हुई है। यदि प्रशासनिक स्तर पर तथा समाज के श्रमजीवी व बुद्धिजीवी वर्गों में ससमय चेतना नहीं आयी तो भावी बिहार का रोगमुक्त होना मुश्किल हो जाएगा।


 

 



 

No comments:

Post a Comment