हिमालय की तलहटी और भारत-गंगा का मैदानी भाग डूब रहा है, क्योंकि इसके समीपवर्ती क्षेत्र भूस्खलन या महाद्वीपीय बहाव से जुड़ी गतिविधि के कारण बढ़ रहे हैं। जर्नल ऑफ जियोफिजिकल रिसर्च में प्रकाशित नए अध्ययन से पता चलता है कि सामान्य कारणों के अलावा, भूजल में मौसमी बदलाव के साथ उत्थान पाया जाता है। पानी एक चिकनाई एजेंट के रूप में कार्य करता है, और इसलिए जब शुष्क मौसम में पानी होता है, तो इस क्षेत्र में फिसलन की दर कम हो जाती है।
अब तक किसी ने भी जल-विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण से बढ़ते हिमालय को नहीं देखा है। प्रो सुनील सुकुमारन के दिशा-निर्देश में अपनी पीएचडी के लिए कार्यरत अजीत साजी इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। उन्होंने इस अभिनव प्रिज्म के माध्यम से इस गतिविधि को देखा। पानी के भंडारण और सतह भार में भिन्नताएं पाई जाती हैं, जिसके कारण मौजूदा वैश्विक मॉडलों के इस्तेमाल से इन्हें निर्धारित करने के लिए काफी मुश्किल हैं।
हिमालय में, ग्लेशियरों से मौसमी पानी के साथ-साथ मानसून की वर्षा, क्रस्ट की विकृति और इससे जुड़ी भूकंपीयता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भू-जल में कमी की दर भूजल की खपत के साथ जुड़ी हुई है।
शोधकर्ताओं ने ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम (जीपीएस) और ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (ग्रेस) डेटा का एक साथ उपयोग किया है, जिससे उनके लिए हाइड्रोलॉजिकल द्रव्यमान की विविधताओं को निर्धारित करना संभव हो गया है। 2002 में अमेरिका द्वारा लॉन्च किए गए ग्रेस के उपग्रह, महाद्वीपों पर पानी और बर्फ के भंडार में बदलाव की निगरानी करते हैं। इससे आईआईजी टीम के लिए स्थलीय जल-विज्ञान का अध्ययन करना संभव हो पाया।
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार, संयुक्त जीपीएस और ग्रेस डेटा उप-सतह में 12 प्रतिशत की कमी होने का संकेत देता है। यह स्लिप बताता है कि फूट तथा हैंगिंग वाल के सापेक्ष कितनी तेजी से खिसकता है। यह स्लिप मुख्य हिमालयी दबाव (मेन हिमालयन थ्रस्ट) (एमएचटी) में होती है, जो हाइड्रोलॉजिकल विविधताओं और मानवीय गतिविधियों के कारण होती है।
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