Wednesday, February 5, 2020

हाय हाय रे चुनाव 

चुनाव आते ही नेताजी व्यस्त हो जाते है । क्योंकि देश के किसी न किसी कोने  में प्रायः चुनाव रहता ही है।आजकल दिल्ली में हमारे बिहारी नेता कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी और जोर लगा रहे हैं, क्योंकि वहाँ बिहारी ज्यादा है, पर क्यूँ ? नेताजी क्यूँ ज्यादा है ?आपने अंतर्मन से कभी सवाल किया अगर किया होता तो शायद आज आपको बिहारी उतनी संख्या में नही मिलते।कोई शौक से दिल्ली जैसे दम घुटाने वाले शहर में नहीं रहता उसे रहने पर मजबूर किया है, आपकी नीतियो, ने और आप पहुँच जाते है वोट माँगने? आप सभी को कैसे नींद आती होगी आखिर बिहारियों की यह दुर्दशा किसने बनाई और इसके जिम्मेदार कौन और तो और आज भी आप लोगो के पास वैसी कारगर नीतियाँ तक नही है जिससे पलायन रोका जा सके।क्या आने वाले समय में कोई बिहारी ऐसे नेताओ को मिलना भी चाहेगा जिसकी नीतियों ने उसे पलायन होने को मजबूर किया हो। 

सरकार की गलत नीतियाँ हर वक्त रोजगार पर भारी पर रही है और लोग पलायित, पर इन्हें चुनाव की पड़ी और वोट की।मोटी मोटी और गोल गोल बाते चुनावी रैली और शाम को पार्टी और मीडिया मे लम्बी चौड़ी बातें आज तक मैने कभी किसी को यह कहते नही पाया कि मै बिहार को ऐसा बना दूँगा कि आप लोगो को रोजगार के लिए बिहार से बाहर न जाना पड़े।क्यों नेताजी तो बिहार से आये है बिहार भवन फूल है लम्बी चौडी व्यवस्था के बीच बडी शान से कहते है बिहारी वोटर निर्णायक है पर क्यूँ निर्णायक है बिहार सरकार क्या कर रही थी कि दिल्ली में बिहारी वोटर बढते रहे।कोई बस की बात करता तो कोई संस्कृति की पर आज जो विक्राल रूप से सवार है वह है रोजगार इसकी बात कोई करना नही चाहता।मै तो धन्यबाद कहूँगा दिल्ली का जो भी बिहारी या दूसरे राज्यो से वेरोजगार आये वे कही न कही सेट हुए है भले ही वे अपने से अलग हैं। इस चुनावी मौसम में बिहारी नेताजी जरूर जले पर नमक छिड़क रहे हैं यह दौर ऐसा है जब सबकुछ दिखता है जागरूकता की पराकाष्ठा है। बिहारी का किसी और शहर में पाया जाना वो भी इतनी बडी संख्या में गर्व की बात नही यह शर्म की बात है लेकिन नेताजी तो आंकडो के जाल में उलझे हुए है।यह आंकडा जिस तरफ भी जाएगी सरकार उसी की बनेगी ।

हाल के दिनो मे बिहार में सिपाही भर्ती की परीक्षा हुई थी जिसमें उन तमाम दावो को उखाड़ दिया है क्योंकि एक सीट पर लाखो की तादाद है जो  कितनी भयावह और मुँह चिढ़ाने वाली है इसका अंदाजा भीड़ और लाइन में खड़े युवाओ से पता चलता है।बढ़ती बेरोजगारी का आलम यह है कि एक साधारण सी नौकरी पाने के लिए लोग एक ट्रेन में गाजर मूली की तरह ठूस कर परीक्षा देने जाते है।

यूँ तो पलायन एक बडी समस्या रही है लेकिन बिहार में पिछले 30 सालो में यहाँ की व्यवस्थाएँ उद्योग, शिक्षा,स्वास्थ्य, कृषि सभी का हाल बूरा है।कुछ चीनी मीले को छोडकर 90 के दशक में जीतने भी उद्योग चल रहे थे वे सारे करीब करीब बंद हो चूके जिसमें चीनी उद्योग, जूट उद्योग, वस्त्र छोटे तथा लघु उद्योग शामिल हैं, जो बचे थे वो विभाजन के बाद झारखंड के हिस्से में आ गया यहाँ केवल वादे के सहारे कब तक चलती रहेगी? उद्योग बंद होने का परिणाम यह हुआ कि किसान नगदी फसल लगाना बंद कर दिए जिनमें गन्ना कपास जूट आदि। फसल नही लगने से खेतो में काम कम और आमदनी रूक गयी।रही सही कसर बाढ और जातिवाद की राजनीति ने ली यह कैसी विडम्बना है? 

सरकार को लोग चुनते है ताकि उन्हे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिए यहाँ वहाँ नही भटकना पडे लेकिन विगत 30 वर्षो में सिर्फ फूट के अलावा कुछ नही मिला।कभी अगड़ा बनाम पिछडा,कभी हिन्दू /मूसलमान/कभी दलित/मूसलमान/कभी आरक्षण कभी ओबीसी/दलित इसी में उलझकर शायद  राजनीति चमकती रही। कभी आधारभूत संरचनाओ की ओर न तो ध्यान दिया गया और न ही स्तरीय प्रयास किए गए।

आज तो बडी बडी मानव श्रृंखला बनायी जा रही कभी उद्योग के लिए बनाइये,रोजगार के लिए बनाइये, कभी कृषि के लिए बनाइये, कभी शिक्षा के लिए बनाइये कभी स्वास्थ्य के लिए बनाइये लेकिन यह कभी संभव नही हो सकेगा क्योंकि लोगो और दलो में फूट अनैतिकता की चरम सीमा पार चुकी है,जमीर मर चूका है और सभी की अपनी डफली है और अपनी ही बीन है। श्रोता भी वही है जो चंद सिक्को पर बीकते रहे है । आज यह भयावह तस्वीर  विचलित करता है उन विद्यार्थियों को जो इस भीड़ का हिस्सा है और वोटर भी और अंत में पलायन का हिस्सा भी। मैं उन तमाम समाज के प्रतिनिधि से सवाल करता हूँ यह स्थिति कैसे बनी ?क्यों नही समय रहते कड़े फैसले लिए गए अगर इसका कारण जनसंख्या है या अनियमितता या कुछ और तो इसका निदान क्या है?क्यों बिहार अब तक इतना पिछडा हुआ है कि यह बेरोजगारी और पलायन के नाम से जाना जाता है? पर नेताजी तो वोट मांगने वहाँ भी पहुँच जाते।हाय हाय रे चुनाव?

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