तो सभी करते है बहती गंगा में डूबकी सभी लगाना चाहते हैं आखिर क्यो नही चाहेंगे जब गंगा ही उल्टी बह जाय और लोगो को मुर्ख बनाकर अपना काम निकाल लिया जाय विडम्बना तो तब होती है जब परिवार के लोग भी ऐसा करते है ।आज की सामाजिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही है। मुझे याद आ रहा है बचपन के दिन जब मै छोटा था गाँव में एक बुधन चाचा हुआ करते थे हाथ मे छडी और आँखो पर चश्मा चढ चुका था लेकिन फिर भी कुदाली चलाते थे।मेरे घर के पास ही उनकी खेत थी जो उन्होंने बटाई पर ले रखी थी । मै बुधन चाचा से काफी घुल मिल गया था और वो भी अक्सर मेरे यहाँ आ जाते थे कभी पानी पीने, तो कभी चाय पीने चाय के लिए तो वो, घंटो इंतजार कर लेते थे ।मै बच्चा था लेकिन उनका पसीने से लथपथ भींगा बदन देखकर पूछ लेता था बूधन चाचा! ये बुढ़ापा में तुम कुदाली क्यों चलाते हो? वो बोलते तो कुछ नही लेकिन आँख से आँसू टपक पडते! मेरे समझ में कुछ नही आता और मै खेलने में व्यस्त हो जाता।मैने मन में सोचा एक दिन मै जानकर रहूँगा कि बुधन चाचा आखिर इतना काम इस उम्र मे क्यों कर रहे है और पूछने पर रोते क्यों हैं ? एक दिन सुबह-सुबह वो मेरे आंगन मे बैठे थे। माताजी चाय बना रही थी तो मैने कह दिया बुधन चाचा आज बताना पडेगा नही तो मै चाय लेकर भाग जाऊँगा। बुधन चाचा झिझक कर बोले नही ऐसा नही मेरी माँ भी मुझे डाट दी और मै कुछ न कर सका बुधन चाचा भी खेतो मे काम करने लगे लेकिन मैने ठान लिया था सो मै उनके पास गया और बोला! चाचा बताव ना! आखिर तुम्हारी क्या मजबूरी है नही बताओगे तो मै तुमसे कभी बात नही करूँगा ? बुधन चाचा को डर सा लग गया प्यार का डर, दरअसल इस उम्र में प्यार से बोलने वाला ही सब कुछ होता है, इन्सान के लिए, तो वो बोले! बौआ ई खेत इतना नही पूरा ताभेंगे तो मेरे बच्चे और बहू मुझे खाना तक नही देगे और कल भी वही होगा और उनके आँखो से आँसू की धारा प्रवाहित होने लगी।मै भी उनके साथ रोने लगा।और आकर माँ को सारी बात बतायी। दरअसल बुधन चाचा के दो पुत्र थे और दो बहुएँ थी पुत्र और बहु अपनी मर्जी के मालिक थे कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन बुधन चाचा की उपेक्षा और यातनाएँ उन लोगो की दिनचर्या में शामिल था। खेतो का सारा काम बुधन चाचा ही सम्भालते थे फसल उन्हीं लोगो को देकर पूरे वर्ष एक-एक पैसे के मोहताज रहते थे।मैने चाचा से कहा तुम फसल उपजाते हो अपने पास रखो और उन लोगो की मर्जी के वगैर चलकर देखो तो कितना सकून मिलेगा।बूधन चाचा पहले तो कुछ हिचकिचाये लेकिन बोले खेतों मे फसल उपजाने के पैसे कौन देगा?तो मैने कहा मेरी माँ से ले लो ? कहो तो मै माँ से बात करू ?फिर मैने माँ से बात की तो माँ ने चाचा की मदद कर दी फसल बोने के बाद बुधन चाचा घर नही जाते खेतो में रहते मेरे खेतो की देखभाल करते और वहीं झोपडी बनाकर सो जाते उनकी मेहनत रंग लायी खेत फसल और हरियाली से भरे थे पैदावार अच्छी हुई अब बुधन चाचा कभी घर जाने का नाम नही लेते हैं और अब उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी है वो कुदाली भी नही चलाते मजदूर या ट्रेक्टर से खेतो की जुताई कर लेते हैं ।कहने का तात्पर्य है बहती गंगा शोषण की कब तक बहती रहेगी बुजुर्ग उपेक्षा के शिकार कबतक होते रहेगें? क्या इस तरह की उल्टी गंगा का बहना बंद होगा कभी या नही? न जाने कितने बुघन चाचा जैसे बुजुर्ग इस समाज में शोषण के शिकार है शहरो मे तो कई बुजुर्ग आश्रम मे रह रहे है और गाँव में खेतो पर लेकिन लोक लाज के कारण जुवान नही खोलते कोई पूछता भी नही और जीते जी उनकी जिन्दगी मौत से भी बदतर हो जाती है ।बुजुर्गो के पारिवारिक राजनीतिक और सामाजिक शोषण पर बेटों और बहुओं का यह कैसा अट्टहास और कब तक? किसी माँ-बाप को या बुजुर्ग को प्रताड़ित होकर अपना घर छोड़ना पड़े और समाज के प्रभावशाली लोग भविष्य के संबंध का हवाला देकर हस्तक्षेप न करे तो यह सोचने की जरूरत है कि समाजिक सम्बन्धों में कितनी मानवता और संवेदनायें बची है।
वृद्धावस्था शारीरिक असहायता का प्रतीक है। यह वह समय होता है जब व्यक्ति को सर्वाधिक मानसिक संगति की जरूरत होती है। भागदौड़ भरी जिंदगी में कोई ठिठक कर किसी बुजुर्ग को कुछ देर के लिए सुन भी ले तो उनकी धुंधली दृष्टि में बसंत महकने लगता है। वे लोग खुशकिस्मत हैं जिनके पास इस उम्र में भी अपने जीवनसाथी के सुख का साथ है। लेकिन ऐसा सुख कितने लोगों को नसीब है! हो सकता है कि कुछ मुद्दों पर किन्हीं परिवारों में कुछ बुजुर्गों का रुख अतार्किक हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें अपने जीवन से इस तरह निकल जाने को मजबूर कर दें।
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