भाषा विभिन्न सार्थक ध्वनियों के संयोग से भावों की अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। जैसे - जैसे किसी भाषा का प्रयोग बढ़ता जाता है नई अवधारणाओं का समावेश होता जाता है और उसका प्रसार बढ़ता है। किसी भी भाषा का कठिन या सरल होना कोई अनिवार्य गुण नहीं है बल्कि यह पाठक की मानसिकता, रुचि, जिज्ञासा, तत्परता एवं प्रयोग पर निर्भर करता है कि कोई भाषा प्रयोगकर्ता के लिए सरल है या कठिन। बहुभाषी जनता ने ही अपनी आवश्यकता के अनुरूप भारतीय भाषाओं के मिले - जुले रूप को हिन्दी भाषा का नाम दिया और उसे विकसित किया। चूँकि हिन्दी भाषा का उद्गम, विकास एवं समृद्धि बढ़ती ही गई और आज हिन्दी एक समृद्ध भाषा के रूप में सभी क्षेत्रों में प्रयोग हेतु सुलभ है। इस प्रकार हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए और यह भारतीय जनता की एक अपरिहार्य आवश्यकता है। किसी भी हालात में अंग्रेजी संपर्क भाषा हिंदी का विकल्प नहीं बन सकती।
हिन्दी का साहित्यिक रूप तो पहले से ही समृद्ध था अब इसका व्यावहारिक स्वरूप (अनुप्रयुक्त स्वरूप) भी समृद्ध हो चुका है और तकनीकी एवं गैर-तकनीकी क्षेत्रों में इसका प्रयोग बढ़ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी एवं समाचार मीडिया के क्षेत्र में हिंदी निरन्तर प्रगति कर रही है। इसके आगे की प्रगति प्रयोगकर्ताओं पर ही निर्भर है। देश के उलटबांसी प्रवृत्ति के लोग राजभाषा एवं राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी की उपयुक्तता के संबंध में विसंगतिपूर्ण टिप्पणियाँ करके इसके महत्व को घटाने को असफल प्रयास करते रहे हैं जो निम्न हैं-
हिंदी कठिन, दुरुह एवं दुर्बोध है।
अंग्रेजी की तुलना में हिंदी की अभिव्यक्ति क्षमता सीमित है।
हिन्दी को सरल बनाया जाए। विदेशी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित करने से हिंदी सरल हो जायेगी।
हिन्दी में वैज्ञानिक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है।
मानक हिंदी आम जनता नहीं समझ पाती है आदि आदि।
विगत 300 वर्षों के दौरान अंग्रेजी के प्रयोगकर्ताओं ने अंग्रेजी के सरलीकरण की बात कभी नहीं कहीं जबकि वास्तविकता यह है कि विशेषज्ञों के द्वारा भी अंग्रेजी के मानक शब्दों का ठीक से उच्चारण नहीं हो पाता तथा उनके सामान्य एवं विशेष अर्थ में अंतर नहीं कर पाते हैं इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अंग्रेजी की महिमा मण्डित करना अंधानुकरण पर आधारित है। जहां तक हिंदी भाषा का प्रश्न है, हिंदी भाषा भारतीय संस्कृति से जुड़ी है और संपूर्ण भारतीय सस्कृति की संवाहिका बनने की दिशा में प्रगति कर रही है। आम प्रयोगकर्ता उसके मर्म को समझता है और जिस शब्द का प्रयोग करता है, उसका अर्थ समझता है। मानक शब्दों का सरलीकरण करने के नाम पर किसी भी भाषा को विकृत करने से वह भ्रांतिपूर्ण और अर्थहीन हो जायेगी। इस प्रकार यह कहना बिल्कुल गलत मानसिकता है कि हिंदी कठिन है, दुरुह है एवं दुर्बोध है। वास्तविकता यह है कि विविध विषयों के विशेषज्ञों द्वारा हिन्दी प्रयोग नहीं की जाती इसलिए हिन्दी के छोटे व सरल शब्द भी उनके लिए कठिन हो जाते हैं। अंग्रेजी के प्रयोगकर्ता अंग्रेजी के शब्दों के अर्थ विश्लेषण के लिए सैकड़ों बार अंग्रेजी शब्द कोष का संदर्भ लेते हैं परन्तु जब उन्हें हिन्दी शब्दकोश का एक दो बार भी हिंदी शब्द के लिए उपयोग करना पड़ता है तो वे अपनी नकारात्मक मानसिकता के आधार पर हिंदी भाषा पर दुरुह एवं कठिन होने का दोष मढ़ते हैं। वास्तविकता यह है कि हिंदी उच्चारण, लेखन एवं अर्थ विश्लेषण की दृष्टि से सरल एवं सहज है। इस भाषा की ध्वनियाँ हमारे मन - मस्तिष्क में रची बसी हैं।
हिंदी भाषा के मूल को संस्कृति जैसी समृद्ध भाषा एवं भारतीय भाषाएं अभिसिंचित और समृद्ध करती हैं। अकेले संस्कृत में ही असंख्य शब्दों के निर्माण की क्षमता है। भारतीय भाषाओं के प्रचलित शब्द हिंदी को अतिरिक्त अभिव्यक्ति क्षमता प्रदान करते हैं।
किसी भी भाषा की अपनी मौलिक सार्थक प्रतीक ध्वनियाँ होती हैं। उसकी अपनी शैली होती है। विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में हिंदी की यह विशेषता है कि इसका प्रत्येक अक्षर, शब्द, अर्थ एवं प्रयोजन ध्वनि के सामंजस्य पर आधारित है। कोई भी भाषा किसी विदेशी भाषा के शब्दों को उसी हद तक अपनाती है। जिस हद तक विदेशी भाषा के शब्द देशीय भाषा के शब्दों से ध्वनि साम्य या सामंजस्य रखते हैं। अतः यह तर्क देना कि अधिक से अधिक विदेशी शब्दों को हिन्दी में अपना लेने से हिन्दी भाषा सरल और सुबोध हो जायेगी। बिल्कुल गलत है। किसी भी भाषा में विदेशी शब्दों को अपनाए जाने की प्रक्रिया सहज होती है। इस दृष्टि से हिंदी भाषा की उदारता एवं सर्व सामंजस्य सर्वविदित है। असहज रूप से विदेशी शब्दों को अपनाने से भाषा का मौलिक स्वरूप विकृति हो जायेगा और उसका विकास अवरुद्ध हो जायेगा। अतः भाषा की मौलिकता को बनाए रखने के लिए और उसके विकास की श्रंखला को बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि विदेसज शब्दों को सहज तरीके से दाल में नमक के बराबर अपनाया जाए।
आम जनता अपनी आवश्यकतानुसार हिंदी, अंग्रेजी या किसी भी भाषा के मानक शब्दों का प्रयोग करती है तथा कभी-कभी मानक शब्दों के विकृत रूप का प्रयोग करके काम चला लेती हैं परन्तु उस प्रकार की भाषा का प्रयोग विशेषज्ञ नहीं करते हैं ऐसी स्थिति में हिन्दी के मानक शब्दों के सरलीकरण की बात कहना वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं है। आम जनता जब किसी भाषा का प्रयोग करने लगती है तो वह अपनी अपेक्षा के अनुसार उसका प्रयोग करने का मार्ग खोज लेती हैं। इससे विशेषज्ञों की भाषा पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है। भाषा के मौखिक, साहित्यिक, और प्रयोजन मूलक स्वरूप की अलग पहचान होती है और उनका विभेदक गुण उन्हें एक दूसरे से अलग करता है। मौखिक भाषा में व्याकरणिक बंधन शिथिल हो जाते हैं। आम जनता मनमाने तरीके से शब्दों का प्रयोग करती है परन्तु कार्यालय में अंग्रेजी सहित किसी भी भाषा में स्पष्टता के लिए हम कुछ आवश्यक मानक शब्दों और कुछ सामान्य शब्दों का प्रयोग करते हैं तथा समग्र अभिव्यक्ति का लक्ष्य होता है, सही, सटीक और उद्देश्य परक अभिव्यक्ति ताकि कार्यालय का कार्य त्वरित गति से चल सके। 97 प्रतिशत जनता तो अंग्रेजी जानती ही नहीं तो हिंदी पर यह दोष मढ़ना कि आम जनता हिन्दी नहीं समझ पाती है और अंग्रेजी सरल है। अन्यायपूर्ण है।
कहाँ तक युक्ति संगत है, जबकि देश की लगभग 65 प्रतिशत आबादी हिंदी का प्रयोग करती है और समझती है। विशेषज्ञों की अभिव्यक्ति मानक, सही, सटीक और विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है। विषय को जानने और समझने वाला कोई भी व्यक्ति उसी स्तर पर जाकर समझ पाता है। इसमें सरल या कठिन होने की अपेक्षा नहीं होती है बल्कि इसका लक्ष्य विषय की अपेक्षा के अनुसार होता है जो मानक भाषा में मानक अभिव्यक्ति होता है। हिंदी में ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अपने विषय और भाषा के ज्ञान के अनुसार हिंदी में कहीं हुई बात समझ लेता है। हिंदी भाषा के माध्यम में रुचि रखने वाला और हिंदी जानने वाला पाठक हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार 'जयशंकर प्रसाद' की संस्कृत निष्ठ हिन्दी में व्यक्त भावों को समझ लेता है और प्रेमचन्द्र की लोकभाषा तथा उर्दू मिश्रित हिंदी में लिखे उपन्यासों और कहानियों को समझ लेता है। अतः हिंदी पर कठिन होने का दोष मढ़ने की बात विरोधाभासी, भ्रांति मूलक और नकारात्मक मानसिकता की देन है। इसके अतिरिक्त हिंदी की लोकप्रियता इससे स्वतः सिद्ध होती है कि आज देश में अंग्रेजी पत्र - पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं की तुलना में हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं अधिक लोकप्रिय और अधिक संख्या में प्रकाशित होती हैं तथा पढ़ी जाती है।
''जो व्यक्ति जितना दुर्बल होता है। वह उतना ही अधिक क्रोध का शिकार होता है।''
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