Monday, October 21, 2019

शारीरिक शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण शिक्षा का अंग

 आधुनिक युग को यन्त्र युग कहा जाता है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि यन्त्रों ने मानव जीवन को इस प्रकार आच्छादित कर लिया है, जिस प्रकार सावन की घनघोर घटा आकाश को ढक लेती है। यदि मानव चाहे भी तो वह यन्त्रों से किसी भी अवस्था में छुटकारा नहीं पा सकता। उसने यन्त्रांे का अविष्कार किया था, जीवन को सुखमय बनाने के लिए परन्तु आज यन्त्र मानव के सेवक न रह कर उसके आश्रय-दाता बन गये हैं। इसी उथल-पुथल में मानव स्वयं भी एक यन्त्र बनकर रह गया है। जैविक खोजों ने इस बात के कई पुष्ट प्रमाण हमारे सामने प्रस्तुत किए हैं जिनमें हमें ज्ञात होता है कि जब से मानव ने यन्त्रों पर आश्रित रहना स्वीकार किया तभी से शारीरिक बल और शौर्य में कमी हुई है। आधुनिक मानव करोड़ों वर्ष पहले मानव की तुलना में तुच्छ अथवा हीन दिखाई पड़ता है। भले ही यन्त्र मानव के असंख्य, असाध्य कार्र्यांे को सम्पन्ना करने के येाग्य बन गये हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि मानव का इस सृष्टि में अस्तित्व बुनियादी तौर पर शारीरिक ही है। शरीर मानव की अमूल्य निधि है, तथा इसे खो कर मानव कहाँ तक अपना अस्तित्व बनाए रख सकेगा, एक विचारणीय प्रश्न है। यदि मानव अपने शरीर का सदुपयोग नहीं कर सकता, वह अभिवृ(ि और विकास के शिखर को नहीं छू सकता।
 यही कारण है कि आधुनिक शिक्षा केवल मानसिक पहेलियों एवं अठ्खेलियांे का क्षेत्र न रह कर शारीरिक उन्नति का भी साधन समझी जाने लगी है और आज का शिक्षा शास्त्री इस बात पर अधिक जोर देता है कि एक अच्छा मनुष्य वही है जो शारीरिक दृष्टिकोण से हृष्ट-पुष्ट बलवान तथा सक्रिय, मानसिक दृष्टिकोण से तीव्र, संवेगात्मक दृष्टि कोण से सन्तुलित, बौ(िक दृष्टिकोण से प्रखर तथा सामाजिक दृष्टिकोण से सुव्यवस्थित हो। शिक्षा क्षेत्र की अभिनव खोजों तथा नए शिक्षा उपकरणों के अविष्कारों ने मानव कल्याण के लिए कई नए तथ्यों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। उनमें एक तथ्य यह भी है कि आज मानव को एक सुनियोजित खेल अथवा शारीरिक शिक्षा के कार्यक्रम की आवश्यकता है। हमें ज्ञात है कि सदैव परिवर्तित होता वातावरण मानव शरीर और मानव जीवन में असंख्य परिवर्तन लाता है। यह परिवर्तन अभी भी हो रहे हैं। जिनका प्रभाव अतिसूक्ष्म ढंग से मानव पर पड़ रहा है। बहुत से विद्वानों को इस बात का भी भय है कि यदि मानव ने अपने शरीर के उचित उपयोग के इस प्रबन्ध को समाप्त कर दिया तो एक दिन उसका शरीरिक अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।
 शारीरिक शिक्षा एक बहुत पुराना विषय है परन्तु आजके युग ने इसे एक अनिवार्य अनुशासन की संज्ञा देकर क्रमब( और सुनियोजित किया है। इसे पाठशालाओं तथा उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो चुका है। परन्तु इस संसार में अधिक संख्या उन्हीं व्यक्तियों की है जो इस विषय और अनुशासन के सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते तथा न ही जानने का प्रयत्न करते हैं। वे स्वस्थ भी रहना चाहते हैं परन्तु इस अनुशासन को अपनाने के लिए तत्पर नहीं हैं। इस लिए यह आवश्यक है कि पुरातन अनुशासन के महत्व की जानकारी तथा प्रसार के लिए इससे सम्बन्धित परिभाषाओं, सि(ान्तों एवं तत्वज्ञान की व्याख्या की जाए।
 शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में छिपे हुए गुणों को अच्छी तरह से विकसित करना है, क्योंकि जन्मजात गुणों के विकास से व्यक्ति का सर्वपक्षीय विकास सम्भव है। एक व्यक्ति अगर तन और मन को एकाग्र न करे तो वह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह दो ऐसे पक्ष हैं, जो एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। मानसिक स्तर पर थके हुए व्यक्ति को यदि बल पूर्वक शारीरिक प्रक्रियाएं कराएं तो हो सकता है कि वह इन्हें सन्तुलित एवं वंाछनीय ढंग से न कर सके। शारीरिक शिक्षा, क्योंकि शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शिक्षा है। अतः विद्यार्थी विभिन्न अनुभवों के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक शिक्षा का माध्यम निः संदेह दीर्घ पेशी प्रक्रियायें हैं किन्तु इसका उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्य से भिन्न नहीं है। भारतीय शारीरिक शिक्षा तथा मनोरंजन के केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड ने अपनी परिभाषा में शारीरिक शिक्षा व शिक्षा को इस प्रकार स्पष्ट किया है - ”शारीरिक शिक्षा शिक्षा ही है“। यह वह शिक्षा है जो बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा उसकी शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा शरीर मन एवं आत्मा के पूर्ण रूपेण विकास हेतु दी जाती है।


No comments:

Post a Comment