महर्शि कणाद अपने षिश्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर वहाँ रहा करते थे आश्रम में सभी कार्य षिश्य स्वयं ही किया करते थे, आश्रम के जीवन में पवित्रता थी, अतः वहाँ किसी भी प्रकार का कश्ट नहीं था।
वर्शा ऋतु निकट ही थी महर्शि ने अपने षिश्यों को बुलाकर कहा-''देखो, वर्शा ऋतु आने वाली है हमें हवन तथा भोजनादि के लिये लकड़ी एकत्रित कर लेनी चाहिये।''
गुरूदेव की इच्छा को आज्ञा मानने वाले षिश्य कुल्हाड़ी आदि लेकर जंगल की ओर चल पड़े बड़ी लगन तथा परिश्रम से उन्होनें लकड़ियाँ इकट्ठी कर गट्ठर बाँधें और कन्धों पर लाद कर आश्रम में ले आये। गुरू जी बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने षिश्यों को षुभाषीश दिया।
कुछ समय के पष्चात् सभी षिश्य ऋशि कणाद के साथ नदी में स्नान करने गये। मार्ग में वहीं जंगल पड़ा जहाँ से षिश्य लकड़ी काटकर आश्रम में ले गये थे सबके आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब वन में उन्हें चारों ओर रंग-बिरंगे, सुगन्धित सुन्दर पुश्प दिखाई दियें सारा जंगल सुगन्धित था षिश्यों ने गुरू से पूछा-''गुरूवर, ये रंग-बिरंगे फूल कहाँ से आ गये, वायुमण्डल में सुगन्ध व्याप्त है, यह चमत्कार कैसे हुआ।'' ऋशि कणाद हँसे और कहने लगे-''यह सब तुम्हारे अथक परिश्रम का फल है, तुम्हारे षरीर से निकले षुद्ध, सच्चे पसीने की बूँदो का ही यह परिणाम है कि तुमको यहाँ का वातावरण मनमोहक सुन्दर तथा चमक दमक वाला दिखाई दे रहा है जहां भी तुम्हारा पसीना गिरा था, वही पुश्प उग गया, शिष्यों को बात ध्यान में आ गयी कि परिश्रम का कोई विकल्प (बदल) नहीं है, महान् बनने के लिये कठोर परिश्रम करना होता है और करना चाहिए।''
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