Tuesday, October 29, 2019

नारी बिना साहित्य जगत है अधूरा 

साहित्य मानवीय संवेदनाओं के चिंतन एवं चित्रण की श्रेश्ठतम अभिव्यक्ति है। नारी सजल संवेदनाओं का मूर्तरूप है। अतः साहित्य नारी के बिना आधा अधूरा एवं एकांगी है। सृश्टि के ऊशाकाल से ही नारी पुरूश की सुकोमल भावनाओं में चेतना का संचार करती और उसकी विविध कल्पनाओं को निरभ्र गगन में उड़ान भरने के लिये प्रेरित करती रही है। इसी कारण नारी साहित्य के साम्राज्य पर सदैव ही अधिश्ठित और प्रतिश्ठित रही है। साहित्यकार मानते हैं कि कविता का उद्गम स्त्रोत नारी प्रेरित है। नारी स्वयं एक कविता हैं, नारी स्वयं एक परिपूर्ण साहित्य है। नारी की पवित्रता, षुचिता, सौंदर्य के बिना साहित्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
 सजल संवेदना की अविरल धारा जब स्थिर होकर रूपायित हुई तो उसमें नारी का रूप निखर उठा और जब इसकी अभिव्यक्ति हुई तो साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। अतः नारी और साहित्य का सम्बंध अनन्य और अखण्ड रहा है। नारी के संवेदनषील गर्भ से साहित्य की सृजन धारा फूट पड़ी है। सृजन की इस महती प्रक्रिया में नारी का योगदान प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में हुआ है। अप्रत्यक्ष रूप से पुरूश द्वारा नारी का भरपूर उपयोग किया गया है और इसका कारण है- (1) सौंदर्यानुभूति (2) नैतिक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति (3) सामाजिक परिवेष का चित्रण।
 ये तीन संवेदनायें ही मानवी मन को साहित्य सृजन के लिये प्रेरित करती है। जिसमें सौंदर्यानुभूति किसी भी साहित्यकार की साहित्य-साधना का मूल आधार रही है। भारतीय साहित्य में पुरातन से अद्यतनकाल तक सौंदर्य एवं श्रंगार को विषिश्ट स्थान प्राप्त है और हो भी क्यों न, क्योंकि संवेदना की धारा जब उमड़ती है, सौंदर्य एवं श्रंगार स्वतः स्फूर्त, आलोड़ित-उद्वेलित होते हैं। यह सौंदर्य कल्याणकारी एवं सत्य की आभा से मंडित होता था, जिसमें षील एवं षुचिता आधार बने हुये थे। जैसे ही ये आधार टूटने-बिखरने लगे, सौंदर्य एवं श्रृंगार की दिषा अधोगामी हो गई और साहित्य जीवन प्रदायक अमृत से जीवन हरने वाला विश बन गया, परंतु साहित्य की प्राचीन एवं श्रेश्ठ सौंदर्याभिव्यक्ति कालिदास, जायसी, तुलसी से लेकर पंत, प्रसाद और निराला आदि तक अविच्छिन्न रूप से निखरी है।
 नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में भी नारी ने साहित्य को अपूर्व योगदान प्रदान किया है। संस्कृति को सींचने के लिये नारियों ने स्वयं को खपा दिया है। नारी अपने दरद को लेखिनी के माध्यम से उठाती रही है। सांमती मानसिकता पर करारा प्रहार करने वाली नारी लेखिकाओं की कमी नहीं है। रामधारी सिंह दिनकर नें यहाँ तक कहा है कि सांस्कृतिक संवेदना नारी के बिना अपंग-अपाहिज के समान है। सांस्कृतिक ध्वजा को साहित्य के गगन में कम संख्या में ही सही, लेकिन दमदार ढंग से नारियों ने लहराया है। ठीक इसी प्रकार नैतिकता एवं सामाजिकता के अनेक विशयों को नारियों ने साहित्य से जोड़ा और अपनी अस्मिता और अस्तित्व को बोध कराया है।
 साहित्य साधिकाओं में मीराबाई का नाम ध्रुवतारा के समान प्रदीप्त है। मीरा हिन्दी साहित्य के काव्य फलक पर महान कवियत्री के रूप में प्रतिश्ठित है। मीरा की कविता के बिना हिंदी साहित्य का लालितय अधूरा माना जायेगा। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य को छायावाद, रहस्यवाद, प्रतीकयोजन, वेदना, गीतकला, प्रकृति चित्रण रूपी अनेक अनुपम उपहार देने के रूप में जानी जाती है।
 वैदिककाल की नारियाँ जैसे अपाला, घोशा, गार्गी, विष्ववारा, अरूंधती अनसूया आदि ने भी अपने चिंतन से नारी जगत में नयी दिषा दी। ठीक इसी प्रकार आधुनिक काल में अमृता प्रीतम, चंद्रकिरण, ऊशादेवी मित्रा, षषि प्रभा षास्त्री, मृणाल पाण्डेय, सूर्यबाला, नासिरा षर्मा, षिवानी आदि तमाम रचनाकारों की सषक्त कृतियों से समृद्ध होती हुई आज नारी चेतना सम्पन्न एवं सुदृढ़ धरती तक पहुँच गई है। लेखिकाओं ने जहाँ संवेदनषील मानवीय संबधों को रचनाओं में उकेरा है, वहीं सामयिक ज्वलंत प्रष्नों को भी रेखांकित किया है। 'इक्कीसवीं सदी नारी सदी' की संभावना को साकार करने का यह श्रेश्ठ एवं पुण्यकार्य है, जिसे किसी भी कीमत पर करना ही चाहिये।
 'पुस्तक से रहित कमरा आत्मा से रहित षरीर के समान है। (सिसरो)


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