इस संसार में उन्नति करने-उत्थान के जितने की साधन हंै। सत्संग उन सब में अधिक फलदायक है और सुविधा जनक है। सत्संग का जितना गुणवान किया जाय थोड़ा है पारस लोहे को सोना बना देता है। रामचन्द्र जी के सत्संग से रीछ, वानर भी पवित्र हो गये थे। कृष्ण जी के संग मंे रहने से गँवार समझे जाने वाले गोप-गोपियाँ भक्त शिरोमणि बन गये। सत्संग मनुष्यों का हो सकता है और पुस्तकों का भी श्रेष्ठ मनुष्यों के साथ उठना बातचीत करना आदि उत्तम पुस्तकों का मध्ययन भी सत्संग कहलाता है। मनुष्यों के सत्संग से जो लाभ होता है वह पुस्तकों के सत्संग से भी सम्भव है। अन्तर इतना है कि संतजनों का प्रभाव शीघ्रपड़ता है। आत्म संस्कार के लिए सत्संग से सरल व श्रेष्ठ साधन दूसरा नहीं है। बड़े-बड़े दुष्ट, बड़े-बड़े पापी घोर दूराचारी सज्जन और सच्चरित्र व्यक्ति के सम्पर्क में आकर सुधरे बिना नहीं रह सकते सत्संग अपना ऐसा जादू डालता है। कि मनुष्य की आत्मा अपने आप शुद्ध होने लगती है। महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आ कर न जाने कितनों का उद्धार हो गया था कभी-कभी विलाजी और फैशन परस्त सच्चे जनसेवक और परोपकारी बन गये थे। पुस्तकों का सत्संग भी आत्म संस्कार के लिए अच्छा साधन हो इस उदद्ेश्य के लिए महापुरूषों के जीवन चरित्र विशेष लाभ प्रद होते हैं। उनके स्वाध्याय से मनुष्य सत्कार्यों मंे प्रकृत होता है। और बुरे कार्यों से मुँह मोड़ता है। गोस्वामी जी की रामयण में राम का आर्दश पढ़ कर न जाने कितनों ने कुमग्र्ग से अपना पैर हटा लिया। महाराणा प्रताप और महाराज शिवाजी की जीवनियों को देश सेवा का पाठ पढ़ाया। सत्संग मनुष्य के चरित्र निमार्ण मंे बड़ा सहायक होता है। हम प्रायः देखते है कि जिनके घरों में बच्चे छोटे दर्जे के नौकरो चाकरों या अशिक्षित पड़ोसियों के संसर्ग में रहते है। वे भी असभ्य हो जाते हैं। और अशिष्ट बन जाते हैं। उनमें तरह-तरह के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। और उनमें से कितनों का जीवन बिगड़ जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों की देखरेख स्वयं भली प्रकार करना चाहियें। उन्हें भले आदमियों के पास उठने-बैठने दिया जाना चाहिये जिसमें उनमें अच्छे आचरण व विचार पनपते हैं। जो स्वयं भी भद्रोचित ढंग से बातचीत करते है। उनके बच्चे भी सभ्यव सुशील होते हैं। और उनकी बात चीत से सुनने वालों को प्रसन्नता होती है। इसलिए संत्सग की आवश्यकता बड़ी आयु में ही नहीं है। वरन् आरम्भ से ही हे। हमको इसविषय में सचेत हरना चाहिये और खराब व्यक्तियों का संग नहीं करना चाहिए। सत्संग का महत्व इस पौराणिक कथा द्वारा भी हम जान सकते है।
एक कथा प्रसिद्ध है कि एक बार विश्वामित्र ने वशिष्ठ को अपनी एक हजार वर्षों की तपस्या दान कर दी, बदले में वशिष्ठ ने एक क्षण के सत्संग का फल विश्वामित्र को दिया। विश्वामित्र ने अपना समझा। उन्होंने पूछा कि मेरे इतने बड़े दान का बदला आपने इतना कम क्यों दिया? वशिष्ठ जी विश्वामित्र को शेष जी के पास फैसला कराने ले गये शेष जी ने कहा, मैं पृथ्वी का बोझ धारण किये हूँ तुम दोनों अपनी वस्तु के बल से मेरे इस बोझ को अपने ऊपर ले लो हजार वर्ष भी तपस्या की शक्ति से वशिष्ठ पृथ्वी का बोझ न उठा सकें किन्तु क्षणभर के सत्संग के बल से विश्वामित्र ने पृथ्वी को उठा लिया। तब शेष जी ने फैसला किया कि हजार वर्ष की तपस्या से क्षण भर के सत्संग का फल अधिक है। तुलसी दास जी ने सत्संगी को सब मगंलो का मूल कहा है।
सत्संगति मुद मगंल मूला, सोई फल सिधि सब साधन फूला।
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