आज हमारे सामाजिक जीवन में चारों ओर समस्यायें ही दिखाई पड़ती है। जीवन के षुद्वदृश्टिकोण का अभाव ही हमारी प्रमुख समस्या है, जिसके रहते षेश समस्यायें लाख प्रयत्न करने पर भी सुलझ न पायेंगी। अतः जीवन का सत्य षुद्वदृश्टिकोण क्या होना चाहिये, जिसे लेकर चलने से मानव जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं पर विजय प्राप्त करना सुलभ हो जाता है।
हमारी संस्कृति के सर्वोत्कृश्ट भारतीय षास्त्रों के अनुसार इस समस्त विष्व में एकमेव अखण्ड परमेष्वर ओत-प्रोत है, किन्तु उसके अव्यक्त स्वरूप को समझना कठिन है। मनुश्य होने के नाते हमें सर्वसाधारण रीति से मानव समाज तक सीमित कल्पनाओं की अनुभूति ही सरलता से हो सकती है। अतएव अव्यक्त परब्रह्म की अनुभूति सरल रीति से करा देने के लिये मनुश्य-समाज को उस अव्यक्त परब्रह्म का विषाल एवं विराट रूप मानने और प्रत्येक मनुश्य को इसी दिव्य-देव के षरीर का घटक अवयव समझने का षास्त्र ने आदेष दिया है।
इस दृश्टि से मनुश्य समाज का प्रत्येक व्यक्ति हमारे लिये पूज्य और सुसेव्य हो जाता हैं। भगवान का केवल षिर ही पूज्य है, पैर नहीं'-ऐसा सोचना मूर्खता है। जितना पवित्र और पूज्य उसका सिर है, वैसे ही उसके पाँव तथा षरीर का प्रत्येक घटक अवयव भी पवित्र है, पूज्य है और परमेष्वर के पाँव को तो षास्त्र ने परम पवित्र बताया है, जिससे स्पर्ष हुई धूलि और जिससे निकल हुआ जल भी परम पवित्र कहा गया है।
समाज के सारे अंग-उपांग समान हैं और हमारे लिये सदैव सुसेव्य हैं। उनमें ऊँच-नीच का भेद न करते हुये सभी की सेवा समान षक्ति एवं तत्परता से करने की आवष्यकता है। इस विचार के अनुसार समाज की सेवा में भगवत-पूजा का भाव चाहिये और सच्ची भगवत्पूजा जीवन में प्राप्त श्रेश्ठतम भोग पदार्थों को भगवान की सेवा के निमित्त प्रगाढ़ श्रद्वायुक्त अन्तःकरण से समर्पित कर देने में ही हैं।
जीवन के सार-सर्वस्व से प´च तत्व-प्राप्ति तक भगवत पूजा करते रहना ही षास्त्रों में जीवन का चरम लक्ष्य कहा गया है। अपनी समस्त सम्पत्ति सारी सम्पदा का नैवेध रूप में इस समाज परमेष्वर को समर्पित करके अपने भौतिक जीवन को पवित्र बनायें यहीं जीवन का सच्चा दृश्टिकोण है।
इस प्रकार जिसने समाज में परमेष्वर के विराट रूप का साक्षात्कार किया है और जो उसकी सेवा में जीवन सर्वस्व लगाकर दक्ष रहता है उसे ऐसे लाखों की संख्या में इतस्ततः फैले हुये दीन-हीन निराश्रित प्राणी-परमात्मा के सर्वप्रथम पूजनीय रूप में ही दिखाई देंगे और वह उनकी सेवा में सम्पूर्ण षक्ति लगाने के लिये विकल हो उठेगा।
नर के रूप में प्रकट नारायण को हम पहचानें। उनकी सुख-सुविधा के लिये तन-मन से कुछ कश्ट उठाने का प्रसंग भी आये, तो उसे भगवत्कृपा-प्रसाद समझकर सहर्श धारण करें। उसके निमित्त की गयी दौड़-धूप और उठाई गई असुविधा में त्याग की नहीं, पूजा की भावना चाहिये। सब कुछ करके भी मैने किसी पर उपकार नहीं किया, केवल स्वाभाविक कर्तव्य की पूर्ति मात्र की है। यही दृढ़ धारणा होनी चाहिये। इसमें अहंकार और आत्मष्लाधा के लिये काई स्थान नहीं है।
इस दृश्टिकोण को यदि जीवन में लाने का प्रयत्न किया जाय, तो अनुभव होगा कि वैयक्तिक अथवा पारिवारिक, जो कुछ भी मेरी प्राप्ति है, वह कितनी भी अच्छी और प्रचुर मात्रा में क्यों न हो, उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं। यह भगवान की पूजा का नैवेद्य है। मै तो केवल प्रसाद मात्र का अधिकारी हूँ। जीवन-यात्रा में निर्वाह के लिये जितना परमावष्यक है, उतना ही मैं अपने उपयोग के लिये रखकर समाज की सेवा में समर्पित कर दूँ।
भगवान की पूजा उत्तमोत्तम रीति से करने के निमित्त अधिकतम भोग-सामग्री एकत्र करूँगा, तन-मन का सारा सामथ्र्य द्रव्य पदार्थ संचित करूँगा किन्तु उसमें से अपने उपयोग के लिये केवल उतना ही रखूँगा, जिसके अभाव में समाज-परमेष्वर की अर्चा में अड़चन का योग न बन पावे। उससे अधिक पर अधिकार करना अथवा अपने व्यक्तिगत उपयोग में लाना भगवान की सम्पत्ति का अपहरण है। जो सर्वथा निन्दनीय और षास्त्र वर्जित है।
जिस मनुश्य जीवन में राश्ट्र निर्माण के पवित्र कार्य करने का हमें अत्यन्त सौभाग्यपूर्ण अवसर और सामथ्र्य प्राप्त हुआ हैं, उसकों मृग तृश्णा के पीछे दौड़ने में नश्ट न कर दें। अतः भारतीय जीवन-रचना के इस सांस्कृतिक दृश्टिकोण को लेकर समश्टि (समाज) में परमात्मा का साक्षात्कार करते हुये कार्य-रूप से, षब्द-मात्र से नहीं, इस समज रूप पुराण-पुरूश की निरीह और अकिंचन भाव से पूजा करें। यह दृश्टि यदि अपने अन्दर रही तो एक समश्टि पुरुष अभिन्न रीति से आसेतु हिमाचल को व्याप्त किये हुये दिखाई देगा। कोई छुद्र भावना हृदय को छू न पायेगी और उस परम-पुरुश की आराधना में अपना सर्वस्व होम करके भी परम षान्ति का ही अनुभव होगा तथा जीवन के षुद्ध दृश्टिकोण की निर्मित होगी।
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