सोचो, ट्रैक्टर खा गया गांव की बेलगाड़ी को उसके पहिया बनाने वाले कारीगरों के हाथों को बुंदेलखंड के 13 जिलों के 11000 गांव में 9 लाख 50 हजार बैलगाड़ी थी। हर गांव में 95 बैलगाड़ी थी इसको बनाने वाले कारीगर या तो बूढ़े हो गए अथवा काम न मिलने के कारण पलायन कर गए गांव से |
यह गाड़ी बैलों से खींची जाती है।इसका नाम बैलगाड़ी हुआ यह विश्व का सबसे पुराना यातायात का साधन है, सामान ढोने का साधन है, पहिया मात्र बैलगाड़ी नहीं है जीवन है, जीवन जीने की युक्ति है। इन पहियों से जीवन की नई शुरुआत होती है पहिया हमें संदेश देता है निरंतर चलते रहो यह लकड़ी के पहिया आपको मंजिल तक पहुंचाते हैं यह गांव गरीब की रेलगाड़ी है जो बिना पेट्रोल के बिना इंजन की चलती है बगैर बिजली के यहां तक कि बिना ड्राइवर के, यह पहिया घर से बीज खेत को देते हैं। खेत से खलियान को देते हैं, खलिहान से घर को देते हैं, घर से बाजार को देते हैं, बाजार से फिर घर लाते हैं आपकी इच्छा पूरी कर के।बुंदेलखंड में लकड़ी के पहिया लकड़ी की गाड़ी स्थानीय बढ़ाई कारीगरों द्वारा बनाई जाती थी यह कारीगर 12 महीने बबूल की लकड़ी से बैल गाड़ी के पहिए बनाते थे जब ट्रैक्टर नहीं था। लंबी दूरी की यात्रा बैलगाड़ी से होती थी। इमरजेंसी के लिए एक पहिया अलग से गाड़ी में रखा जाता था इस बैलगाड़ी की त्योहारों में नजर उतारी जाती थी। साफ-सुथरा कर रंग रोशन कर पूजा की जाती थी बैलों को रंगो से रंगा जाता था गले में घंटी बांधी जाती थीगाड़ी को चमकाया जाता था पहियों को तेल पिलाय जाता था। मनुष्य ने खेती कब शुरू की इसका उत्तर सहज नहीं है शायद आदिमानव जब मानव बना तबसे सभी समस्याओं का हल उसने लकड़ी के हल से ढूंढा, सहायता के लिए लकड़ी की गाड़ी बनाई, गाड़ी में पहिया लगाए ना तो हल में लोहा लगाया, ना पहिया में लोहा लगाया न, गाड़ी में लोहा लगाया कितनी बड़ी तकलीफ थी उस जमाने के महापुरुषों में इस गाड़ी को बनाने वाले को विश्वकर्मा की उपाधि थी। तब जातियां नहीं थी जिनके हाथों से विशव का निर्माण हुआ विश्व के मानव जाति को कर्म करने की प्रेरणा दी विश्वकर्मा आज अपने जीवन जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस ट्रैक्टर युग ने गांव के उन इंजीनियरों को भागने पर मजबूर कर दिया जो बैल गाड़ी का पहिया, हल, चारपाई, वखर, हसिया, खुरपी, कुदाली, फावणा, आटा पीसने का जतवा, अनाज कूटने का मुंसर, कृषि से संबंधित वे सभी औजार गांव में ही बनाते थे। जो आज अच्छे से अच्छे इंजीनियर शहर में नहीं बना सकता, मेरे गांव के बढाई चाचा, लोहार चाचा को मैं बचपन से देखते चला रहा हूं। वह गांव के किसानों का काम ईमानदारी से करते थे किसान भी इनका बहुत सम्मान करते थे किसानी के औजार के सबसे बड़े डॉक्टर थे। हर गांव में पूरे बुंदेलखंड में इनकी संख्या 96612 थी। प्रत्येक गांव में कम से कम पांच पांच परिवार इन कारीगरों के हुआ करते थी। सबसे अधिक बैलगाड़ी बांदा जिले के गांव में थी ऐसा उल्लेख गजट ईयर में किया गया है आज किसी भी गांव में, वा शहर में ना तो नई बैल गाड़ी के पहिया बनाने वाले हैं, ना ही बैलगाड़ी मै कई गांव मे सर्वोदय कार्यकर्ता होने के नाते घुमा कई दिनों के बाद मुझे बबेरू में जो अतर्रा रोड पर 78 वर्ष उम्र के शिव गुलाम बढ़ाई विश्वकर्मा जो झोपड़ी में रह कर कार्य करते हैं मिले जो आज भी बैल गाड़ी का पहिया बनाते हैं। बड़े दुख के साथ कहते हैं कि यह हमारा पैतृक धंधा है, कई पीढ़ियों से कर रहे हैं उस जमाने में बैल गाड़ी के पहिया की 20 अंगुल, ₹20 जोड़ी मे बिकती थी, 2005 में 28 अंगुल परिया की कीमत ₹3000 थी, साल भर में 50 जोड़ी पहिया बिक जाते थे वर्तमान में 4 माह से एक जोड़ी पहिया नहीं बिका। ट्रैक्टर हमारी रोजी रोटी खा गया, भविष्य की पीढ़ी का हुनर खा गया, हमको भी कलाकारों की भांति जीवन यापन के लिए पेंशन चाहिए ना जमीन है, ना कोई दूसरा धंधा जानते हैं। यही एक उदाहरण है लगभग बुंदेलखंड के हर गांव के कारीगरों की यही दशा है जो बुजुर्ग हैं, इनके हुनर से देशभर का पेट भरा गया आज यह खुद भूखे हैं, इनकी कौन सुनेगा और क्यों सुनेगा मशीन के युग में बहुत बुद्धिमान समाज को अब क्या जरूरत है। यही एक बड़ा प्रश्न है? हमारा देश गांव की कुटीर उद्योग से चलता था। कुटिर उद्योग में इनका बड़ा भारी योगदान है खेत खलियान गांव के विकास में यह पूरे सहभागी थे। भारत के गांव के लकड़ी की सबसे पुराने जहाज को बनाने वाले कारीगर की बदौलत हर गरीब से गरीब किसान के पास अपना बगैर बैंक कर्ज का निजी हल था, बैल था, बैलगाड़ी थी।इनको बनवाने व खरीदने के लिए बैंक से लोन नहीं लेना पड़ता था आज हर किसान के पास ट्रैक्टर नहीं है, लेकिन जिसके पास है लाखों रुपए बैंक का कर्ज है, जमीन बिक रही है किसान आत्महत्या कर रहे हैं। क्योंकि शायद इसलिए कि हल बैल गाड़ी बनाने वाले की कीमत तुम्हारे समझ में नहीं आई। क्योंकि वह सस्ता था सुलभ था आज भी बचाया जा सकता है, भविष्य में इनकी जरूरत पड़ेगी। मैं बचपन में अपनी बाबा के साथ बैल गाड़ी में बैठ कर दीपावली के समय पास के गांव में मेला देखने जाता था। हजारों बैलगाड़ियां हुआ करती थी, बाबा दाई किस्से कहानी सुना करते थे। अपनी बैलगाड़ी को साफ सुथरा करते थे मेरे गांव में कई प्रकार के लकड़ी के हाल बना करते थे पहले छोटे, बड़े, मझोले बना करते थे। बैलगाड़ी भी कई प्रकार की बनती थी लकड़ी की, आज सब खत्म हो गया। यह सूचना में आप सबसे इस अनुरोध के साथ साझा कर रहा हूं कि इस दिशा में प्रयास किया। जाए यदि एक सूचना ठीक लगे तो आगे तक ले जाएं गलत हो तो क्षमा कर दे। जय जगत उमाशंकर पांडे सर्वोदय कार्यकर्ता बांदा बुंदेलखंड उत्तर प्रदेश।
मुझे एक कहानी याद आती है जो 1991 में एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में छपी थी अमेरिका के कुछ लोग खजुराहो के पास एक गांव में घूमने के लिए गए उन्होंने गांव के कारीगर को लकड़ी की बैलगाड़ी का पहिया बनाते देखा।उनके मन में प्रश्न उठा कि भारत के कारीगर कितने योग्य कि पूरे पहिए में कहीं भी एक कील लोहा नहीं लगा कील भी लकडी की, उसे बैलगाड़ी में लगाया और उसके ऊपर 1 टन वजन रखा 10 कुंटल रखा और खुद गाड़ी के ऊपर 10 किलोमीटर बैठकर यात्रा की। उनके समझ में आ गया कि भारत के गांव के यही असली इंजिनियर है। जिन्होंने एक भी लोहे की कील नहीं लगाई पहिए में, यह अमेरिका के इंजीनियरों से ज्यादा बुद्धिमान है। क्योंकि अमेरिका में तांगा, इक्का, खेती के औजार में लकड़ी कम, लोहा ज्यादा लगता है। भारत के कृषि औजारों में लकड़ी ही लगती है, लोहा नाममात्र का है वे इस तकनीक को अमेरिका ले जाने के लिए 2 जोड़ी लकड़ी के पहिया अमेरिका ले जाने के लिए 15 दिन खजुराहो में पड़े रहे। एयरपोर्ट अथॉरिटी भारत सरकार ने जब अनुमति दी तब वह अपने साथ भारत से बैलगाड़ी के पहिया ले गए यह एक उदाहरण है। आचार्य विनोबा जी, गांधीजी सर्वोदय विचारधारा ने गांव के किसान की गाड़ी को सबसे उत्तम आवागमन का साधन माना। हम सब मिलकर इस दिशा में काम करने के लिए आगे आए गांव के पहिए के इंजीनियरों को बजाएं। सोचे वंदे मातरम
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