गुरु की मार सहैं जो काया । उसने निर्मल रूप को पाया ।।
सहता नहीं जो घट थापा । कैसे कुटिलता गांवावत आपा ।।
सुन्दर वस्त्र होय जब गन्दा । मसलैं रजक पीटे स्वछन्दा ।।
निर्मल होय जब वस्त्र शरीरा । मानव धारण करत अधीरा ।।
कटैं वस्त्र जो दर्जी हाथे । मानव उसे चढ़ावत माथे ।।
ईंट सहैं मार रजगीरू । सुन्दर बुर्ज बनावत भीरू ।।
बढ़ई मार सहैं जो काठा । मार अखाड़ा सह बनैं पाठा ।।
सुंदर स्वर्ण सुनार तपावत । पीट-पीट बहु भांति बनावत ।।
सहते मार न स्वर्ण सुनारू । बनता कैसे कुण्डल हारू ।।
लौह गर्म कर हनैं लुहारा । विविध भांति बनैं औजारा ।।
ऋषिकान्त राव शिखरे
अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश।
No comments:
Post a Comment