Tuesday, April 1, 2025

सत्संग की महिमा

 एक चोर ने राजा के महल में चोरी की। सिपाहियों को पता चला तो उन्होंने उसके पदचिह्नों का पीछा किया। पीछा करते-करते वे नगर से बाहर आ गये। पास में एक गाँव था। उन्होंने चोर के पदचिह्न गाँव की ओर जाते देखे। गाँव में जाकर उन्होंने देखा कि एक संत सत्संग कर रहे हैं और बहुत से लोग बैठकर सुन रहे हैं। चोर के पदचिह्न भी उसी ओर जा रहे थे।सिपाहियों को संदेह हुआ कि चोर भी सत्संग में लोगों के बीच बैठा होगा। वे वहीं खड़े रह कर उसका इंतजार करने लगे। 

 सत्संग में संत कह रहे थे- जो मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान की शरण चला जाता है, भगवान उसके सम्पूर्ण पापों को माफ कर देते हैं। 

 गीता में भगवान ने कहा हैः 

  सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को  त्याग कर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। 


 वाल्मीकि रामायण में आता हैः 

 जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कह कर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है। 


 इसकी व्याख्या करते हुए संतश्री ने कहा : जो भगवान का हो गया, उसका मानों दूसरा जन्म हो गया। अब वह पापी नहीं रहा, साधु हो गया। 


 अगर कोई दुराचारी सेदुराचारी  भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए। कारण कि उसने बहुत अच्छी तरह से निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है। 


 चोर वहीं बैठा सब सुन रहा था। उस पर सत्संग की बातों का बहुत असर पड़ा। उसने वहीं बैठे-बैठे यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अभी से मैं भगवान की शरण लेता हूँ, अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। मैं भगवान का हो गया। सत्संग समाप्त हुआ। लोग उठकर बाहर जाने लगे। बाहर राजा के सिपाही चोर की तलाश में थे। चोर बाहर निकला तो सिपाहियों ने उसके पदचिह्नों को पहचान लिया और उसको पकड़ के राजा के सामने पेश किया। 


 राजा ने चोर से पूछाः इस महल में तुम्हीं ने चोरी की है न? सच-सच बताओ, तुमने चुराया धन कहाँ रखा है? चोर ने दृढ़ता पूर्वक कहाः "महाराज ! इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की।" 


 सिपाही बोलाः "महाराज ! यह झूठ बोलता है। हम इसके पदचिह्नों को पहचानते हैं। इसके पदचिह्न चोर के पदचिह्नों से मिलते हैं, इससे साफ सिद्ध होता है कि चोरी इसी ने की है।" राजा ने चोर की परीक्षा लेने की आज्ञा दी, जिससे पता चले कि वह झूठा है या सच्चा। 


 चोर के हाथ पर पीपल के ढाई पत्ते रखकर उसको कच्चे सूत से बाँध दिया गया। फिर उसके ऊपर गर्म करके लाल किया हुआ लोहा रखा परंतु उसका हाथ जलना तो दूर रहा, सूत और पत्ते भी नहीं जले। लोहा नीचे जमीन पर रखा तो वह जगह काली हो गयी। राजा ने सोचा कि 'वास्तव में इसने चोरी नहीं की, यह निर्दोष है।' 

 अब राजा सिपाहियों पर बहुत नाराज हुआ कि "तुम लोगों ने एक निर्दोष पुरुष पर चोरी का आरोप लगाया है। तुम लोगों को दण्ड दिया जायेगा।" यह सुन कर चोर बोलाः "नहीं महाराज ! आप इनको दण्ड न दें। इनका कोई दोष नहीं है। चोरी मैंने ही की थी।" राजा ने सोचा कि यह साधु पुरुष है, इसलिए सिपाहियों को दण्ड से बचाने के लिए चोरी का दोष अपने सिर पर ले रहा है। राजा बोलाः तुम इन पर दया करके इनको बचाने के लिए ऐसा कह रहे हो पर मैं इन्हें दण्ड अवश्य दूँगा। 

 चोर बोलाः "महाराज ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, चोरी मैंने ही की थी। अगर आपको विश्वास न हो तो अपने आदमियों को मेरे पास भेजो। मैंने चोरी का धन जंगल में जहाँ छिपा रखा है, वहाँ से लाकर दिखा दूँगा।" राजा ने अपने आदमियों को चोर के साथ भेजा। चोर उनको वहाँ ले गया जहाँ उसने धन छिपा रखा था और वहाँ से धन लाकर राजा के सामने रख दिया। यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। 


 राजा बोलाः अगर तुमने ही चोरी की थी तो परीक्षा करने पर तुम्हारा हाथ क्यों नहीं जला? तुम्हारा हाथ भी नहीं जला और तुमने चोरी का धन भी लाकर दे दिया, यह बात हमारी समझ में नहीं आ रही है।

   ठीक-ठीक बताओ, बात क्या है ? चोर बोलाः महाराज ! मैंने चोरी करने के बाद धन को जंगल में छिपा दिया और गाँव में चला गया। वहाँ एक जगह सत्संग हो रहा था। मैं वहाँ जा कर लोगों के बीच बैठ गया। सत्संग में मैंने सुना कि ''जो भगवान की शरण लेकर पुनः पाप न करने का निश्चय कर लेता है, उसको भगवान सब पापों से मुक्त कर देते हैं। उसका नया जन्म हो जाता है।'' इस बात का मुझ पर असर पड़ा और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि 

" अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। "

अब मैं भगवान का हो लिया कि 'अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा। अब मैं भगवान का हो गया। इसीलिए तब से मेरा नया जन्म हो गया। इस जन्म में मैंने कोई चोरी नहीं की, इसलिए मेरा हाथ नहीं जला। आपके महल में मैंने जो चोरी की थी, वह तो पिछले जन्म में की थी। 

 कैसा दिव्य प्रभाव है सत्संग का ! मात्र कुछ क्षण के सत्संग ने चोर का जीवन ही पलट दिया। उसे सही समझ देकर पुण्यात्मा, धर्मात्मा बना दिया। चोर सत्संग-वचनों में दृढ़ निष्ठा से कठोर परीक्षा में भी सफल हो गया और उसका जीवन बदल गया। राजा उससे प्रभावित हुआ, प्रजा से भी वह सम्मानित हुआ और प्रभु के रास्ते चलकर प्रभु कृपा से उसने परम पद को भी पा लिया।

 सत्संग पापी से पापी व्यक्ति को भी पुण्यात्मा बना देता है। 

जीवन में सत्संग नहीं होगा तो आदमी कुसंग जरूर करेगा। 

 कुसंग व्यक्ति से कुकर्म करवा कर व्यक्ति को पतन के गर्त में गिरा देता है लेकिन सत्संग व्यक्ति को तार देता है, महान बना देता है। ऐसी दिव्य शक्ति है सत्संग में !

राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।🙏

Sunday, March 23, 2025

आगे बढ़ते रहें

कभी भी हम यह सोच कर कमजोर नहीं पड़ें कि हम अकेले हैं बल्कि यह सोच कर आगे बढ़ें कि हम अकेले ही काफ़ी हैं। पानी में कील ठोंकने से पानी रुकता नहीं.ऐसे ही बहुत सी बातें होती हैं जिन पर हमारा ज़रा भी वश नहीं चलता।

उन बातों को बोझ की तरह मन-मस्तिष्क में लाद कर चलने से जीवन भारी लगेगा इसलिए उन्हें यथास्थिति स्वीकार करके आगे बढ़ने में ही समझदारी है। नियति पर नियंत्रण संभव नहीं है लेकिन उसके प्रति अपनी सोच पर नियंत्रण किया जा सकता है 

           

🌞 बुद्धि नाश कैसे होती है 🌞

       मन का विषय क्या है ? मन के अनेक विषय हैं, अर्थात मन में अनेक इच्छाएं हैं, विचार हैं। मन में एक विचार उपजा, एक अभिलाषा जगी कि ऐसा होना चाहिए। अब वह विचार उमड़ घुमण कर मन को मथने लगा। अब उसके प्रति मन अनुराग, आसक्ति, आतुरता पैदा हुई।  

        उसके उपरांत मन में विचार आने लगे कि कैसे यह उपलब्ध होगा। एक ताना बाना बनने लगा। एक योजना बन गई मन में, उसका मानचित्र खिंच गया। अब उस योजना के कार्यान्वयन की बारी आई। अब उस योजना के कार्यान्वयन में जो जो भी आड़े आयेगा, जो जो बात नहीं मानी जायेगी, वह क्रोध को, असहमति को, नकार को जन्म देगी।

       प्रारम्भ में तो आप दो चार बार समझाते हैं, थोड़ा बहुत आपकी समझ के अनुसार कार्यान्वयन होता भी है। परंतु ठीक उस मानचित्र के अनुसार नहीं, जैसा कि आपने अपने मन में रूप रेखा बना रखी है।  धीरे धीरे क्रोध का बारूद एकत्रित होने लगा।

        अब हम धीरे धीरे क्रोध से सम्मोहित होने लगे। अब धीरे धीरे प्रकृति हमारे ऊपर भारी पड़ने लगी, प्रकृति मालिक होने लगी। क्रोध में हम अपना विवेक खोने लगे, क्रोध ने हमें पूरी तरह अपने वश में ले लिया। हम भूल गए कि हम क्या करने वाले हैं, क्या कर रहे हैं। इसी को बुद्धिनाश कहा गया है। बुद्धि नाश के बाद क्या होगा? वही जो होता है? व्यक्ति क्रोध से फट पड़ता है और फिर बाद में सोचता है कि ऐसे कैसे हुआ !

सुप्रभातम सुमंगलम राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहिमाम आपका हर पल मंगलमय हो और आनन्ददायक हो।

जैसी दृष्टि होगी वैसी सृष्टि होगी

एक बार राजा भोज की सभा में एक व्यापारी ने प्रवेश किया. राजा भोज की दृष्टि उस पर पड़ी तो उसे देखते ही अचानक उनके मन में विचार आया कि कुछ ऐसा किया जाए ताकि इस व्यापारी की सारी संपत्ति छीनकर राजकोष में जमा कर दी जाए.

व्यापारी जब तक वहां रहा भोज का मन रह रहकर उसकी संपत्ति को हड़प लेने का करता. कुछ देर बाद व्यापारी चला गया. उसके जाने के बाद राजा को अपने राज्य के ही एक निवासी के लिए आए ऐसे विचारों के लिए बड़ा खेद होने लगा.

राजा भोज ने सोचा कि मैं तो प्रजा के साथ न्यायप्रिय रहता हूं. आज मेरे मन में ऐसा कलुषित विचार क्यों आया? उन्होंने अपने मंत्री से सारी बात बताकर समाधान पूछा. मन्त्री ने कहा- इसका उत्तर देने के लिए आप मुझे कुछ समय दें. राजा मान गए.


मंत्री विलक्षण बुद्धि का था. वह इधर-उधर के सोच-विचार में समय न खोकर सीधा व्यापारी से मैत्री गाँठने पहुंचा. व्यापारी से मित्रता करने के बाद उसने पूछा- मित्र तुम चिन्तित क्यों हो? भारी मुनाफे वाले चन्दन का व्यापार करते हो, फिर चिंता कैसी?

व्यापारी बोला- मेरे पास उत्तम कोटि के चंदन का बड़ा भंडार जमा हो गया है. चंदन से भरी गाडियां लेकर अनेक शहरों के चक्कर लगाए पर नहीं बिक रहा है. बहुत धन इसमें फंसा पडा है. अब नुकसान से बचने का कोई उपाय नहीं है.

व्यापारी की बातें सुनकर मंत्री ने पूछा- क्या हानि से बचने का कोई उपाय नहीं? व्यापारी हंसकर कहने लगा- अगर राजा भोज की मृत्यु हो जाए तो उनके दाह-संस्कार के लिए सारा चन्दन बिक सकता है. अब तो यही अंतिम मार्ग दिखता है.


व्यापारी की इस बात से मंत्री को राजा के उस प्रश्न का उत्तर मिल चुका था जो उन्होंने व्यापारी के संदर्भ में पूछा था. मंत्री ने कहा- तुम आज से प्रतिदिन राजा का भोजन पकाने के लिए चालीस किलो चन्दन राजरसोई भेज दिया करो. पैसे उसी समय मिल जाएंगे.

व्यापारी यह सुनकर बड़ा खुश हुआ. प्रतिदिन और नकद चंदन बिक्री से तो उसकी समस्या ही दूर हो जाने वाली थी. वह मन ही मन राजा के दीर्घायु होने की कामना करने लगा ताकि राजा की रसोई के लिए चंदन लंबे समय तक बेचता रहे.

एक दिन राजा अपनी सभा में बैठे थे. वह व्यापारी दोबारा राजा के दर्शनों को वहां आया. उसे देखकर राजा के मन में विचार आया कि यह कितना आकर्षक व्यक्ति है. इसे कुछ पुरस्कारस्वरूप अवश्य दिया जाना चाहिए.


राजा ने मंत्री से कहा- यह व्यापारी पहली बार आया था तो उस दिन मेरे मन में कुछ बुरे भाव आए थे और मैंने तुमसे प्रश्न किया था. आज इसे देखकर मेरे मन के भाव बदल गए. इसे दूसरी बार देखकर मेरे मन में इतना परिवर्तन कैसे हो गया?

मन्त्री ने उत्तर देते हुए कहा- महाराज! मैं आपके दोनों ही प्रश्नों का उत्तर आज दे रहा हूं. यह जब पहली बार आया था तब यह आपकी मृत्यु की कामना रखता था. अब यह आपके लंबे जीवन की कामना करता रहता है.


इसलिए आपके मन में इसके प्रति दो तरह की भावनाओं ने जन्म लिया है. जैसी भावना अपनी होती है, वैसा ही प्रतिबिम्ब दूसरे के मन पर पडने लगता है. यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है.

हम किसी व्यक्ति का मूल्यांकन कर रहे होते हैं तो उसके मन में उपजते भावों का उस मूल्यांकन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. इसलिए जब भी किसी से मिलें तो एक सकारात्मक सोच के साथ ही मिलें.

ताकि आपके शरीर से सकारात्मक ऊर्जा निकले और वह व्यक्ति उस सकारात्मक ऊर्जा से प्रभावित होकर आसानी से आप के पक्ष में विचार करने के लिए प्रेरित हो सके ।


क्योंकि जैसी दृष्टि होगी, वैसी सृष्टि होगी


कंस के द्वारा मारे गए देवकी के 6 शिशु


पौराणिक कथाएं प्रमाण हैं कि जब भी धरती पर अधर्म बढ़ा है तो धर्म की संस्थापना के लिए भगवान ने अवतार लिया है। भगवान श्री कृष्ण वह महानायक हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया को अधर्म और अन्याय के विरुद्ध खड़े होना सिखाया ।


द्वापर का समय था। उस समय मथुरा का राज्य कंस के हाथों में था। कंस निरंकुश व पाषाण ह्रदय नरेश था। वैसे तो वह अपनी बहन देवकी से बहुत प्यार करता था पर जबसे उसे मालूम हुआ था कि देवकी का आठवां पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा। तभी से उसने उसे काल कोठरी में डाल रखा था । इसी लिए किसी भी तरह का खतरा मोल न लेने की इच्छा के कारण कंस ने देवकी के पहले 6 शिशु की भी ह्त्या कर दी।


कौन थे वे 6 शिशु

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ब्रह्मलोक में स्मर, उद्रीथ, परिश्वंग, पतंग, क्षुद्र्मृत व घ्रिणी नाम के छह देवता हुआ करते थे ।


ये ब्रह्माजी के कृपा पात्र थे । इन पर ब्रह्मा जी की कृपा और स्नेह दृष्टि सदा बनी रहती थी। वे इन छहों की छोटी-मोटी बातों और गलतियों पर ध्यान नहीं देते थे। इसी कारण उन छहों में धीरे-धीरे अपनी सफलता के कारण घमंड पनपने लग गया । ये अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझने लग गए ।


ऐसे में ही एक दिन इन्होंने बात-बात में ब्रह्माजी का भी अनादर कर दिया। इससे ब्रह्माजी ने क्रोधित हो इन्हें श्राप दे दिया कि तुम लोग पृथ्वी पर दैत्य वंश में जन्म लो। इससे उन छहों की बुद्धि ठिकाने आ गयी और वे बार-बार ब्रह्माजी से क्षमा याचना करने लगे ।


ब्रह्मा जी को भी इन पर दया आ गयी और उन्होंने कहा कि जन्म तो तुम्हें दैत्य वंश में लेना ही पडेगा पर तुम्हारा पूर्व ज्ञान बना रहेगा ।


समयानुसार उन छहों ने राक्षसराज हिरण्यकश्यप के घर जन्म लिया । उस जन्म में उन्होंने पूर्व जन्म का ज्ञान होने के कारण कोई गलत काम नहीं किया । सारा समय उन्होंने ब्रह्माजी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न करने में ही बिताया । जिससे प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उनसे वरदान माँगने को कहा ।


दैत्य योनि के प्रभाव से उन्होंने वैसा ही वर माँगा कि हमारी मौत न देवताओं के हाथों हो, न गन्धर्वों के, न ही हम हारी-बीमारी से मरें ! ब्रह्माजी तथास्तु कह कर अंतर्ध्यान हो गए । इधर हिरण्यकश्यप अपने पुत्रों से देवताओं की उपासना करने के कारण नाराज था । उसने इस बात के ज्ञात होते ही उन छहों को श्राप दे डाला की तुम्हारी मौत देवता या गंधर्व के हाथों नहीं एक दैत्य के हाथों ही होगी ।


इसी शाप के वशीभूत उन्होंने देवकी के गर्भ से जन्म लिया और कंस के हाथों मारे गए और सुतल लोक में पुन: स्थान पाया। कंस वध के पश्चात जब श्रीकृष्ण माँ देवकी के पास गए । माँ ने उन 6 शिशु को देखने की इच्छा प्रभु से की जिनको जन्मते ही मार डाला गया था। प्रभु ने सुतल लोक से उन 6 शिशु को लाकर माँ की इच्छा पूरी की । प्रभु के सानिध्य और कृपा से वे फिर देवलोक में स्थान पा गए ।